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वो स्कूल के दिन

By Nisha Shahi


वो स्कूल के दिन वह पल हमारे जीवन के सबसे यादगार पल होते थे। और 1990 के स्कूल टाइम के तो क्या ही कहने सुबह-सुबह नहा धोकर स्कूल के लिए निकलना उस वक्त स्कूल की ज्यादा चॉवाइस नहीं होती थी हम अड़ोस पड़ोस के सारे बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ते थे।

बस फिर क्या सुबह-सुबह चिल्ला चिल्ली शुरू हो जाती एक दूसरे का नाम लेकर पुकारते आशा तू तैयार है ना! तो जल्दी से आजा स्कूल का समय हो रहा है साथ में रेनू को भी आवाज लगाते आना अरे संगीता कहां रह गई आज तो यह पक्का देर करवाएगी उधर से मंजू की आवाज आती अरे 2 मिनट मेरे लिए भी रुकना मेरे बाल ठीक से नहीं बन रहे हैं।बस जैसे-तैसे हम सखियों की टोली तैयार होती और फिर "स्कूल चले हम"।

ओए होए वह सुबह सुबह का नजारा हमारी नीली यूनिफार्म की वजह से पूरी सड़क नीली दिखाई देती थी और सर पर लगे लाल रिबन जैसे गुलाब के फूल

तेल चुपड़ी कस कर दो चोटियां सच में एकदम डिसिप्लिन वाले बच्चे लगते थे। उस वक्त ना तो स्कूल वैन और ना ही स्कूल बस हुआ करते थे। हमारा स्कूल लगभग 3 -4 किलोमीटर दूर था हम पैदल ही जाते थे।

बस फिर क्या स्कूल पहुंचते ही दूसरी सहेलियों से हेलो हाय कुछ उनकी सुनना कुछ अपनी सुनाना बस फिर क्या प्रेयर की घंटी का बजना और छात्र-छात्राओं की लंबी कतारें लग जाना और फिर सारा स्कूल मिलकर गाता

"हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें दूसरों की जय से पहले खुद की जय करें"

और फिर उसके बाद राष्ट्रगान और फिर सब सीधा अपनी-अपनी कक्षाओं में पहुंच जाते फिर क्या फिर पढ़ाई शुरू



वैसे तो मुझे शुरु से ही सारे विषय पसंद थे शिवाय गणित के उस वक्त हमारे स्कूल में आठवीं कक्षा तक गणित कंपलसरी हुआ करती थी जैसे ही गणित का पीरियड शुरू होता मैं सबसे पीछे वाली पंक्ति में एडजस्ट हो जाती जिस दिन मैंने आठवीं कक्षा पास की उस दिन मुझे गणित से छुटकारा मिल गया क्योंकि नौवीं कक्षा में गणित से किनारा जो कर लिया था मैंने।

और हां जैसे ही इंटरवल की घंटी बस्ती वैसे ही सारी भीड़ भेड़ बकरियों की तरह निकल जाती स्कूल के गेट में तो जैसे ट्रैफिक जाम ही लग जाता । सब बच्चों का एक ही टारगेट होता है स्पेशली लड़कियों का चिप्स चूरन वाला ठेला उस ठेले का नाम लेते ही अभी भी मेरे मुंह में पानी भर आया।

ओए होए वह लाल मिर्च से सने आलू के चिप्स और उसके ऊपर सफेद काले खट्टे मीठे चूर्ण का छिड़काव इससे अच्छा और कुछ भी हो ही नहीं सकता। बस फिर क्या खा पीकर गपशप की और फिर अपनी अपनी कक्षा में चले गए और पढ़ाई की।

फिर छुट्टी का समय फिर से वही नीली सड़क पर सर पर बंदे लाल रिबन दोपहर तक ढीले पढ़कर मुरझाए गुलाब से दिखते।

वह भी क्या दिन थे ना कोई चिंता ना कोई फिकर ना किसी से कोई प्रतिस्पर्धा काश वह दिन फिर से लौट आते तो आज अपने बच्चों को दिखाते कि यह होता है असली स्कूल के दिन यह होते हैं असली बचपन के दिन।


By Nisha Shahi




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