‘मैं, मेरे बच्चे और कुर्ग
- Hashtag Kalakar
- Nov 23, 2022
- 5 min read
By Seema Sharma
यूं तो कई हिल स्टेशन हैं, हिंदुस्तान में,परंतु कुर्ग मुझे कुछ ज्यादा ही खास लगा। कहते हैं न कि जहां घर वाले, वहीं दुनिया भर की खुशियां होती हैं। हम भी यही सोचकर बैंगलौर आए थे कि अब ‘रिटायरमेंट’ के बाद थोड़े दिन बेटे और बहू के साथ रहने का आनंद लेते हैं। हमारी तो नौकरी खत्म हो गई लेकिन बच्चों की तो चल रही है, सोचा अच्छे से साथ में समय बिताना है उनके साथ, तो वहीं जाना चाहिए क्योंकि बच्चे तो अब सिर्फ त्यौहार पर ही घर आ पाते हैं वो भी सिर्फ तीन या चार दिनों के लिए और इसके बाद जब जाते हैं तो ‘दिल मांगे मोर’ वाली स्थिति हो जाती है, जो कि तरसाने वाली स्थिति से कम नहीं होती। अब मन भरना है तो कुएं के पास तो जाना ही पड़ेगा। फिर क्या था, ‘रिटायरमेंट’ तो हो ही गया था, समय की कोई पाबंदी थी नहीं, बना लिया प्रोग्राम बैंगलौर जाने का।
यहां आए तो देखा कि बेटे और बहू दोनों ही सोमवार से शुक्रवार तो सुबह से रात तक नौकरी बजाते ही हैं और शनिवार और इतवार वैसे ही पलक झपकते निकल जाता है। यहां आकर लगा मानो बच्चों के साथ दो पल भी नहीं मिल पा रहे हैं। ऐसा ही एहसाह उन दोनों का भी था।
सोचा क्यूं ना ऐसा कुछ किया जाए कि एक एक पल साथ में बिताया जाए क्योंकि ‘क्वांटिटी टाइम’ तो निकल नहीं पा रहा था , ‘क्वालिटी टाइम’ निकाला जाए। बस फिर क्या था हम चारों ने ही मिलकर एक ‘स्मार्ट सॉल्यूशन’ निकाला... ‘रोड ट्रिप’ का।
इसका एक फायदा ये है कि कार में आप सब एक साथ होते हैं और कोई नहीं होता। मोबाइल तो होता है, थोड़ा ध्यान भटकाने के लिए पर फिर भी, और दूसरे कोई कारण नहीं होते भटकाव के। अब सोचना ये था कि जाएं तो जाएं कहां। आजकल बच्चों को गूगल पर ‘रिसर्च’ करने में ज़रा सा भी समय नहीं लगता। फटाफट निर्णय लिया कि पास में ही कुर्ग चलते हैं और एक अच्छे ‘रिसोर्ट’ पर समय बिताते हैं। ‘पेट फ्रेंडली रिसोर्ट’ की तलाश शुरू हुई क्योंकि ब्रूनो जो हमारे साथ जा रहा था। ‘शॉर्टलिस्ट’ करते करते होटल ‘द क्रीक’ के लिए सबकी हां हो गई। इस होटल की खास बात ये थी कि इसमें इसके नाम को चरितार्थ करते हुए इसके पीछे एक नदी बहती थी। प्रॉपर्टी ‘एरिया’ में तो काफी बड़ी थी पर कुल मिलाकर पांच ही ‘हट’ थे और चारों तरफ कॉफी, काली मिर्च, कटहल तथा पाइनएप्पल के अलावा भी बहुत सारे पेड़ थे।आराम से खूब बात करते, हँसते, हँसाते सफर कब कट गया पता ही नहीं चला।
पांच घंटे के सफर के बाद जब हमारी कार ‘रिसॉर्ट’ पर जाकर रुकी तो एक बहुत ही सुंदर हरी भरी जगह देखकर मानो मन गदगद हो गया। ब्रूनो के गले का पट्टा खोल दिया गया। अरे यह क्या वो तो पलभर में कुलांचें भरते हुए पीछे नदी की तरफ जो भागा, कि हम सब भी अपने कमरों की तरफ जाने कि बजाय सीधे नदी की तरफ बढ़ गए। क्या सुंदर नज़ारा था। मटमैली सी बरसाती नदी, चारों तरफ गहरे हरे रंग की मनोहारी हरियाली, इतना मनोरम दृश्य पैदा कर रही थी कि ऐसा लगा मानो मन खुशी से छलक पड़ेगा। अपने परिवार के साथ इतने मनोरम स्थान पर बैठकर कुछ पल बिताना इतना सुखद हो सकता है, कभी सोचा नहीं था।
ब्रूनो का ‘एनर्जी लेवल’ तो देखते नहीं बन रहा था। उसकी लंबी लंबी कुलांचे तो मानो खत्म ही नहीं हो रहीं थी। एक बार को तो ऐसा लगा कि कहीं थककर इधर उधर गिर ना पड़े। लेकिन भगवान जाने कहां से इतनी शक्ति उसमें संचालित हो रही थी। एक बार को तो मन ये सोचने पर मजबूर हो गया कि कहीं हम इनको घरों में बंद करके इनपर ज्यादती तो नहीं कर रहे। खैर इस वक्त तो मन कुछ भी गूढ़ बात सोचने के पक्ष में नहीं था। मन तो बस जैसे उन पलों को पूरी तरह से जीने में मशगूल था। अपने कमरे देखने का भी होश नहीं था। खैर वहीं पर ‘टोमेटो सूप’ मंगवाया गया और फिर उसका सेवन करके कमरों की तरफ बढ़े। सामान का होश संभाला।
कुदरत के नज़ारों से मेल खाता हुआ ही हमारा ‘हट’ था। साधारण होकर भी बहुत असाधारण नज़र आ रहा था। बीच से ऊंची और दोनों तरफ ढलान में जाती हुई छत बड़ी सुंदर लग रही थी। कमरा भी बड़ा अच्छा था। सामने बालकनी में बैठने के लिए कुर्सियाँ भी सुसज्जित थीं। ऐसी जगह पर कोई भी महीनों गुज़ार सकता था। मन थोड़ा बोझिल हो गया यह सोचकर की हमें तो अगले दिन ही वापस जाना था, सोमवार से बच्चों के ऑफिस जो थे। ये सोचकर कि व्यक्ति को उस पल में ही जीना चाहिए तथा जो मिल रहा है, उसके लिए शुक्रगुजार होना चाहिए, तुरंत ही उन असंतोष से भरे विचारों को झटक दिया।
दोपहर के खाने का समय हो चला था। खाने की जगह देखी तो सादगी से भरी इतनी सुंदर थी की मन खुश हो गया। बड़े बड़े पेड़ों और हरियाली के बीच मानो एक खुला चबूतरा ....जिसके ऊपर एक छत थी। सामने ही रसोई थी जिसमे कमला और उसके पति खुद ही खाना बनाते थे। सोचिए सामने रसोई में से गरम गरम खाना आपको परोसा जा रहा हो, बिना किसी फालतू तामझाम के...कितना प्यारा अहसास था। पेट भर खाना खाकर फिर निकले ‘लोकल साइटसींग’ के लिए...एक झरने को देखने के लिए।
एक पल को तो ऐसा लगा मानो प्रकृति की गोद में ही आ गए थे। हल्की हल्की बारिश की फुहारें भी हमें रोक नहीं पा रहीं थीं। ये नज़ारे मानो हमेशा के लिए आंखों में कैद करने की तमन्ना लिए हम बढ़े जा रहे थे, झरने की ओर।
उफ्फ क्या सौंदर्य था। ना जानें कहाँ से, कितनी दूर से बहते हुए आ रहा था ये झरना, मानो हमारे सामने अपने सौंदर्य की छटा बिखेरने.... मुझे उस वक्त बिल्कुल ऐसा ही प्रतीत हुआ। और ऊपर से वो कल कल स्वर...पानी जो ऊंचाई से गिर रहा था...उससे पैदा होता हुआ दिल को कहीं झकझोर रहा था। वो शोर होते हुए भी शोर नहीं था। बहुत कर्णप्रिय महसूस हो रहा था। मानों बहुत सारी चिड़ियाओं का एकसाथ कलरव हो। तभी बच्चे बोले, माँ चलना नहीं है क्या वापस। ऐसा क्यों होता है कि कहीं जाकर वहां से वापस भी जाना होता है...हम इतने गतिवान क्यों होते हैं... हमेशा चलते ही क्यों रहते हैं...हम ठहर क्यों नहीं सकते...ये पल यहीं रुक क्यों नहीं सकते...इन्हीं विचारों के साथ अनमने मन से अपने कदमों को वापस कार की तरफ मोड़ लिया।
कितना सुकून था उन पलों में , बच्चों के साथ में, अपने संसार में तथा इस बात के अहसास में कि हम साथ साथ हैं....थोड़े समय के लिए ही सही।
अगले दिन तो वापस निकलना ही था। सोचा एक बार और पीछे बहती हुई नदी के पास थोड़ा समय बिताया जाए। मन जैसे हर पल को सहेजना चाहता था, उन सभी लम्हों को अपने पास समेटना चाहता था ताकि बाद में...कभी जब बच्चों से दूर होऊंगी.....तो इन पलों की ऊष्मा को महसूस कर सकूंगी। मन भी कितना अस्थिर और असंतुष्ट होता है। कभी भरता ही नहीं....हर वक्त ‘दिल मांगे मोर’ की जैसे रट लगाए रहता है।
खैर जाने से पहले वापस मुड़कर देखा उस मटमैली कलकल बहती नदी को, मानों उससे कह रही होऊं...रोक ले मुझे ऐ बहती धारा...मुझे भी बहने दे अपने इस छोटे से प्यारे से परिवार के बंधन में। मैं मुक्ति नहीं चाहती, मैं बंधन ही चाहती हूं...अपने परिवार के प्यार का। मुझे नहीं होना मोह मुक्त...मुझे तो जीना है इसी मोह में और महसूस करना है बस वो स्नेह।
तभी दूर से बेटे की आवाज़ ने पुकारा.. माँ चलो...देर हो रही है। और मैं जैसे यंत्रवत सी उस आवाज़ के पीछे चल दी। वापस मुड़कर नदी को देखना तो चाहती थी, परन्तु अपने आपको उन भावुक खयालों में कैद नहीं करना चाहती थी क्योंकि यथार्थ में जो जीना था। कितना नीरस है यह यथार्थ...जैसे बेड़ियों के समान...बेड़ियां इसलिए कि तोड़ना चाहो तो भी नहीं तोड़ सकते। भारी कदमों से वापस चल दी उस शहर की ओर जिसमें मेरे बच्चों का संसार बसा है। शायद यही जीवन है और यही यथार्थ।
By Seema Sharma

Comments