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लोकतंत्र एवं चुनाव

By Ramasray Prasad Baranwal


हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है ,इसमें किसी को कोई संदेह नहीं, यह हमारे लोकतंत्र की ही खूबसूरती हैं कि इतनी विविधताओं के बाद भी हम सभी एक देश और एक संविधान को मानते हैं और सफ़लतापूर्वक एक सूत्र में बंधे हुए हैं. कहा भी गया है कि “ कोस–कोस पर बानी बदले और दो कोस पर पानी” . इसी खूबसूरती के साथ–साथ कुछ ऐसी कमियां भी हैं, जिनकी अनदेखी करना हमारे लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है. हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि पूरे देश में कहीं न कहीं हर समय चुनाव होते रहते हैं जिसके कारण सभी पार्टियां अपनी पूरी ताकत से चुनाव जीतने में लगी रहती हैं और सभी पार्टियों के स्टार प्रचारक इसी में जुटे रहते हैं.

अभी मेघालय और त्रिपुरा के चुनाव खत्म हुए नहीं कि कर्नाटक विधान सभा के चुनाव होने जा रहे हैं . उसके तुरंत बाद नौ राज्यों के विधान सभाओं के चुनाव होने हैं, इसके तुरंत बाद दो हज़ार चौबीस के आम चुनाव होने हैं. इन चुनावों में परेशानी किसी को नहीं होनी चाहिए क्योंकि हमारा चुनाव आयोग यह काम बहुत सफलतापूर्वक संपन्न कराने में पूरा सक्षम है परंतु सारी पार्टियां चुनाव जीतना चाहती हैं और उन सभी पार्टियों के सभी बड़े नेता और स्टार प्रचारक इस कार्य में लगे रहते हैं .


यही पर हमारा लोकतंत्र मार खाता है क्योंकि वर्ष भर होने वाले चुनाव, चुनाव आयोग की कार्य क्षमता पर, विपरीत प्रभाव डालते है. सभी पार्टियों के बड़े––बड़े नेता अपनी पार्टी को चुनाव जिताने में लग जाते

हैं और इसके चलते देश के सारे आवश्यक कार्य पीछे छूट जाते हैं. लेकिन इस बात की परवाह किसे है? अभी कुछ समय पहले की बात है जब हमारे प्रधानमंत्री जी ने इस बारे में अपनी चिंता व्यक्त की, कि सभी विधान सभाओं के चुनाव एवं लोकसभा के चुनाव एक साथ कराए जाएं एवं देश की जनता को इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया जाये और उसे अपना प्रतिनिधि चुनने के तरीके और नियम भी बताए जाएं . जहां तक चुनावों की बात है तो इसमें किसे परेशानी है , सभी को ऐसा लगता है कि उसे समय मिलता तो वह हर चुनाव अपने प्रचार के द्वारा अपनी पार्टी को विजय अवश्य दिला देता. लोग परेशान रहते हैं कि उन्हें प्रचार के लिए समय नहीं मिल पाया, नहीं तो वे पता नहीं अपने बल पर क्या से क्या कर देते , ऐसे नेताओं को कौन समझाए कि सिर्फ सोचने से क्या हो जाता है अगर उन्हें पूरा कार्य खुद करने का मौका मिलता तो भी वह ऐसा कुछ नहीं कर सकते थे जैसा वे सोचते हैं. क्योंकि इस तरह साल भर होनेवाले चुनाव, समय और पैसे की बर्बादी के बहुत बड़े कारण हैं इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. कुछ दिन पहले एक जनसंख्या का एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे आया है जिसमें बताया गया है कि भारत जनसंख्या के मामले में आज विश्व का सबसे बड़ा देश हो गया है मतलब यह की हमारी जनसंख्या ने चीन को पीछे छोड़ दिया है और उम्मीद यह की जा रही है की अगले सौ साल तक हम जनसंख्या के मामले में हमारा देश विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बना रहेगा और इसका अर्थ हुआ कि आने वाले समय में इस मामले में हमें कोई चुनौती देनेवाला नहीं . बढ़ती आबादी की मार सहने के लिए देशवासियों को तैयार रहना होगा. साथ ही आबादी नियंत्रण में देशवासियों को सरकार के साथ चलना होगा ,अन्यथा इस जनसंख्या विस्फोट की स्थिति को आने से रोकना बहुत मुश्किल होगा. हर स्थिति में इस स्थिति से हमें बाहर निकलने हेतु धर्म, जाति से ऊपर उठकर अपनी जनसंख्या को नियंत्रित करना ही होगा .

इस समय जनसंख्या के बढ़ने की गति थोड़ी कम जरूर हुई है लेकिन अभी तक स्थिति नियंत्रित नहीं हो पाई है , लेकिन अभी बहुत मुश्किल नहीं है जैसा मैंने पूर्व पैराग्राफ में लिखा है कि हमारे समाज में बहुत सारी जातियों और एक धर्म विशेष में यह भ्रम बना हुआ है की बच्चे खुदा या भगवान की देन हैं ,इसमें कोई क्या कर सकता है . किया तो हर स्थिति में जा सकता है, हमारी वर्तमान सरकार इस मामले में कमजोर भले लगती होगी ,लेकिन जिस प्रकार से इस सरकार ने तीन तलक के मसले को सुलझाया कश्मीर से धारा ३७० हटाई गई, राम मंदिर अयोध्या का निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कार्यों को अंजाम दिया . एक बात और हुई कि लोगों का विश्वास भी मिला. बहुत सारी समस्याओं को देखते हुए यह अहसास तो लोगों को हुआ ,ऐसा विश्वास सिर्फ आजादी की लड़ाई के समय देखा गाय था. चाहे नोटबन्दी हो या जीएसटी को जनता के बीच लागू करना इसलिए भी संभव हुआ कि जनता को पूरा सहयोग और समर्थन मिला की यह व्यक्ति कभी किसी भी स्थिति में जनता को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता.



तो हम फिर उसी मुद्दे पर आते है कि क्या हम अपनी स्वार्थ सिद्धि को , व्यक्तिगत लाभ को प्राथमिकता देंगे या दूरदर्शिता प्रदर्शित करते हुए संपूर्ण राष्ट्र का हित ,पूरे समाज की स्थिति को सुधारने का प्रयास करेंगे. राष्ट्रवादी एवं देशहित की चाह रखने वाले सभी व्यक्तियों को एक ऐसी नीति बनाने के लिए खुद आगे आकर चुनाव प्रक्रिया के लिए आगे लाना होगा जिससे कि हमारी चुनाव की प्रक्रिया सरल और सुंदर लगे . आधुनिकता में लिपटे चिपटे लोगों से इस प्रकार से चुनाव सुधार की उपेक्षा करना संभव नहीं. दूसरी ओर इन भ्रष्ट नेताओं को समझना होगा कि पिछले लगभग सत्तर सालों से जिनके मुंह किस प्रकार से गलत तरीके से जनता को लूटा है, औरों का अधिकार है वे लोग इतनी आसानी से अपनी आदत छोड़ने वाले नहीं हैं, ऐ.से ही लोगों को अपने पुरानी यादों के सहारे अपनी लूट जारी रखना चाहते हैं.

इन लोगों को कौन समझाए कि जनता अब बहुत कुछ जान गई है जिसे मूर्ख बनाना अब आसान नहीं रहा. शायद इन लोगों को याद हो कि इनके ही परिवार के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि वे एक रुपए यदि जनता के कल्याण के लिए भेजते थे उसमें से सिर्फ दस पैसे जनता को मिलते हैं , अब इस बात से आप अंदाज लगा सकते हैं कि देश की स्थिति क्या रही होगी पिछले वर्षों में ?

इस स्थिति के लिए कौन ज़िम्मेदारी लेगा ? इस बात के लिए ऐसे लोग कौन सा मुंह लेकर जाएंगे जनता के बीच और ऐसे ही लोग लोकसभा और विधान सभा का चुनाव एकसाथ नहीं होने देना चाहते हैं क्योंकि उनके अंदर व्यक्तिगत स्वार्थ भरा पड़ा है . ऐसे लोग हमेशा इस बात से डरते हैं की फलाने की हवा बड़ी अच्छी चल रही है और आने वाले वर्षों में शायद कोई मुद्दा मिल जाये तो उसका लाभ प्राप्त कर सकें . अतः वे इस फिराक में रहते है कोई भी चुनाव एक साथ न होने पाए. परंतु कोई भी बुद्धिजीवी बहुत अच्छी तरह जानता हैं की देश हित में यह एक बड़ा कदम होगा और राष्ट्रहित में वर्तमान सरकार जो भी निर्णय लेगी वह उचित होगा.

अतः हम लोग चाहते हैं और देश की जनता अच्छी तरह जानती है की देश का भला किसमें है और कौन उसका भला कर सकता है और कौन नहीं . यह आवश्यक नहीं कि कोई सरकार या पार्टी कितना सही है और कितनी गलत .लेकिन एक बार यदि इस तरह का संविधान में संशोधन होता है और यह बाद में संविधान में जो भी संशोधन होगा वह राष्ट्रहित में ही होगा इसमें कितना समय और धन बचेगा उसको राष्ट्रीय उपयोग में लाकर जनता की भलाई और जनकल्याण में लगाने से देशहित में कितने सारे कार्य हो सकेंगे.


By Ramasray Prasad Baranwal







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