By Dr Kavita Yadav
मैं थी और मुझमें कुछ भी न था|
न मन था न अंतर विशेष,
समाज के ढाँचे में बस, सजते सँवरते ही रहे,
फिर भी मन का मिटा न द्वेष
किस मृगजाल में सिमटते जा है,
वेश धर कर योगी का, तुम्ही बताओं मैं थी—क्या?
मैं थी और मुझमें कुछ भी न था|
विकट परिस्थिति की थी एक
नन्ही सी सहेली बांध के पटटी आँखों में
सींची थी जीवन की बेली,जीवन के आपा थापी में,
निरंतर चुनती रही समाज रूपी कचरों में
जीने की असीम आशा
पुकारती रही, चिखती रही,बिलखती रही
बहरे समाज के प्रांगण में,
पल -पल छलती रही खुद को
मैं थी और मुझमें कुछ भी न था |
एक लदी हुई संस्कारों की चर्मराती तस्वीर
जीने का ब्योरा मुझसे मांगती है|
आभा के इस मरुस्थल में,
वेदना की शूली पर मेरे स्वप्न के शव
स्वंय का दाह संस्कार चाहती है|
समाज के ढांचे में जिंदगी नही
स्वप्न के शव भटकते हैं|
स्वप्न का समुन्द्र लिए खड़ी थी
वहाँ मैं थी और मुझमें कुछ भी न था |
जहाँ मैं थी और मुझमें कुछ भी न था |
By Dr Kavita Yadav
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