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एक जंग कैंसर संग

By Subodh P. Bais (Rajput)


मैं जिंदगी जिया करता था होकर बेफिक्र,

आँखो मे लिए ख्वाब हजार ,घूमा करता था अपने काम काज के सिलसिलो में दर - बदर ।

2 वक्त की रोटी के लिए करता था मेहनत 3 पहर ,जीवन की अनिश्चिताओं में जैसे ढूंढा करता निश्चित जवाब होके बेसबर ।  


कांधों पर घर की जिम्मेदारी का बोझ भी तो था बेहद , 

जिंदगी की उलझनों को सुलझाने में था हमेशा से सजग,

निभा रहा था अपना हर रिश्ता हर किरदार मैं गजब ।


अपने सफर में बस एक खुदके सिवा मुझे हर शक्स हर चीज की थी कदर ।


 इस बात से था मैं बेख़बर ,कि किस्मत बैठी थी तैयार ढ़ाने मेरी जिंदगी में केहर...

अचानक एक दिन मेरी खुशियों को लग गई किसी की नज़र,

सुबह की उजली ​​सी रोशनी में धुंधली सी हो रही थी मेरी आँखें,

खाकर चक्कर गिर पड़ा बेसुध मैं जमीन पर ।

साँसें तो ले रही थी रूह मेरी, पर शरीर अंदर से हो रहा था जैसे बंजर।


मेरा परिवार भटक रहा था मुझे लेकर दर दर,रास्ते में हर पल अनहोनी का उन्हें सता रहा था डर,

जैसे तैसे पहुचे वो मुझे लेकर अस्पताल के अंदर ।

भूखा प्यासा परिवार देख के हैरान था मेरा हशर,

फिर गूंजी एक आवाज़ अनजान ! 

कहती है जमा करो रकम रुपये लाख , कैश काउंटर पर !!

डरावना था शोक का वो मंजर, जब डॉक्टर ने कहा ,

"मेरे शरीर में फैल चुका है चौथी स्टेज का कैंसर भयंकर" ।


रो पड़ा मेरा परिवार ये समाचार सुन कर ,

एक पल सहम गया था मैं भी अपना भविष्य अँधेरे में देख कर ।

पहली दफा देख रहा था मैं मौत को करीब से छू कर।



फिरभी दिखाना चाहता था मौत को मैं  कायर नहीं ,हूं मैं निडर ।

लेकिन बेजान शरीर मेरा पड़ा था बिस्तार पर आँखे मूंद कर ,

हर पल हर दिन गुजरता था मेरा दर्द में तड़पकर ।


जीवन भर की कमाई लुटा रहा था परिवार मुझ पर खरीद के महँगी दवाई ,

लगती थी बोझ मुझे खुद मेरी परछाई ,कोस्ता था मैं किस्मत को क्यों उसने मुझपे ​​ही ऐसी नोबत लाई !


धीरे-धीरे मेरी सूरत बदल रही थी ,

आँखो के नीचे काले घेरे और आँखे अंदर धस रही थी ।

एक- एक कर गिर रहे थे मेरे सारे केश, और मर रहे थे मेरे जीवन के सारे उद्देश ।

ट्रीटमेंट के चलते हर एक “किमो” , छीन रहा था जीवन से मेरा मोह ,

मेरा हर रोम बस जपता था ॐ ।

मन हो जाता मौन, सोच कर मेरे बाद मेरे परिवार का होगा कौन ?


हॉस्पिटल के बहार, हर दिन लगातार, मेरा परिवार जागता दिन रात ,

लगाता भगवान से मेरे लम्बी उम्र की गुहार ,

उन्हें लगता जैसा ,होगा कोई चमत्कार।



कैसे करता उनकी उम्मीद दर-किनार ?

अपनी बीमारी से मान के हार, कैसे डाल दू मैं मौत के सामने हथियार।

क्या पता मेरे लिए कौनसी रात आखिरी हो ,मेरी जिंदगी की कल सुबह हो ना हो ।


एक दिन तो सबको मरना है ,

जो भी हो मुझे बिमारी से हिम्मत हार के नहीं मरना है ।


मेरी इच्छाशक्ति से ताकदवर कोई रोग-विकार नहीं,

सिर्फ कैंसर से हु मैं बीमार ,चल रहा है उपचार 

मेरी मानसिकता इतनी लाचार नहीं ।

जब तक चल रही है साँसे ,मुझे मौत से हार स्वीकार नही ।

वो संघर्ष कैसा जिसमें मैं लड़ा नहीं,वो जीवन कैसा जिसमें मैं बेख़ौफ़ जिया नहीं ।


जिंदा हूं अभी मैं मरा नहीं ,

जब तक लड़ रहा हूं तब तक मैं हारा नहीं ।

और अगर मर भी गया ! तो फिर होगा मुझे असर नहीं ,

ऐसे संघर्ष से बड़ा मेरे लिए कोई शिखर नहीं ।

कैंसर से मेरी जंग का इसे बड़ा ना होगा “उदाहरण” कोई , 

वो जंग ही क्या ? जिसका जिक्र नहीं !

कैंसर जहर है तो क्या हुआ ? मुझे फिक्र नहीं ।


By Subodh P. Bais (Rajput)


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Great 👍Keep working like this, and nothing will be able to stop you!

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👏👏 very nice

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Great!

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