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लालची

By Yash Abhrankash Panda


यह कविता मेरी एक कल्पना है, मगर कहना कि यह किसी का सत्य नहीं गलत होगा।

कुछ बोझ अपने छिपा के उस पचपन (५५/55) साल के आदमी में आज भी तो एक बच्चा रहता होगा अंदर, जिसकी चींख कोई सुन पाए, उतने मज़बूत नहीं हैं कान किसी के। उस बच्चे को हमेशा मां की याद आती ही है। एक से ज़्यादा माएं रखता है वो। क्योंकि उसे डर ही उतना लगता है। अपने आप से, अपने ख़्वाब से, पुण्य से, पाप से। मां, बीवी और नवरात्रि में मां दुर्गा से मन ही मन में बातें करता वो इस कविता के बोल लिखता है:


 कहीं मारवाड़ी, बंगाली, मराठी भी खुश है

तो गुजराती भी धुन में कि उसके पास सब कुछ है।

असम से भी उठे भक्ती का ताप दीपों से

पर यह ओड़िया ब्राह्मण तंग है, जीवन के जंजालों में माने खुद को ही तुच्छ है।

"धनतेरस में आखरी बार थामा था कब वो हाथ

मैंने अर्धांगिनी का ले जाने सोनार के पास?" यह सवाल

वो पूछे खुद से, रहम वो खाए खुद पे, अधूरे ख़ाब 

करने हैं पूरे, रो लेता खुद में, और एक आखरी बार

लेता सम्हाल खुद को हर दिन।


(कवि 'ready' हो चुके हैं, पर अर्धांगिनी जी तैयार हो रहीं हैं।)

मालती! तैयार हुई या नहीं! शुरू होती ही होगी आरती!

(मालती जी तैयार हो गईं और कवि उनके और अपने बच्चों के साथ दुर्गा मां के पंडाल के लिए चलते हैं। कवि मां दुर्गा से कहते हैं।)

में साधु तो नहीं, मेरी औरत ही मेरी शांती।

minute हों चाहे चार भी, जो थोड़ी सी भी बात की

तो नींद पूरी रात की, छवि तो है वो मेरी मा की।

(अपनी मां को याद करते)

क्षमा करना मां, थोड़ा सा प्यार में हूं खोया।

उमर पचपन, तू छोड़ गई पचास (५०/50) का जब होया।

तेरे pension से मिलने वाले पंद्रह हजार (१५,०००/15,000) भी गए

और मैं दूसरी बार हुआ अनाथ जैसा रोया।

मैं खूब बीमार सारे तनाव की वजह बना,

मैं दरिद्र भला, ज्ञान ही बांटता चला,

न मांगू रकम मैं हाथ पे, तू सबर दे सांस में,

न भरम दे आंख में, तू बस शर्म दे ज़बान पे,

शिखर चढ़ रहा हूं तो निडर भी बन गया हूं।

मैं झिझक त्याग तेरे ही शरण में आगया हूं।

अब तो निकट आ, करा दे शिखर पार,

बना दे मेरी औलाद को तू इज़्ज़तदार।

क्षमा तू करना मां, अगर लगूं मैं लालची,

क्षमा तू करना दुनिया को भी जिसने सिखाया हार जीत।

जय मां दुर्गा!


By Yash Abhrankash Panda


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