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.सात्विक अनुभव!

By Anurag Shukla


मैं हर पल को आनंद में जीना चाहता हूं। और जी भी रहा हूं, लगातार...! और हर पल मेरे पास चुनौतियां भी हैं, कहीं वासना से, कहीं कुसंगत से और कहीं इस पूरी प्रकृति के माया जाल से बचने का। कभी कभी कुछ पल के लिए भटक भी जाता हूं लेकिन उसके तुरंत बाद मेरी अंतर्रात्मा मुझे अपनी ओर खींच ले जाती है। वहां उस बिंदु पर सब स्थिर सा है, ठहरा हुआ है। वो बहुत आगे की बात है। वहां न कुछ पाना है और न ही कुछ खोना है। वो आत्मस्थ है। ये पाने और खोने का खेल तो सिर्फ बाहरी है, अर्थात प्रकृति की माया से ग्रसित संसारी व्यक्तियों के लिए है। हां, जरूर हमारा तर्क यह भी हो सकता है की हम तो प्रकृति में ही हैं, तो उससे अलग और उससे दूर कैसे जा सकते हैं? आगे हम समझते हैं! ये प्रकृति




जीव जगत के लिए जीवन निर्वहन करने का एक साधन भर मात्र है। इसके भीतर सीमित संसाधन है। इसके सीमित संसाधनों का उपभोग सिर्फ अपने जीवन निर्वहन करने की आवश्यकता तक ही करनी चाहिए। उससे ज्यादा नहीं! लेकिन संसारी व्यक्ति बहुत कुछ पाने और उपभोग करने की चाहत के कारण वह स्वयं के रचे जालों में फंस जाता है। वह कभी प्रकृति को ही नहीं समझ पाता है। इसीलिए उसका पूरा जीवन दुःख और पीड़ा में लगातार फंसा रहता है, भटकता रहता है। और इन्ही सब कारणों से वह प्रकृति से आगे भी नहीं जा पाता है।


By Anurag Shukla





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