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समझता हूँ मैं

By Mohd Shakeb ("Shauk-E-Shakeb")


आपके किरदार को अच्छे से पहचानता हूँ मैं,

हमदर्द के लिबास में, ज़ख़्मो को

सर-ए-आम करने आए हो मेरे, समझता हूँ मैं।


अपने नशेमन को सवालों में घिरा देख,

सवाल उठा रहे हो, समझता हूँ मैं।


अपने चेहरे की कालिक छुपाने को, पैरहन पे मेरे

छींटे उड़ा रहे हो, समझता हूँ मैं।



"ख़ामोशी" लिहाज़-ए-परवरिश हैं मेरी,

बद-अल्फ़ाज़ों के शोर में क्या छुपाना चाह रहे हो, समझता हूँ मैं।


मैं क्या हूँ, क्या किया है मैंने, उससे वाक़िफ़ हूँ मैं,

आप कितने चेहरे रख के मिलते हैं, समझता हूँ मैं।


और, मजाज़-ए-अक़ली होगे तो समझ जाएंगे क्या है शकेब,

हर तंज़ का उनके, जवाब मुस्कुराहट रखना 'शकेब'।


By Mohd Shakeb ("Shauk-E-Shakeb")



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