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सत्य ही सनातन है!

By Anurag Shukla



संसार की रचना कैसे हुई? हुई तो क्यों हुई? यह प्रश्न सबके मन के भीतर चलता रहता है और इस प्रश्न का जवाब स्पष्ट नहीं मिल पाता। यह दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण विषय और प्रश्न है। समय समय पर कई भारतीय और पश्चिमी दार्शनिक अपने मतों को उजागर भी किए। यह प्रश्न अतीत से ही काफी विवादास्पक रहा है। जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण दर्शन अद्वैत वेदांत जो आचार्य शंकर ने दिए। और वही श्रृंखला आज हमारे बीच आचार्य प्रशांत जी इस समाज में प्रकाश रूपी, तेजस्वी, विराट, अमृत, आलौकिक एवम अमूल्य धरोहर रूपी ज्ञान (वेदांत) को फैला रहे हैं। जिससे इस मानव जाति की चेतना ऊपर उठ सके और उसका कल्याण हो सके। लेकिन फिर भी आम आदमी अतीत से ही इस प्रकाश रूपी ज्ञान से दूर ही रहा है। और कभी जानने का प्रयास भी नहीं किया।


जो हमको ऊपरी ऊपरी बता दिया गया कुछ परम्पराओं और संस्कृतियों को लेकर जिससे हम अपनी अधूरी और छुद्र कामनाओं को पूर्ण कर सकें। जिससे मैं और भोग सकूं। और हमारा यह समाज इन सब परम्पराओं को ही सत्य समझ बैठा। वह कभी गहराइयों में गया ही नहीं। उसका सबसे बड़ा कारण उसकी मूल वृत्ति 'अहम' और अज्ञानता है। वह सोचता है की जो हमको दिखाई दे रहा है और जो मेरा अनुभव है, वही सत्य है और इसके अलावां कुछ भी नहीं। जैसे एक शराबी नशे में धुत होकर कहे की अब तो मुझे भी प्रतीत होता है की परमात्मा कि प्राप्ति या फिर आनंद की प्राप्ति हो गई है।


अगर वास्तव में परमात्मा या आनंद की प्राप्ति करना चाहते हो, तो सबसे पहले मूल स्रोत अर्थात प्रकृति (संसार) को समझना होगा। अपने स्व को जानना होगा। और जो स्व अर्थात् अपने आप को जान लिया उसी को अध्यात्म कहते हैं। और यह बात बड़े दुखद कि है की आज हमारे समाज में जो अध्यात्म और सनातन के नाम पर चमत्कार और अंधविश्वास को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। और उन्हें अध्यात्म का 'अ' और सनातन का 'स' भी नहीं पता है। अगर तथ्यात्मक रूप से कहें तो सनातन के नाम पर नारेबाजी से कोई प्रगति संभव नहीं होने वाली है जब तक हम उसके गहराई में नहीं जायेंगे। सनातन का प्रचार करना गलता नहीं है लेकिन जान तो लो आखिरकार सनातन है क्या?





आचार्य शंकर ने उपनिषद अर्थात वेदांत में बताते है की जो सत्य है अर्थात आत्मा ही सत्य है, अपरिवर्तनीय है, जो अपौरुषेय है, जो अनादि है, जो अनंत है,जो कालातीत है वही सनातन है। और सरल भाषा में कहें तो जो काल अर्थात समय से भी परे हो, जो कभी बदलता ना हो, जिसकी कोई सीमा न हो(असीमित हो), जो प्रकृति से भी परे हो, जिसका कोई केंद्र ना हो क्योंकि अनंत का केंद्र बिंदु कभी नहीं होता। जहां सारे विचार निर्विचार हो जाते हों।

चिंतनशील प्रक्रिया में जब मनुष्य विचारों की गहराई में चला जाता है तो वहां शून्यता का भाव होता है। इसी को निर्विचार कहते है।

वेदों में कुछ तो खास रहा होगा जैसे स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने एक नारा दिया वेदों की ओर लौटो इसके उपरांत स्वामी विवेकानंद ने उपनिषदों को अद्भुत कहा।


अब प्रश्न यह उठता है की आत्मा ऐसी कौन सी चीज है जो की सत्य है? मन में ऐसा कोई छवि मत बनाएगा की आत्मा कोई उड़ने वाली जादुई चीज है, ऐसा कुछ भी नहीं है। ये जो मन है अगर इसको मुख्यतः दो हिस्सों में बांटा जाए, एक चेतन अवस्था दूसरा अवचेतन अवस्था । पहली जो अवस्था है चेतनावस्था इसकी भी तीन अवस्थाएं होती हैं। जाग्रत, स्वप्‍नावस्था व सुषुप्ति

अब दूसरी अवस्था अवचेतन है, जिसमें सभी अतीत के घटनाएं, स्मृतियां और विचार होती हैं, जो यह चेतनवस्था को सारी अतीत की सूचनाओं को पल पल प्रदान करती रहती हैं।


अगर सीधा कहें तो चेतना की उच्चतम या जागृत अवस्था का नाम ही आत्मा है। जिसे बोध भी कहते है। जिसका मन जागृत हो गया वह आत्मस्थ हो गया। जैसे भगवान बुद्ध को बोध प्राप्त हुआ तो बुद्ध के नाम से जाने गए। और यहां पर भगवान बुद्ध ने आत्मा को आत्मा नहीं बल्कि बोधिसत्व के नाम से पुकारा। अर्थात बोध ही सत्य है। और यहां पर आचार्य शंकर ने आत्मा शब्द से पुकारा है। सिर्फ यही शब्द का अंतर है। बात एक ही हुई। लेकिन व्याख्या अलग अलग तरीकों से किया।


इसके बाद अगर हम संस्कृतियों, परम्पराओं और मूर्ति पूजा की बात करें तो हमारे ऋषियों ने इस लिए बनाया की ताकि एक सामान्य मनुष्य सगुण भक्ति में वह अपने जीवन को सुचारू रूप से जी सके , भक्ति कर सके, पूजा कर सके जिससे परमात्मा की प्राप्ति कर सके। सगुण का अर्थ है जिसका कोई रूप हो आकार हो और कोई एक ऐसी सत्ता है जिस पर हम विश्वास कर जीवन जी सकें। जितनी मूर्तियां या मंदिर होते हैं वो प्रतीक मात्र हैं। जिससे हम मूर्त से अमूर्त अवस्था में प्रवेश कर सकें। उन सब प्रतीकों का अर्थ जानना बहुत जरूरी है। वह हमें संकेत देते है सदैव एक उच्चतम संभावना की ओर।

अगर परंपराएं, संस्कृतियां और मंदिर या मूर्ति पूजा हमारे प्रगति में सार्थकता का साधन बनती हैं तो जरूर अपनाएं और जरूरी भी है।

निर्गुण भक्ति में कोई विषय नहीं होता ना रूप और ना ही आकार यह सामान्य मनुष्य के लिए कठिन होता है। इसी लिए हमारे ऋषियों ने सगुण को सर्वश्रेष्ठ समझा।


उपरोक्तसंदर्भोंमेंवेदांतकेअनुसारबातकरेंतोसिर्फआत्माहीसत्यहै, सत्यहीसनातनहैऔरसनातनहीधर्महै।इसकेअलावांकोईभीधर्मनहींहै।वेदांतसीधायहीकहताहैकीअगरतुमप्रतीकोंकाअर्थनहींजानतेतोतुम्हारेलिएवोसबनिरर्थकहीहैंऔरइसकेअलावांजोभीधर्मकेनामपरहोगावोअंधविश्वासऔरपाखंडहीहोगा।वेदांतकासंबंधकर्मकांडसेबिलकुलभीनहींहै।उसकासंबंधसिर्फज्ञानकांड (सत्य, बोधऔरमुक्ति) सेहै।


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