‘मैं, सिंधिया स्कूल और बिरजू महाराज’ (स्कूल की यादें)
- Hashtag Kalakar
- Nov 23, 2022
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By Seema Sharma
मैं तब सिर्फ 12 या 13 साल की रही होऊंगी। सिंधिया स्कूल के असेंबली हॉल में शनिवार के दिन एक पिक्चर दिखाई जाती थी। उस दिन भी शनिवार था और उस दिन भी एक पिक्चर दिखाई जाने वाली थी। यह एक हमेशा का ही तरीका था कि शनिवार को स्कूल के असेंबली हॉल में हिंदी या इंग्लिश पिक्चर दिखाई जाया करती थी। ज्यादातर अंग्रेजी पिक्चरें दिखाते थे क्योंकि अंग्रेजी मीडियम स्कूल था हमारा।
मैंने भी उस दिन घर में ऐलान किया कि मैं पिक्चर देखने जाऊंगी। पिताजी ने सुन लिया “बेटी सीमा आज तुम पिक्चर देखने नहीं जाओगी”। और मैं परेशान.... क्योंकि इस बार शनिवार को अंग्रेजी पिक्चर की जगह हिंदी पिक्चर दिखाई जाने वाली थी। मैंने कहा,” पिताजी ऐसा क्यों कह रहे हैं, हिंदी पिक्चर है, आज तो मैं जरूर जायूंगी”। एक छोटी बच्ची जैसे ज़िद करती है, मेरा भी वही अंदाज था। पिताजी समझ गए कहीं ना कहीं उनके मन ने उन्हें बता दिया था कि बेटी अब बड़ी हो रही है और अपने दिमाग से सोचने लगी है, और आज वह जल्दी मानेगी नहीं। वो बड़ी तसल्ली के साथ मेरे पास आए, मेरे पास बैठे और मुझसे उन्होंने कहा,” बेटी आज अपनी स्कूल बस नीचे शहर में जा रही है। तुम्हें पता है, आज बिरजू महाराज का नृत्य है”। मैंने कहा,” बिरजू महाराज.... कौन बिरजू महाराज ?? “ फिर क्या था, उन्होंने जो मुझे उनके बारे में बताना शुरू किया, बताते ही चले गए। परन्तु क्या मैं उनसे आकर्षित हुई.... क्या मैं उनकी बातों को समझ पाई.... नहीं। शायद उम्र का तकाज़ा था। मेरे लिए बिरजू महाराज कौन थे ....कोई भी नहीं....और मैने मन ही मन सोचा कि आज तो कोई भी मुझे हिला नहीं सकता। आज तो मुझे पिक्चर देखने असेंबली हॉल में जाना ही था।
मैंने सोचा पिताजी मान जाएंगे कभी भी मेरे इतना पीछे नहीं पड़े। धीरे-धीरे उनको समझ आ जाएगा। और मैं सिर्फ मां को बता कर चली गई। पिक्चर शुरू हुई। शुरू के 5 या 10 मिनट ही गुज़रे होंगे कि देखा किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा है।पीछे मुड़ी तो देखा पिताजी खड़े हैं।“ओ माय गॉड” यही रिएक्शन था मेरा। पिताजी यहां आ गए। फिर मैंने सोचा कि पिताजी तो कभी मेरे पीछे इतना पड़े ही नहीं। आज क्या हो गया है इनको। मन में इतनी उथल-पुथल चल रही थी, समझ नहीं पा रही थी क्या करूं क्या कहूं.... पिताजी कहीं गुस्सा तो नहीं हो जाएंगे। इतने में ही उनकी धीरे से आवाज आई मेरे कानों में,” बेटी थोड़ा बाहर आना”। अब बाहर तो मुझे जाना ही था। बेमन से... बिना किसी मतलब.... सारा उत्साह खत्म करते हुए, मैं मरी हुई चाल से उनके साथ बाहर आई। और उन्होंने मुझे बाहर खड़ा किया और मुझसे बोले,” आज मैं तुम्हारी एक नहीं सुनूंगा। मैंने तुमसे कहा था कि आज बिरजू महाराज का नृत्य देखने जा रहे हैं। देखो स्कूल बस आ रही है। इधर से ही तुमको बस में ले जाऊंगा”। हे भगवान अब तो मेरे पास कोई चारा नहीं था।
स्कूल के सामने खड़े होकर मैं पिताजी को कुछ नहीं बोल सकती थी। घर की बात तो और है।घर में आप ज़िद भी कर सकते हो, घर में आप पैर भी पटक सकते हो, घर में आप आवाज ऊंची भी कर सकते हो। पर स्कूल की बिल्डिंग के सामने खड़े होकर तो मैं नखरे नहीं कर सकती थी ना। एक बार कोशिश करी,” पिताजी कितनी अच्छी पिक्चर है मुझे देखने दीजिए ना प्लीज। मैं फिर देख लूंगी ना बिरजू महाराज का नृत्य”। परंतु पिताजी इस बार तो अटल थे और वो सोच कर आए थे कि किसी भी कीमत पर लेकर ही जाना है मुझे। फिर क्या था मुझे जाना ही पड़ा। स्कूल बस आई। उसमें और भी टीचर्स बैठे हुए थे। मैं भी फिर धीरे-धीरे बेमन से बस में बैठ गई।
बस पहुंची ग्वालियर शहर ऑडिटोरियम में, जहां बिरजू महाराज का नृत्य होने वाला था। मैं बैठी सोचती रही,” हे भगवान आज पिताजी को क्या हो गया है... क्यों इतनी ज़िद करके मुझे इतना परेशान किया। आज मुझे पिक्चर भी नहीं देखने दी।मन तो मेरा पिक्चर में था और दिखाने ले आए यह नृत्य। यह भी कोई बात हुई”। सच इतनी बेसहारा मैं उस पल में महसूस कर रही थी....कोई भी उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी।
अब तो मैं पहुंच ही गई थी। क्या करती। बस मैंने भी उनको मतलब बिरजू महाराज को देखना शुरू किया....धीरे धीरे ....ये क्या....अभी तो धीरे धीरे...और और .... वो तो एकदम ही तेज गति पर आ गए.... अरे यह क्या.... एक घुंघरू की आवाज़....परंतु उनके पैरों में तो इतने घुंघरू बंधे हैं....ओ माय गॉड ऐसा लग रहा है वह बिल्कुल खड़े हैं और सिर्फ एक घुंगरू कहीं बज रहा है। अरे मैं तो हैरान हो गई हूं। अचानक से गति तेज हो जाती है ... ओ माय गॉड यह क्या... हॉल में सभी स्तब्ध हैं। उनके हाथ, उनके पैर, उनका शरीर.... जैसे संगीत की लहरों में लहरा रहा है। ये तबले की थाप पर कैसे उनके घुंघरू भी बज रहे हैं। उस तबले की लय में जैसे मदमस्त हो गए हैं। घुंघरूओं को उनकी भाषा कैसे समझ में आ रही है.... कि अब हमें इतना हिलना है... अब हमें कम हिलना है.... अब हमें ज़्यादा हिलना है....अब हमें कम आवाज निकालनी है... अब हमें ज़्यादा आवाज़ निकालनी है। यह तो कमाल है..... मैं तो उनको देख देख कर हैरान हो रही थी। पिताजी की उनके बारे में कही बातें याद कर रही थी। उन्होंने जो बताया था... यह नज़ारा तो उससे भी बहुत ही शानदार था। बिरजू महाराज का नृत्य देखकर मैं हैरान हुई जा रही थी.... भूल गई थी वह पल जो घर में गुजरे थे.... जिसमें मैं मना कर रही थी.... यहां आने के लिए...वो पल.... जो स्कूल के सामने गुज़रे थे ...जब पिताजी मुझसे कह रहे थे,” तुम्हें चलना ही होगा, आज तुम्हें मैं लेकर ही जाऊंगा”। वह पल तो पता नहीं कहां गायब हो गये थे.... और मैं तो यहां खो सी गई थी.... बिरजू महाराज के घुंघरूओं की लय में। पता नहीं कैसे और कब कार्यक्रम खत्म भी हो गया मुझे अहसास ही नहीं हुआ। एक घंटे का कार्यक्रम था.... और मुझे तो लगा जैसे अभी मैंने देखना ही शुरू किया हो जैसे।
अरे यह क्या... कार्यक्रम तो खत्म ही हो गया। बिरजू महाराज आगे झुके, उन्होंने हाथ जोड़े.... स्टेज पर सन्नाटा.... पिताजी ने मेरी तरफ देखा...मानो पूछ रहे हों... बेटी कैसी हो...मैं तो जैसे किसी नींद से जागी थी... या यूं कहिए कि नींद में ही थी...और ऐसा लगा जैसे पिताजी ने डिस्टर्ब कर दिया। पिताजी की वो मुस्कुराहट जैसे कह रही थी....अब बोलो....तुम तो आना ही नहीं चाहती थीं। क्योंकि वह मुझ को जबरदस्ती यहां लेकर आए थे.....तो अब कैसे तारीफ कर दूं। लेकिन मैं बच्ची थी। बच्चे मन के सच्चे होते हैं। इसलिए बिना बोले नहीं रह सकी,” पिताजी आप कितने अच्छे हैं। आपको पता था ना कि मुझे यहां आकर अच्छा लगेगा इसलिए आप मुझे जबरदस्ती लेकर आए। और आप ने मेरी एक न सुनी, मेरी एक न चलने दी, क्योंकि आपको पता था कि पिक्चर तो बार-बार आती रहेगी, परन्तु बिरजू महाराज यहां पता नहीं दुबारा कब आयेंगे।फिर हमें कहां मौका मिलेगा उनका यह कार्यक्रम देखने का। फिर आप यह भी चाहते थे कि मेरी बेटी क्लासिकल म्यूजिक, क्लासिकल डांस को समझे। और आपने जबरदस्ती का निर्णय मेरे ऊपर थोपा था।
पर अब सोचती हूं तो सच में में समझ पाती हूं कि वह कितने सही थे, कि वह मुझे मेरा हाथ पकड़ कर, मेरी मर्जी के खिलाफ....मुझे बिरजू महाराज का नृत्य देखने के लिए क्यों ले गए और वहां जाकर मुझे अहसास कराया कि मैं अगर यहां नहीं आती तो मैं शायद बहुत कुछ मिस करती। वह दिन है और आज का दिन है...मैंने एक बार और उनका नृत्य देखा जयपुर में.... लेकिन वह जो पहला नृत्य था मैं कभी भूल नहीं पाई। और आज जब मैं अपने “आर्ट ऑफ पेरेंटिंग” के लेक्चर लेती हूं अपने यूट्यूब चैनल पर, तब मैं कहना चाहती हूं आपसे कि कभी कभी जबरदस्ती करने से अच्छा होता है। सिंधिया स्कूल के अध्यापक ने जो अपनी बेटी के साथ ज़िद करी..... वह बिल्कुल सही थी।
आज मैं अपने पिताजी को और अपने स्कूल को बहुत-बहुत धन्यवाद देना चाहती हूं कि उन्होंने मेरा रुख क्लासिकल डांस और म्यूजिक की तरफ मोड़ा। आज मैं जो भी हूं मेरे पिताजी और मेरे स्कूल की देन हूं। धन्यवाद पिताजी और धन्यवाद सिंधिया स्कूल। मैं नतमस्तक हूं।
By Seema Sharma

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