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लॉक डाउन

By Deepak Kulshrestha


मैं और असलम दोनों ही इंजीनियरिंग कॉलेज में साथ पढ़ते थे, वहीं हमारी  दोस्ती हुई और परवान चढ़ी. वो पाँच वक़्त का नमाज़ी और मैं शुद्ध शाकाहारी वैष्णव फिर भी कहते हैं कि एक बार अगर केमिस्ट्री मैच कर जाये तो बाकी सभी विषय गौण हो जाते हैं. हमने साथ-साथ अपनी आर्किटेक्चरिंग की पढाई पूरी की और साथ ही एक पार्टनरशिप फर्म की स्थापना की. ईश्वर का आशीर्वाद और हमारी मेहनत दोनों रंग लाये और शीघ्र ही हमारा नाम और काम दोनों ही अच्छे चलने लगे. वक़्त के साथ दोनों की शादियाँ भी हुई और हमारी पत्नियों के ग्रह-नक्षत्र भी ऐसे ही मिल गए थे जैसे हमारे मिले थे. हम दोनों ने ही ये सोच कर की हम इस दोस्ती को ज़िन्दगी भर निभायेंगे, साथ ही साथ अगल-बगल अपनी-अपनी रूचि अनुसार दो घर बनाये. एक काम जो विशेष तौर पर किया गया वो यह था कि घर के आगे बगीचे वाले हिस्से में हमने दोनों घरों के बीच में कोई दीवार नहीं बनायी. यहाँ तक कि घर के पिछले भाग में आँगन में भी बीच की दीवार में एक दरवाज़ा बनाया गया जिसे हमेशा खुला रखा जाता था. विचार यही था कि दोनों परिवारों को एक-दूसरे के घर में आने-जाने में कोई रोक-टोक या परेशानी ना हो. 

इसी बीच असलम के घर एक प्यारी सी बेटी ने जन्म लिया जिसका नाम रखा गया अर्शिया और उसके कुछ तीन महीनों के बाद हमारे यहाँ भी एक बेटा हुआ अर्जुन. दोनों बच्चे साथ-साथ खेलते हुए बड़े होने लगे, हम अपना काम करते रहे और घर का महिला मंडल अपना. यानि ज़िन्दगी प्यार-मोहब्बत और हँसी-ख़ुशी से बीत रही थी. वक़्त गुजरा और दोनों बच्चे अर्शिया और अर्जुन स्कूल की दहलीज़ पार कर गये, समय आ गया था जहाँ दोनों को अपने आने वाले कैरियर के लिये आगे पढ़ने जाना था. हमारे बेटे अर्जुन का सिलेक्शन IIT में हो गया वहीं असलम की बेटी अर्शिया किसी वजह से IIT में एडमिशन ना पा सकी और एक अन्य अच्छे प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने चली गयी. असलम थोड़ा सा निराश जरुर हुआ फिर हमारे, उसकी पत्नि और बेटी के समझाने के बाद कुछ ठीक हो गया, पर कहीं कुछ तल्खी उसके मन में फिर भी रह गयी थी. एकाध बार मेरी पत्नी ने इस बारे में मुझसे शिकवा भी किया पर मैंने उसे समझा-बुझा कर शांत कर दिया. दोनों ही बच्चों की रूचि कंप्यूटर इंजीनियरिंग में थी इसलिये अलग-अलग कॉलेज में होते हुए भी काफ़ी कुछ कॉमन था सो बच्चों की आपसी बात-चीत भी चलती रही. कुछ वक़्त और गुजरा, बच्चों की पढ़ाई भी पूरी हो गयी और अर्जुन को अमेरिका में एक सॉफ्टवेर कंपनी में नौकरी मिल गयी, अर्शिया को भी बैंगलोर में एक सॉफ्टवेर कंपनी में नौकरी मिल गयी थी जहाँ से कुछ समय बाद उसे भी ऑफिस के किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में अमेरिका जाना पड़ा. पराये देश और पराये लोगों के बीच दोनों बच्चे अकेले थे इसलिये दोनों को ही एक दुसरे का सहारा था और दोनों ही परिवार बच्चों की तरक्की और इस बात से खुश भी थे कि बच्चों को एक-दूसरे के साथ की वजह से काफ़ी सहुलियत है. अर्शिया के IIT में चयन न होने का असलम का घाव भी इस तरक्की से काफ़ी हद तक भर गया था जिसका उसने एक दो बार इज़हार भी किया.

जाने कैसे और कब दोनों बच्चों ने यह महसूस किया कि वो दोनों एक-दूसरे के साथ ज्यादा खुश रहते हैं और इसी वजह से दोनों ने आपस में शादी करने का फैसला किया. फिर एक दिन वह भी आया जब अर्जुन ने फ़ोन पर इस बारे में हमें बताया, मैंने उसी समय अर्शिया से भी बात की और उसकी सहमती भी पूछी जिसे उसने ख़ुशी-ख़ुशी जाहिर किया. साथ ही अर्शिया ने कहा कि मैं ही असलम से इस बारे में बात करूँ. इस रिश्ते पर मुझे तो कोई आपत्ति नहीं थी पर पत्नी का मन ज़रूर इस विषय पर संशय में था कि दोनों के धर्म अलग हैं, दोस्ती तक तो ठीक था पर बच्चों की शादी ? और फिर उनकी अर्शिया हमारे बेटे अर्जुन से बड़ी भी है ? पत्नी के संशय का तो मैंने समाधान कर दिया, वैसे भी तीन महीने का उम्र का अंतर कोई ख़ास मायने नहीं रखता था. तय किया गया कि मैं असलम से इस विषय में बात करूँगा. बरसों की दोस्ती को देखते हुए हम दोनों पति-पत्नी आश्वस्त थे कि किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होनी चाहिये.

खैर, अगले दिन मैंने ऑफिस में असलम को सभी बातें विस्तार से बतायीं और बच्चों के निर्णय से भी अवगत कराया. लेकिन जैसा सोचा था हुआ ठीक उसके उलट, असलम एक दम बिगड़ गया और गुस्से में ऑफिस से उठ कर चला गया. मैं थोड़ा हतप्रभ था, पर यह सोच कर कि थोड़ा शांत होने के बाद जब असलम वापस आयेगा तो उसका मूड देख कर मैं उसे दोबारा समझाने का प्रयास करूँगा, मैं अपने काम में लग गया. असलम नहीं आया, शाम को घर आने पर पत्नी ने बताया कि वो दिन में ही ऑफिस से घर वापस आ गया था और आज सारे दिन उनके घर से कोई आवाज़ नहीं आयी, ना ही कोई बाहर दिखायी दिया. मेरी पत्नी भी अपने मन में चलती आशंकाओं के रहते उनके घर नहीं गयी और मेरे घर लौट आने का इंतज़ार कर रही थी. मैं असलम से बात करने उसके घर गया तो उसकी पत्नी ने बताया कि उनकी तबियत ठीक नहीं है और वो सो रहे हैं. उसके बाद के अगले कुछ दिनों में मैंने और भी कई बार कोशिश की पर वो बात करने से किसी न किसी बहाने से बचता रहा, उन दिनों वो ऑफिस भी नहीं आया. एक दिन सुबह उठ कर देखा तो उनके घर के बाहरी दरवाज़े पर ताला लगा था. इस तरह बिना किसी सूचना के पहले वो कभी कहीं नहीं गये थे पर अब परिस्थिति बदल चुकी थी. इस बात के अगले दिन अर्जुन ने फ़ोन करके हमें बताया कि वो दोनों अमेरिका में अपनी बेटी के पास हैं और उन्होंने अर्जुन और अर्शिया दोनों के मिलने और बात करने पर भी पाबंदी लगा दी है. हमने भी बेटे से कुछ दिन शांत रहने को कहा, अब देखना यह था कि वक़्त क्या करवट लेता है. तमाम तरह की आशंकाओं के बीच कुछ दिन और गुजरे और इस बीच अर्जुन से हमें अमेरिका के हाल-चाल भी मिलते रहे जिनमें कोई नयी या विशेष बात फिर नहीं हुई. असलम और उसकी पत्नी लौट आये, आते ही असलम ने अपने निर्णय से हमें अवगत करा दिया कि यह शादी नहीं हो सकती. उसका धर्म और उसकी कौम इस बात की इजाज़त नहीं देती है. बरसों की दोस्ती और हमारे समझाने-बुझाने का भी कोई असर उस पर नहीं हुआ, असलम की पत्नी इस पूरे समय तटस्थ रही और उसने अपनी कोई विशेष राय प्रकट नहीं की पर उसके चेहरे से कभी कोई नाराज़गी भी नहीं लगी.

कुछ दिन बाद अर्जुन को फ़ोन आया कि दोनों बच्चों ने वहाँ शादी करने का फैसला किया है और हमें अमेरिका बुलाया है. असलम की नाराज़गी और असहमति की वजह से अर्शिया ने हमें ख़ास तौर से कहा कि असलम और उसकी पत्नी को इस बारे में अभी कुछ ना बताया जाये. असलम और उसकी पत्नी को बिना कुछ कहे हम लोग अमेरिका चले गये और वहाँ की कानूनी प्रक्रिया पूरी करने के बाद अर्जुन और अर्शिया की शादी हो गयी. बच्चों के और हमारे दिल में उम्मीद की कोई किरण अभी भी कहीं बाकी थी कि शायद असलम बाद में मान जायेगा. जब हम लौट कर आये तो देखा कि आँगन में दोनों घरों के बीच वाला दरवाज़ा असलम की तरफ़ से बंद कर दिया गया है, पूछने पर असलम की पत्नी ने बताया कि असलम ने उसमें अपनी वाली तरफ़ से ताला लगा दिया है. गनीमत यह रही कि घर के आगे बगीचे वाले हिस्से में कोई दीवार नहीं उठायी गयी थी पर वहाँ भी कुछ बड़े-बड़े गमले रख कर एक विभाजन रेखा सी खींच दी गयी थी. हमें असलम की इस हरकत पर आश्चर्य तो हुआ पर हमने शांत रहना ही उचित समझा क्योंकि अपनी और बच्चों की खातिर हमें तो उसकी नाराज़गी खत्म होने का इंतज़ार करना था. अगले दिन ऑफिस गया तो असलम से मुलाकात हुई, उसने बताया कि अब साथ में काम करना संभव नहीं है सो बँटवारा हो जाना चाहिये. उसने यह भी जाहिर किया कि उसे अर्जुन और अर्शिया की शादी और उसमें हमारी शिरकत की भी जानकारी है, कैसे तो  उसने नहीं बताया पर यह ज़रूर बताया कि अपनी बेटी अर्शिया से उसने अपने सारे सम्बन्ध तोड़ लिये हैं. इस बात को लेकर उसने मुझे काफ़ी कुछ कहा, मेरे लाख समझाने पर भी  असलम किसी भी तरह से पिघलने को तैयार नहीं था, बँटवारा हो गया, दो अलग-अलग फर्म बन गयीं और पुराना ऑफिस उसकी जिद के हिसाब से उसे देकर मैंने अपना ऑफिस अलग बना लिया. हम दोनों अलग-अलग अपना-अपना काम करने लगे. 

कुछ वक़्त और गुजरा, अर्जुन और अर्शिया के घर एक बच्चे का जन्म हुआ जिसके जन्म के समय एक बार फिर बच्चों की ख़ुशी में शरीक होने की खातिर हमारा उनके पास अमेरिका जाना हुआ. इस बार अर्शिया और अर्जुन ने स्वयं ही फ़ोन करके असलम को इस बारे में बताया, बच्चे की फोटो भी whatsapp पर उसके साथ साझा की. बच्चे की तस्वीर देख कर भी असलम के दिल पर जमी बर्फ़ नहीं पिघली. जाते समय मैंने स्वयं ही असलम से बात की, उससे बच्चों की खातिर नाराज़गी छोड़ देने और साथ चलने का काफ़ी आग्रह भी किया पर असलम अपनी जिद पर कायम रहा. वक़्त गुजरता रहा, अर्जुन और अर्शिया का बेटा ढाई साल को हो चला था और वो प्ले स्कूल में उसके एडमिशन की तैयारी कर रहे थे. तभी दुनियाँ में कोरोना महामारी का यह रोग फ़ैल गया. अर्जुन और अर्शिया की कंपनी ने कुछ समय के लिये प्रोजेक्ट को बीच में ही रोक देने का फ़ैसला किया और उन्हें भारत वापस बुला लिया और इस तरह अर्जुन और अर्शिया अपने बच्चे के साथ हमारे पास रहने के लिये आ गये. भारत में कोरोना के फैलने के साथ ही सभी जगह लॉक डाउन और social distancing हो गयी थी, सभी लोग अपने-अपने घरों से ही काम कर रहे थे. हम तो वैसे भी चाहे-अनचाहे अपने दोस्त असलम के साथ पिछले कुछ बरसों से social distancing निभा ही रहे थे.

बच्चों के आते ही घर में रौनक आ गयी, ख़ास-तौर से जब घर में एक छोटा बच्चा हो तो वो घर के सभी लोगों के लिये न सिर्फ मनोरंजन का एक साधन होता है बल्कि वो सब को अपने साथ व्यस्त भी रखता है. चिंता इस बात की थी कि ऐसे में असलम और उसकी पत्नी की प्रतिक्रिया क्या हो रही होगी जब उनकी अपनी बेटी और नवासा उनके इतने नज़दीक उनकी नज़रों के सामने ही हों ? अर्शिया ने एक-दो बार असलम और अपनी अम्मी से बात करने की कोशिश की पर नाकाम रही. बच्चा दिन रात कभी घर के आँगन में और कभी घर के बाहर वाले बगीचे में अपने खेल-कूद और दौड़-भाग में रहता और हम भी उसके पीछे-पीछे दौड़ते-भागते रहते. असलम की पत्नी अपनी नम आँखों से कभी अपने घर की छत से और कभी अपने बगीचे से उसे निहारा करती और यह देख कर हमारा मन भी भीग जाता. सुबह और शाम के वक़्त बच्चे के खेल के चक्कर हम लोग अक्सर बाहर बगीचे में होते और उस समय असलम और उसकी पत्नी भी अपने वाले हिस्से में यदा-कदा मौजूद रहते थे. असलम की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया न देख कर कभी-कभी ऐसा लगता था कि हिमालय पर जमी बर्फ़ भी शायद कभी पिघल सकती है पर असलम नहीं. पर हमें क्या पता था कि global warming के जमाने में कहीं local warming भी हो सकती थी. हुआ यूँ कि एक दिन मैं सुबह के समय बाहर बगीचे में अखबार पढ़ रहा था और हमारे छोटे साहेबज़ादे वही  अपनी बॉल से खेल रहे थे. मैंने देखा कि असलम भी उधर अपने वाले हिस्से में बैठा अखबार के साथ चाय का आनंद ले रहा है. तभी पत्नी ने मुझे घर के अंदर से आवाज़ दी और मैं कुछ पलों के लिये घर के अंदर चला गया. मुश्किल से पाँच-सात मिनट लगे होंगे, मैं वापस बाहर आया तो मैंने देखा कि बगल वाले घर में असलम के हाथ से चाय का कप नीचे गिरा हुआ था, तमाम चाय असलम के कपड़ों और अखबार पर फ़ैली हुई थी और हमारे छोटे साहेबज़ादे अपनी बॉल के साथ सहमे हुए असलम के पास खड़े थे. गमलों से बनी हुई वो विभाजन रेखा उन्हें और उनकी बॉल को रोक पाने में नाकामयाब रही थी. वहाँ का नज़ारा देख कर कुछ हद तक तो बात मेरी समझ में आ गयी थी पर असलम के साथ हाल ही के अनुभव को सोच कर मैंने कुछ न कहना ही उचित समझा और चुपचाप देखता रहा. इन पाँच-सात मिनटों के दौरान क्या-क्या हुआ इसकी पूरी-पूरी जानकारी हमें न मिल सकी. कौन देता ? असलम से पूछा नहीं जा सकता था और बच्चा तो खैर बच्चा ही था. तभी असलम की पत्नी भी बाहर आ गयी थी और वो भी माजरे को समझने का प्रयास कर रही थी. असलम की पत्नी और मैं साँस रोके अगले पल का इंतज़ार कर रहे थे कि आगे क्या होने वाला है. तभी हमारे नन्हें खिलाड़ी ने मुझे देखा और भाग कर वापस मेरी तरफ़ चला आया. मैंने देखा असलम के चेहरे पर एक साथ कई भाव आये और चले गये और फिर वो मुझे देख कर शायद संकोचवश उठ कर अंदर चला गया. मैंने भी घर के अंदर आ कर घरवालों को ये वाक़या बयाँ किया, किसी के समझ में नहीं आया कि क्या प्रतिक्रिया दे. बच्चे ने अपने हिसाब से जो कुछ अर्शिया को बताया उससे ज्यादा कुछ समझ में नहीं आया. मैंने बच्चे से और पूछताछ के लिये मना कर दिया, मैं इस बात को लेकर बच्चे के ऊपर किसी भी तरह का कोई दबाव बनाने के पक्ष में नहीं था. असलम और बच्चे के बीच उन पाँच-सात मिनटों के दौरान क्या हुआ उस बारे में हमारी जानकारी अधूरी ही रही और आगे कोई भी निष्कर्ष निकालने में हम असमर्थ ही रहे. उसके बाद सारे दिन दोनों तरफ पूरी तरह शांति बनी रही, मैं एक-दो बार माहौल का जायज़ा लेने बाहर भी आया पर उस तरफ़ पूरी ख़ामोशी थी, दरवाज़े भी बंद थे. 

वक़्त और नियति कभी किसी के लिये नहीं रुकते हैं, उन्हें तो अपनी गति से चलना ही होता है और वो चलते भी रहते हैं. उसी सन्नाटे और आशंका के बीच दिन गुजरा और रात हो गयी. अगले दिन सुबह जब हम लोग सो कर उठे तो हमने पाया कि दोनों घरों के आँगन के बीच की दीवार में वो दरवाज़ा जो पिछले कुछ बरसों से बंद था वो खुला हुआ है, जब पूरी दुनियाँ लॉक डाउन में थी यहाँ एक लॉक ओपन हुआ था. असमंजस में घिरे हुए जब हमने नज़दीक जाकर देखा तो असलम उस और खड़ा हुआ था.....

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