ग़ैर
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ग़ैर

By Noorussaba Shayan



"ज़ोया की विदाई से ये घर सूना हो गया," मैंने एक ठंडी सांस खेंच कर सोचा, लबों पे मुस्कुराहट आ गयी कि सब अच्छे से हो गया। दुल्हन बनी हुई ज़ोया का सरापा आंखों में घूम गया और याद आने लगी मुझे वो आठ साल की ज़ोया। 12 साल बीत गए पता ही नही चला।

अपना सब कुछ हार कर में उस दिन पार्क में बैठा था। पिछले 2 सालों में क्या कुछ नही बीत गया था मुझ पर। पहले पापा का अचानक देहांत फिर माँ की बीमारी, अस्पताल के चक्कर, नौकरी की तलाश और हर तरफ सिर्फ़ नाकामी। माँ के ईलाज के लिए अपना छोटा सा घर भी गिरवी हो गया था । न माँ को बचा पाया न घर को। माँ के दाहसंस्कार के बाद तो जैसे हिम्मत टूट गयी। बची खुची हिम्मत और पैसे बटोर कर मैंने वो शहर ही छोड़ दिया। रुकता भी किसके लिए, इस गरीबी ने मुझसे माँ , पापा और मेरा बचपन का प्यार जिस पर मुझे नाज़ था सब छीन लिया था ।

मैं ज़िन्दगी से हारा हुआ लखनऊ के एक पार्क में बैठा सोच रहा था कि एक छोटी बच्ची की आवाज़ आई।"help please help, मेरी दादी बेहोश हो गई हैं"। मैं भागा उसकि तरफ और कुछ लोगों की मदद से उन्हें पास के अस्पताल पहुंचाया। डॉक्टर ने दवाई का पर्चा बढ़ाते हुए बच्ची से कहा, ये दवाइयां लगेंगी, माँ पापा को बुला लाओ।उसने धीमे से कहा " वो तो नही हैं, आप मुझे दीजिये में ले आऊंगी"। डॉक्टर हिचकिचाने लगा तो मैंने हाथ बढ़ा दिया। डॉक्टर ने पूछा आप कौन तो मैंने कहा "guardian" और वो बच्ची मुस्कुराकर मुझे देखने लगी। दवाई ला कर मैंने बच्ची से पूछा "क्या नाम है आपका" तो वो मुस्कुरा कर बोली "ज़ोया"। "आपके मम्मी पापा कहां हैं" मैंने फिर पूछा,"अल्लाहमिया के पास" उसने इत्मिनान से कहा मगर मेरे रोंगटे खड़े हो गए, इतनी सी उम्र में ही माँ , पापा नही, मैंने हैरानी से उसे देखा पर उसके चेहरे पर कोई मलाल न था। अपना हाथ बढ़ा कर बोली" thankyou very much for your help, आप अपना पता बता दीजिए में पैसे वापस कर दूंगी"। और दादी के पास कौन रुकेगा, मैंने पूछा तो बोली” में हूँ न आप फिक्र मत कीजिये।“ मैं उसके आत्मविश्वास और पुर कशिश मुस्कुराहट से बहुत प्रभावित हुआ और बोला " शहर में नया हूँ इसलिए कोई ठिकाना नही है फिलहाल"। "अच्छा हम भी पेइंग गेस्ट ढूँढ रहे हैं, आप हमारे यहां रह सकते हैं,अगर आपको एतराज़ न हो तो क्योंकि हम मुसलमान हैं ",उसने कहा। मैं इतनी सी बच्ची की बातें सुनकर हैरान था। मैंने भी डायलाग मारा,"क्यूँ मुसलमान इंसान नही होते क्या"। "बिल्कुल होते हैं पर हम मटन चिकन के शौकीन हैं इसलिए पहले ही सब बता देना बेहतर है"। उसने तपाक से कहा तो मैंने भी बोल दिया "मैं भी चिकन मटन का ख़ास शौक़ीन हूँ"। फिर तो खासा मज़ा आ जायेगा उसने hi five किया और में उसके अंदाज़ पर बेसाख़्ता हंस दिया तो एहसास हुआ आज एक अरसे बाद में शायद हंसा था। मैंने उससे फिर पूछा कितने साल की हो तो वो बोली "आठ साल" । "पर लगती अट्ठारह की हो जब इतनी बड़ी बड़ी बातें करती हो "मैंने कहा। "थी तो बच्ची ही साहब पर इस ज़माने ने वक़्त से पहले ही बड़ा कर दिया"। उसकी एक्टिंग देखकर में फिर ज़ोर से हंस दिया तभी एक नर्स ने हमे याद दिलाया कि ये अस्पताल है और ये भी की दादी को होश आ गया है। हम दोनों दादी के पास पहुंचे तो ज़ोया ने उनके पूछने पर बताया, में स्पाइडरमैन हूँ जो उन्हें यहाँ लेकर आया है और अब उनके साथ ही रहूंगा पेइंग गेस्ट बनकर। दादी ने शुक्रिया अदा किया और मुझसे नाम पूछा तो मैंने कहा "शंकर"। नाम सुनकर वो थोड़ा हिचकिचाई तो ज़ोया बोल पड़ी "dont worry दादी, मैंने सब बात कर ली है, ही लव्स चिकेन एंड मटन"। दादी ने एक ठंडी सांस छोड़ कर कहा "हां अब क्या अपना पराया, सभी ग़ैर ही हैं यहां"।हम लोग दादी को लेकर घर आ गए। धीरे धीरे दादी चलने फिरने लगी तो हमारे दिल ने और पेट ने सुकून की सांस ली। वो जब परोस कर खिलाती तो माँ की याद आ जाती ,मेरी आँखें भीगने लगती।

मैं उस घर में आराम से शामिल हो गया था, ज़ोया की प्यारी बातें दिन भर की नौकरी की तलाश की मशक्कत को पल भर में ग़ायब कर देती। दो महीने की लगातार मेहनत के बाद भी मुझे नौकरी नही मिली थी ।घर से लाये हुए थोड़े से पैसे भी ख़त्म हो गए थे तो इक बार फिर में हार सा गया था। आख़री सौ के नोट से शराब का सहारा लेकर ग़म भुलाने लगा। घर पहुंचा तो दादी सो गई थी पर ज़ोया जाग रही थी। मुझे लड़खड़ाता देख सहम गई, मैं भी अपने कमरे में आ कर ढेर हो गया। सुबह आंख खुली तो ज़ोया चाय लेकर मुझे घूर रही थी, मैं अपनी रात वाली हरकत पर शर्मिंदा होते हुए बोला "सॉरी यार बहुत परेशान था तो सोचा थोड़ा ग़म कम हो जाएगा"। "उस दिन ऐसे ही कोई अपना ग़म कम करने के लिए नशे में गाड़ी चला रहा था और मेरे मम्मी पप्पा की बाइक से टक्कर मर दी। ज़िन्दगी भर का ग़म दे दिया मुझे",उसने सिसकियों के बीच बताया। मेरा दिल भर आया और मैंने उसे वादा किया आज के बाद ये ग़लती कभी नही होगी। हफ्ते भर बाद जब में फिर से इंटरव्यू देने जा रहा था तो ज़ोया ने एक तावीज़ पहना दिया और बोली "मैं जब इम्तिहान देने जाती हूँ तो दादी मुझे पहना देती है, में तुम्हारे लिए दुआ करूंगी आल द बेस्ट "। ये उसकी दुआ का ही असर था जो मुझे नौकरी मिल गयी और फिर ज़िन्दगी मेहरबान होती चली गई। मेरी किस्मत तो कभी इतनी अच्छी नही थी ये यक़ीनन ज़ोया की वजह से ही मेरी किस्मत चमक रही थी।

मेरी यादों का सिलसिला जारी था और सोच कर हसी आने लगी कि कैसे मैंने एक दिन गली के लड़के को हूल दी थी जो ज़ोया को परेशान कर रहा था ओर फिर ज़ोया मेरा हाथ थाम कर गर्दन अकड़ा कर चल रही थी जैसे अब उसका कोई सरपरस्त है और कोई उसका बाल भी बांका नही कर सकता। देखते देखते मैं इस घर का किरायदार कम और फर्द ज़्यादा हो गया था। ज़ोया की छोटी बड़ी चीजें जैसे बुक्स , पेरेंट्स टीचर मीट , एनुअल फंक्शन सब अपने ज़िम्मे ले लिए थे। दादी को अम्मा कहने भी लगा था और मानने भी ,वो भी बेटों की तरह ही लाड़ उठाती। दीवाली पर वो मेरे लिए प्रसाद बनाती, मैं ज़ोया के साथ पटाखे जलाता, और ज़ोया घर में दीप सजाती। और ऐसे ही इस घर में दीवाली और ईद दोनों मनाई जाने लगी।रमज़ान में जब ज़ोया रोज़े रखती तो मेरे गले से भी पानी नही उतरता। देखते ही देखते 10 दीवाली ईद साथ में मना ली थी हमने। कुछ पैसे भी जोड़ लिए थे। दोस्त अच्छा सा घर लेने को ओर शादी करने की सलाह देते पर मेरा ज़ोया को इस घर को अम्मा को छोड़कर जाने का मन ही नही करता।





रात काफी बीत चुकी थी इसलिए मैं कमरे में सोने चला गया पर नींद आँखों से कोसों दूर थी | मैं फिर अपनी यादों में खो गया था 2 साल पहले जब ज़ोया की अट्ठारवीं सालगिरह थी तो उसकी ज़िद पर मैंने उस के दोस्तों को एक अच्छी सी जन्मदिन की पार्टी दी थी। जब पार्टी कर के हमलोग घर लौटे तो अम्मा जी ख़ासा नाराज़ हुईं कहने लगी " फज़ूल में पैसे बारबाद करने की क्या ज़रूरत थी, यहां कौन सा हारून का खज़ाना गड़ा है "। ज़ोया को डांट पड़ती देख में बोल पड़ा " अम्माजी मेरी तरफ से गिफ्ट थी ये पार्टी" । वो और नाराज़ हो गई बोली "एहमक ही हो, लड़की बड़ी हो गई है देना ही है तो कान के बूंदे, नाक की लौंग दो तो कुछ जहेज़ जुड़े खाली हाथ तो रुखसती नही कर सकती न, क़ब्र पर पैर लटकाए बैठी हूँ, ये अपनी घर की हो जाये तो में भी सुकून से आंखें मूंद लूँ"। अम्माजी के मिज़ाज दखते हुए में उनका हाथ थामते हुए बोला "क्यूँ फिक्र करते हो अम्माजी में हूँ न ज़ोया का ख्याल रखने को "। वो हाथ झटकते हुए बोली " अब ग़ैर के सुपुर्द करके तो नही जा सकती न"। उनकी बातें तीर सी चुभी थी उस दिन । इससे पहले बहुत से लोगों ने ग़ैर कहा था पर इतना बुरा नहीं लगा था पर अम्माजी का कहना घाव दे गया था। तभी तय कर लिया था, ज़ोया की शादी करा कर में भी चला जाऊंगा यहाँ से।

और फिर जैसे अम्मा जी ने ठान ली थी, एक के बाद एक ज़ोया के लिए रिश्ते देखे। एक तय हुआ तो वालीमे के, निकाह के ख़र्च, ज़ोया के ज़ेवर, कपड़ों की फ़िक्र, ससुराल वालों की पेरामनी वग़ैरह वगैरह। कुछ नहीं तो 5- 7 लाख तो चाहिए ही थे। अम्मा जी के पास कहाँ खज़ाना रखा था। मेरे किराये के पैसे और ज़ोया के पापा के पेंशन के पैसों से बड़ी मुश्किल से तो महीने का ख़र्च निकलता था। मुझे बुला कर बोली ये घर बेच दूं तो 5-7 लाख रुपये आ जाएंगे। मैंने अम्मा जी को तसल्ली देते हुए कहा "मेरे पास कुछ पैसे हैं ज़ोया की शादी में काम आ जाएंगे"। तो कहने लगी " नही मियां जानती हूँ तुम्हे ज़ोया से कितना लगाव है, अपनी बच्ची समझते हो पर मैं आज तक किसी के एक पैसे की भी रवादार नही हूँ तो फिर ये फ़र्ज़ भी में ख़ुद ही पूरा करूंगी "। अम्मा जी की खुद्दारी में जानता था फिर भी मैंने कोशिश की "घर बेच दिया तो आपका क्या होगा " । वो बोली ज़ोया की रुखसती के बाद दो चार दिन जो ज़िन्दगी के बचेंगे किसी भी कोने में काट लूंगी पर ज़ोया की शादी के लिए एहसान नही लूंगी और कर्ज़ भी नही। तुम बोलो ये घर की अच्छी कीमत मिल जाएगी न, मैंने जर्जर होते 3 कमरों के मकान को देखा, इस तंग सी गली में ऐसा मकान कौन खरीदेगा। पर में कुछ न बोला बस हिम्मत बंधाई तो उन्होंने बड़े अपनाइयत से ये ज़िम्मेदारी और शादी की बाक़ी ज़िम्मेदारी भी मुझे सौंप दी, उनके पास और था भी कौन। बहुत कोशिश के बाद भी इस घर के लिए कोई खरीदार नही मिल रहा था और शादी के दिन क़रीब आ रहे थे। आखिरकार मैंने 7 लाख रुपये अम्माजी के हाथ में रख दिये और घर के कागज़ात पर दस्तखत करवा लिए । दो महीने सांस लेने की फुर्सत नहीं मिली, घर की मरम्मत, हॉल बुकिंग, जहेज़ का सामान , ज़ोया की शॉपिंग। पर सब कुछ हो ही गया। अब कल ज़ोया घर आएगी अपने दूल्हे के साथ। ये सोचते ही साथ मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी थोड़ी ही देर में सुबह हो गई और अम्माजी ज़ोया के आने की तैयारी करने लगीं। में भी उनका हाथ बटाने चला गया। रिवाज के मुताबिक कुछ सामान ले कर हमलोग ज़ोया को लेने गए। ज़ोया के आते ही घर में फिर से रौनक आ गयी। वो अपनी सहेलीयों के तोहफे देखने ऊपर मेरे कमरे मैं आ गयी। एक दो तोहफे खोलते हुए बोली "स्पाइडरमैन तुमने मुझे शादी का गिफ्ट नही दिया"। मै हल्के से मुस्कुराकर बोला वक़्त आने पर दूंगा। हम्म मतलब बहुत ही अच्छा गिफ्ट है मेरे लिए, उसने आंखें मटकाई । तभी अम्मा जी ने आवाज़ दी कि लाइट वाला अपने पैसे लेने आया है। मैं सेफ से पैसे निकालकर नीचे चला गया, और सेफ खुली छूट गई। जब वापस आया तो ज़ोया के हाथ में घर के पेपर्स थे जिसमें नए मकान मालिक में मेरा नाम था। उसने हैरानी से पूछा ये घर तुमने ख़रीदा है। हां ज़ोया खरीदार कोई मिल ही नही रहा था । ज़ोया ने एक और कागज़ खोला जिसमें ये घर मेरी तरफ से ज़ोया को उसकि शादी का तोहफा था।

"क्यों किया तुमने ऐसा" , ज़ोई ने पुछा | "जिससे तेरा मायका बना रहे |तू अपने अम्मी अब्बू के पास बार बार आ सके | अम्मा अपना आखर i वक़्त अपने बुज़ुर्गों के साये में गुज़र पाएं |" मैंने कहा तो वो लिपट गयी , "और तुम्हे क्या मिला " उसने रोते हुए पुछा , " ज़िन्दगी " मैंने उसे समेटते हुए कहा |"तू दिखती रहेगी , मिलती रहेगी तभी तो मैं जी पाउँगा न" | अम्मा न जाने कब ऊपर आ गयीं और हमारी बातें सुन रही थी , हाथ जोड़ कर कहने लगी "तुम्हारा एहसान तो कभी नहीं उतार पाऊँगी | कर्ज़दार हो गयी मैं तो "| मैंने उन्हें कुर्सी पर बिठाया और अपना सर उनकी गोद में रख दिया | "ये ज़िन्दगी आप दोनों की ही दी हुई है | आपलोग नहीं मिलते उस दिन तो शायद मैं खुद को ख़त्म कर चूका होता | नन्ही सी ज़ोया ने मुझे हिम्मत दी , प्यार दिया हौसला दिया मक़सद दिया | माँ पापा का आशीर्वाद नहीं रहा तो आपकी दुआएं मिल गयी | बालों में हाथ फेरते हुए अम्मा बोली , "वो तो रब की मर्ज़ी थी "| "ये भी उसी रब की मर्ज़ी है "| मैं बोला और उनकी गोद मैं सर रख दिया |



By Noorussaba Shayan




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