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सदा

By Sandeep Sharma





सहरा में जैसे सराब नज़र आ रही है

ज़िन्दगी हाथों से फिसलती जा रही है

अब मैं बिखरी हसरतों को समेटूं भी तो कितना

चाक-दामन से ख़ुशियाँ निकलती जा रही हैं

एक तेरा ही सहारा है अब मेरे हम-नवा

क्या तुझ तक मेरी सर्द आह आ रही है


रफ़्ता-रफ़्ता बुनता रहा जिस ज़ीस्त की चादर को

वही मैली चादर अब सिमटती जा रही है

राएगाँ न हो ये ज़िन्दगी का सफ़र एक मुलाक़ात तो कर

हाल से मेरे हो तू भी वाक़िफ़ दिल से यही सदा आ रही है

किन मरहलों से गुज़र रहा हूँ मैं मेरा यक़ीन तो कर

अब ना जीने का है मज़ा और न मौत आ रही है


By Sandeep Sharma




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