अधूरी कहानी - इंतज़ार
- Hashtag Kalakar
- Aug 18
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By Deepak Kulshrestha
आज पूरे 25 साल बाद देखा था उसे, यहीं कोविड वार्ड में. मेरी ड्यूटी यहीं इस सुदूर ग्रामीण अंचल के इस छोटे से अस्पताल में लगी हुई थी. 2020 का साल था और कोरोना नाम की ये महामारी सारे संसार में फैली हुई थी, कोई नहीं जानता था कि ये क्या बला है. हम डॉक्टर लोग भी अपनी-अपनी जानकारी के हिसाब से जैसे बन पड़े सीमित जानकारी और सीमित साधनों से मरीजों का इलाज करने में लगे हुए थे. कभी सफ़लता मिलती भी थी और कभी नहीं भी. ऐसे में आज अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में उसे देखा. जाने कौन उसे वहाँ छोड़ गया था, बुखार से तपता हुआ बदन और कमज़ोरी से मरणासन्न शरीर, उसे ये भी होश नहीं था कि वो कहाँ और किस हाल में है. कह नहीं सकता कि उसे वहाँ देख कर कौन सा अहसास पहले जागा – डॉक्टर होने का या फिर बरसों पहले उसे खो देने का. खैर, उसे कोरोना वार्ड में दाखिल करवाया और इलाज शुरू किया. सरकारी अस्पताल की उस छोटी से बिल्डिंग में वैसे भी इतने कमरे नहीं थे कि हर तरह के मरीज़ का अलग-अलग इंतज़ाम हो सके, बमुश्किल एक कमरा खाली करके उसे कोरोना के मरीज़ों के लिये अलग किया था. कोरोना का खौफ़ कुछ ऐसा था कि कोई भी मरीज़ की तीमारदारी को तैयार नहीं था, ना तो घर-परिवार वाले और ना ही अस्पताल का स्टाफ़, यहाँ तक कि कोई उस कमरे में भी जाने तक को तैयार नहीं था. ऐसे में मरीज़ को समय पर दवा देना, उनके लिये उचित खाने-पीने का प्रबंध करना आदि-आदि जैसे कई ऐसे कार्य थे जिनके लिये स्टाफ़ कम पड़ता था सो ऐसे में मैं ही ज्यादातर समय बचे-खुचे स्टाफ़ के साथ कोरोना वार्ड का प्रबंध भी देख रहा था. अस्पताल में स्टाफ़ की कमी होने की वजह से उसकी देखभाल का पूरा जिम्मा मैंने अपने ऊपर ही ले लिया था. कभी अगर कुछ खाली समय मिल जाता तो मैं कोरोना के खतरे को जानने के बावज़ूद उसके वार्ड के चक्कर लगाता रहता, उसे देखता रहता, बीते वक़्त के निशान खोजता रहता, उसके बालों में हलकी सी चाँदी उग आयी थी. समझ नहीं पाता था कि कोरोना वायरस का खतरा ज्यादा बड़ा था या उसके नज़दीक रहने का प्रलोभन ज्यादा मज़बूत था. उसे सिर्फ ऐसे देख लेने भर से ही मुझे एक अजीब सी संतुष्टि मिलती थी. अक्सर अपने पुराने दिन और उससे जुड़ी बातें याद करता रहता, कभी-कभी तो सब कुछ एक फ़्लैशबैक की तरह मेरी आँखों के सामने तैरने लगता था.
ऐसे में एक दिन मुझे याद आया कि मेरी और उसकी पहली मुलाकात कैसे हुई थी, बात 25 साल पुरानी ज़रूर थी पर रील दर रील मेरी आँखों के सामने चल रही थी. बात उन दिनों की थी जब मैं अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर चुका था और सरकारी नौकरी में चुने जाने के बाद अपने घर से दूर एक कस्बे के सरकारी अस्पताल में कार्यरत था. छुट्टियों में या त्यौहार आदि होने पर ही मैं कभी-कभी अपने घर अपने माता-पिता के पास जाया करता था. मैं अपने माँ-बाप की अकेली संतान था और इस वजह से जहाँ उनका भरपूर लाड़–प्यार मिलता था वहीं कभी-कभी मैं भी घर के छोटे-मोटे कामों में उनका हाथ बँटा दिया करता था. यहाँ तक कि जब कभी माँ ज्यादा झुंझला जाती तो कभी रसोई के छोटे-मोटे कामों में भी उनका साथ दिया करता था. ऐसे ही एक दिन छुट्टियों में मैं अपने घर पर आया हुआ था, सर्दियों के दिन थे, पिता जी खाना खाने के बाद दोपहर की नींद का आनंद ले रहे थे, माँ कहीं पड़ोस में किसी के यहाँ शादी के गीतों में गयीं हुई थीं और मैं बाहर आँगन में बैठा अपनी मोटर-साईकल साफ़ कर रहा था, थोड़ी कालिख़ कपड़ों और थोड़ी हाथ-पैरों पर लगी हुई थी. तभी घर के बाहरी गेट पर कुछ आवाज़ हुई, मैंने नज़र उठा कर देखा तो एक परिवार नज़र आया, एक अंकल-आँटी और उनके साथ एक किशोर लड़का और एक नौजवान लड़की जो शायद उनके बच्चे थे. परिवार मेरे लिये अजनबी था पर वो मेरे लिये कोई नयी बात नहीं थी, मैं काफ़ी समय से अपने शहर से बाहर था. पहले अपनी मेडिकल की पढ़ाई के लिये और बाद मैं नौकरी के सिलसिले में सो वहाँ रहने वाले ज्यादातर लोग मेरे लिये वैसे भी अनजान से ही थे. उन्होंने मुझसे पिता जी के बारे में पूछा और मैंने उन्हें अंदर बुलाकर बैठक यानि ड्राइंग रूम में बिठा दिया और पिता जी को बुलाने अंदर चला गया. पिता जी ने बैठक में आकर उनका स्वागत किया और मुझसे माँ को बुलाने के लिये कहा. मैंने फ़ोन करके माँ को आने के लिये कह दिया, अपने हाथ-मुँह धोये, गंदे कपड़े बदले और अपनी समझ के हिसाब से मैं बैठक में उन मेहमानों के लिये पानी लेकर गया. यह देख कर पिता जी ने अपने मजाकिया स्वभाव के अनुसार एक हलकी मुस्कुराहट के साथ कहा कि जब तक माँ आ रहीं हैं तब तक सबके लिये चाय बना लो. मैंने कुछ अजीब नज़रों से पिता जी की तरफ़ देखा, उनकी मुस्कुराहट कुछ कह रही थी, पर क्या ? खैर चाय बन गयी और मैं वो भी उनके लिये लेकर बैठक में गया, तभी माँ भी आ गयीं थीं. उनकी बात-चीत चलने लगी और मैं पुनः अपने काम में लग गया. कुछ देर बाद मेरे नाम की पुकार लगी, थोड़ी देर कुछ औपचारिक सी बातें हुई और वो लोग चले गये. उनके जाने के बाद मुझे बताया गया कि वो लोग किसी दुसरे शहर से अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ हमारे शहर शादी में शामिल होने आये थे. वहीँ मेरे माता-पिता से उनकी मुलाकात हुई और उनकी लड़की से मेरी शादी की चर्चा भी हुई थी. इसलिये वापिस लौटने से पहले वो लोग अपनी बेटी से मेरी शादी के लिये मुझे देखने आये थे और अपनी सहमति देकर गये हैं. एक तरफ़ मैं था जो उस लड़की को ठीक से देख भी नहीं पाया था लेकिन मेरे चाय लेकर जाने पर उसके मंद-मंद मुस्कुराने का अर्थ अब मुझे समझ में आ रहा था. जब मैंने उस लड़की से मिलने और बात करने की इच्छा जाहिर की तो मुझे बताया गया कि वो लोग वैसे तो कल सुबह वापिस लौट रहे हैं पर बात करके देखते हैं, शायद कुछ हो जाये अन्यथा बाद में किसी और समय प्लान करेंगे. पिता जी ने बात की और तय हुआ कि हम लोग अगले दिन सुबह उनसे रेल्वे स्टेशन पर मिलेंगे सो अगले दिन सुबह नियत समय पर हम उन्हें मिलने रेल्वे स्टेशन पहुँच गये, मुलाकात तो हुई पर सभी के होने से कोई ख़ास बातचीत नहीं हो सकी, समय भी कम था और स्थान भी उपयुक्त नहीं था. ये दूसरी मुलाकात थी और अभी भी खुलकर बात नहीं हो पायी थी, कसक शायद दोनों तरफ बाकी थी. वहीँ से स्टेशन से सभी के लिये चाय मंगवाई गयी, चाय मुझे देने के दौरान उसने मुझे एक टिश्यू पेपर भी कप के साथ मेरे हाथ में थमा दिया. मैंने देखा उस टिश्यू पेपर पर कुछ लिखा हुआ है – एक फ़ोन नंबर था, मैंने चुपचाप उसे जेब में रख लिया. कुछ दिन बाद मैं भी वापिस लौट गया. वहाँ जाकर उस नंबर के जरिये उससे बातचीत शुरू हुई, लैंडलाइन का ज़माना था और STD कॉल करने के लिये रात होने का इंतज़ार करना पड़ता था. कभीकभार से शुरू होने वाली ये बातें रोज़ होने लगीं और फिर धीरे-धीरे लंबी भी होती चली गयीं. बात निकली भी थी और दूर तक चली भी गयी थीं. वो अक्सर मुझ पर इस बात पर हँसा करती थी कि कैसे हमारे रिश्ते की शुरुआत उल्टे ढंग से हुई थी. आम तौर पर होता यह है कि लड़के वाले लड़की देखने जाते हैं और लड़की चाय लेकर आती है पर यहाँ हमारे केस में ठीक उसके उल्टा हुआ था. जहाँ वो मुझे देखने आयी और मैं उसके लिये चाय लेकर गया था. चाहे परिस्थितिवश ही सही, ऐसा हुआ तो था सो मैं भी उसकी हँसी मैं अपनी हँसी शामिल कर दिया करता था और साथ ही कह दिया करता था कि चलो नये ज़माने में हमारे बीच भी कुछ तो नया हुआ है. इसी तरह हँसते-बतियाते दिन गुजर रहे थे, मैंने उसे कह भी दिया था कि अब की बार जब मैं घर जाऊँगा तो माँ-पिताजी से शादी की तारीख पक्की करने के लिये कहूँगा. इस पर उसने कहा कि वो अभी कुछ और पढ़ना चाहती है, उसे प्रोफेसर बनना है इसलिये Ph. D. करना है इस पर मैंने भी उसी सरल अंदाज़ में कह दिया – कोई बात नहीं, मैं इंतज़ार करूँगा.
फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ कि उस फ़ोन नंबर से कोई भी जवाब आना बंद हो गया, मैंने कई बार प्रयास किये पर कोई उस फ़ोन नंबर को उठाता ही नहीं था. माँ-पिताजी को पूछने पर उन्होंने भी अनभिज्ञता जाहिर की, उसके या उसके परिवार को लेकर और कोई दिलचस्पी भी उन्होंने नहीं दिखाई. मुझे सिर्फ इतना कहा कि तुम्हारा रिश्ता वहाँ नहीं हो रहा है पर मेरा मन इस बात के लिये तैयार नहीं था. वक़्त गुजरता रहा, मैंने कहीं और शादी करने से इन्कार कर दिया और अपने काम में ही मन लगा दिया. अपना ज्यादातर वक़्त भी मैं अब अस्पताल में ही गुजारने लगा था. फिर अचानक उससे आज इस तरह यहाँ मुलाकात हुई तो ऐसा लगा जैसा मेरा तबका इंतज़ार अब पूरा होने जा रहा है.
वक़्त गुजर रहा था और उसकी हालत में कोई सुधार नहीं था, उसे अभी तक पूरी तरह होश नहीं आया था. मैं बेसब्री से उसके होश में आने का इंतज़ार कर रहा था, काफ़ी सवालों के जवाब ढूंढने थे. इसी बीच मुझे सर्दी-ज़ुखाम ने जकड़ लिया, थोड़ी हरारत भी हो गयी थी और कुछ कमज़ोरी भी महसूस हो रही थी. शायद ज्यादा मेहनत करने और जागने से ऐसा हो रहा था. मैंने दवा लेना तो शुरू किया पर मरीज़ों का काम ख़ास तौर से कोरोना के मरीज़ों का काम अत्याधिक होने की वजह से आराम फिर भी नहीं मिल पा रहा था और फिर उसके काम को मैं छोड़ भी कैसे सकता था. मैं पहले से और ज्यादा बेसब्री से उसके उसके ठीक होने का प्रयास करता रहा. ऐसा प्रयास जिसकी नींव में मेरा बरसों का इंतज़ार था. आखिरकार मेरी कमज़ोरी बढ़ती गयी, शरीर बिल्कुल साथ नहीं दे रहा था और मैंने भी बिस्तर पकड़ लिया. मुझे भी कोरोना वार्ड में उसके साथ रहने से कोरोना का वायरस जकड़ चुका था, मुझे साँस लेने में भी तकलीफ़ होने लगी थी. जब कभी समय मिलता और यदि उस वार्ड में कोई बिस्तर खाली होता तो मैं उसी वार्ड में उस खाली बिस्तर पर लेट जाता और उसकी और ही देखता रहता, बहुत से सवाल ज़ेहन में उमड़ने लगते पर जवाब माँगता भी तो किससे ? जवाब में अभी तक सिर्फ़ इंतज़ार ही मेरे हिस्से में आया था. इधर मेरी हालत दिनोंदिन गिरती जा रही थी, साँस लेने में तकलीफ़ बढ़ती जा रही थी और बेहोशी के दौरे से पड़ने लगे थे, कुछ देर के लिये शरीर की तमाम चेतना सुस्त पड़ जाती थी. मैंने जिला अस्पताल में पत्र लिख कर उनसे दूसरा डॉक्टर भेजने के लिये भी कह दिया था, उम्मीद थी कि दो-चार दिन में कोई डॉक्टर आ कर चार्ज ले लेगा, फिर कुछ आराम मिलने से मैं भी ठीक हो जाऊँगा.
आज सुबह से ही तबियत कुछ ज्यादा ही सुस्त सी थी, साँस चढ़ रही थी, नित्य कर्म के लिये जाना भी एक पहाड़ जैसा लगा था. मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया और उसके बारे में सोचने लगा, कमज़ोरी के मारे आँखें बंद हुई जा रहीं थीं, सुबह से उसे देखने भी नहीं जा पाया था. एक वार्ड बॉय इंजेक्शन देने के लिये आया और उसने बताया कि उसे कल देर रात होश आ गया था और आज सुबह तक तबियत में कुछ सुधार भी है, उसने कुछ बात-चीत भी की है. उसने अपना इलाज करने वाले डॉक्टर से मिलने की भी इच्छा जाहिर की है. सुन कर मन को कुछ अच्छा सा लगा, मन तो किया तुरंत उठ कर उससे मिलने पहुँच जाऊँ, फिर लगा कुछ खा कर और थोड़ा आराम करके जाता हूँ जिससे शरीर में थोड़ी शक्ति आ जायेगी और उससे बातचीत कर सकुँगा. वार्ड बॉय नाश्ता रख कर जा चूका था, मैं ही उठ कर खाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था. उससे मिलने की उत्कंठा इतनी थी कि मन में कई विचार घुमड़ने लगे - मुझे देखने के बाद उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? मैं क्या बात करूँगा ? कैसे बात शुरू करूँगा ? यही सोचते-सोचते कुछ कमज़ोरी और कुछ इंजेक्शन के असर से मुझे अर्धमूर्छा या कहिये नींद सी आ गयी. पता नहीं, कितनी देर सोता रहा, जब जागा तो सबसे पहले आवाज़ दे कर वार्ड बॉय को बुलाया, उसने आते ही बताया कि सर वो कोरोनो की जो मरीज़ थी उसकी अचानक तबियत बिगड़ गयी थी और वो चल बसी है. मेरी तो पहले ही ‘थी’ शब्द पर ही साँस अटक गयी थी, पूरी बात सुनते-सुनते तो मैं टूट कर बिखर ही गया. मैंने तुरंत उस पर सवालों की झड़ी लगा दी – कैसे ? कब ? कितनी देर हुई ? मुझे क्यों नहीं उठाया ? मुझे उस पर अचानक बहुत क्रोध हो आया जो मेरी आवाज़ में भी झलक रहा था. उसने बड़े ही सहमे हुए स्वर में कहा कि सर आपकी तबियत ठीक नहीं है इसलिये नहीं उठाया, आप कितने दिन से परेशान हो रहे हैं, कमज़ोर भी हो गये हैं इसलिये मुझे लगा थोड़ा आराम कर लेंगे तो अच्छा रहेगा. इससे मेरा क्रोध कुछ शान्त हुआ, मैंने नॉर्मल होते हुए पूछा कि ‘बॉडी’ अब कहाँ है ? उसने तुरंत कहा – आपकी और दूसरे मरीज़ों की देखभाल के लिये दूसरे डॉक्टर साहब आ गये हैं, आप ही ने तो अर्ज़ी दी थी, उन्हीं ने डेथ सर्टिफिकेट बना दिया था और बॉडी तो नगर पालिका वाले ले गये.
उफ़्फ़, मेरा शरीर सुन्न हो गया और मैं वहीँ गिर पड़ा.
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By Deepak Kulshrestha
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