मुसाफ़िर
- Hashtag Kalakar
- Aug 12
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By Dhriti Arya
रुक, ए इंसा, इतना निराश क्यों है?
बस चला जा रहा है, रास्ता क्या पता है?
शायद काँटों मे तू फूल गिनना भूल गया।
बेख़बर की कदर हारा हुआ-सा क्यों है?
कहीं तू वो सूरज तो नहीं जो दूसरों के लिए जल गया पर खुद रोशनी ना पा पाया?
कहीं तू वो नदियाँ तो नहीं जो औरों की प्यास बुझाती रही पर खुद पानी ना पी पाई ?
या शायद वो फूल जो महके तो पर खुद की खुशबून ना ले पाए....
या शायद वो मोती जो राजथाल में सज गए पर खुद को ना सजा पाए...
जो भी तू है, ए मुसाफिर, मैं क्या जानूँ कौन,
पर देखने में बड़ा बेबस होता है मालूम!
जो भी तू है, बस चलता जा, पर याद रख मेरी ये बात,
गुलदस्ता ना देगा कोई, क्यारी ख़ुद उगानी पड़ेगी,
पानी ना देगा कोई, इक प्याली ख़ुद को ख़ुद पिलानी पड़ेगी,
मोती ना देगा कोई, माला ख़ुद बनानी पड़ेगी,
उजाला ना देगा कोई, रोशनी ख़ुद खोजनी पड़ेगी।
By Dhriti Arya

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