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मानव मन का अंधकार कैसे दूर हो?

By Vibhav Saxena


मनुष्य को ईश्वर की सर्वोत्तम कृति कहा जाता है। चौरासी लाख योनियों में मानव को सर्वश्रेष्ठ होने की उपाधि प्राप्त है। वास्तव में मानव ने अपने बुद्धि और बल के सहारे प्रकृति से प्राप्त संसाधनों का उपयोग करते हुए न केवल अपने जीवन को सुख सुविधाओं से परिपूर्ण किया वरन उसने अन्य जीव-जंतुओं से कार्य लेने के साथ-साथ उन पर नियंत्रण स्थापित करते हुए अपनी सर्वश्रेष्ठता को सिद्ध किया। ध्यान देने योग्य तथ्य है कि मानव का श्रेष्ठतम होना उसके ज्ञान पर ही आधारित है।


इस संसार में वही व्यक्ति वास्तविक रूप में सफल है जो ज्ञान प्राप्त करता है और अपने ज्ञान )का सदुपयोग करता है। ज्ञान को वस्तुतः दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- सैद्धांतिक और व्यावहारिक। यहां सैद्धांतिक ज्ञान से तात्पर्य समाज में सिद्धांतों के रूप में विद्यमान ज्ञान से है और यह प्रायः पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है। वहीं व्यावहारिक ज्ञान पढ़े लिखे हुए को व्यवहार के रूप में प्रयोग करने से प्राप्त होता है और कई बार किसी वस्तु, व्यक्ति व परिस्थिति विशेष के साथ सामंजस्य बैठाने अथवा व्यवहार करने से भी हमें व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति होती है जो हमारे लिए एक नवीन अनुभव भी सिद्ध हो सकता है।


वस्तुतः ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। आप किसी भी वस्तु, व्यक्ति या घटना आदि के बारे में जितना ज्ञान प्राप्त करेंगे, आपकी जिज्ञासा उसके बारे में अधिक जानने हेतु बलवती हो उठेगी। और यह भी सत्य है कि हर बार हमें एक नए सत्य का पता चलेगा और इस प्रकार ज्ञान बढ़ता जाएगा। साथ ही हमारी जिज्ञासा भी बढ़ती जाएगी किंतु ज्ञान की सीमा का कोई अंत नहीं होगा। यहां यह भी समझना होगा कि ज्ञान की प्राप्ति के साथ उसका सदुपयोग भी आवश्यक है।





वर्तमान युग में मनुष्य ने ज्ञान को केवल आजीविका के साधन से जोड़ा है। वह अपने ज्ञान को अधिक से अधिक धनोपार्जन और भौतिक सुख सुविधाओं को एकत्रित करने का हेतु मानकर कार्य कर रहा है जबकि ज्ञान यहीं तक सीमित नहीं है। वास्तविक ज्ञान वह है जब मनुष्य अपने जीवन की समस्याओं का समाधान करने के साथ-साथ अपने मन के विकारों को भी दूर कर सके और मनुष्य होने का वास्तविक अर्थ जान सके। वह आदर्श गुण अपनाते हुए संसार की भलाई के लिए भी कुछ करे तभी ज्ञान की सार्थकता है।


यदि हम वर्तमान परिस्थितियों को देखें तो चारों ओर एक अंधी प्रतिस्पर्धा चल रही है। प्रत्येक मानव जीवन में आगे बढ़ने और भौतिक सुख सुविधाओं का अधिक से अधिक उपभोग करने को जीवन का एकमात्र उद्देश्य और अपनी सफलता का प्रमाण मानकर चल रहा है। यही कारण है कि समाज में भ्रष्टाचार, झूठ, छल, कपट, षड्यंत्र और अन्य बुराइयां निरंतर बढ़ती जा रही हैं जबकि मानव अपने मन से उतना ही अधिक निर्धन होता जा रहा है। आज भौतिक सुख सुविधाओं से संपन्न होने के बाद भी मनुष्य का मन या चित्त शांत नहीं है। वह निरंतर इधर-उधर भटकता रहता है किंतु उसके मन को कहीं भी वास्तविक शांति का अनुभव नहीं होता। इसका मूल कारण है उसके मन में ज्ञान की ज्योति का न जगना।


आज अधिकांशतः हमें यही स्थिति देखने को मिलती है जहां मनुष्य सत्कर्म तथा परोपकार से दूर है और केवल भौतिकता की अंधी दौड़ में आगे निकलने हेतु व्याकुल है। इस दौड़ में आगे निकलने हेतु उसने प्रकृति और प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया है एवं अन्य प्राणियों को कष्ट पहुंचाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी है। दूसरे शब्दों में कहें तो मानव ने अपनी सीमाओं का घोर उल्लंघन किया है जिसके कारण समय-समय पर वह प्रकृति का कोपभाजन भी बना है। मानव के मन में इस प्रकार अंधकार रहने के कारण ही उसने संसार में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों और रूढ़िवादी परंपराओं आदि को स्वीकार कर लिया है जिसके कारण उसके उत्थान के समस्त द्वार लगभग बंद से हो गए हैं। निश्चित रूप से यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती और ऐसी स्थिति में मानव मन के अंधकार को दूर करने हेतु ज्ञान की ज्योति उसके हृदय में जलाया जाना आवश्यक है।


मनुष्य जिस ज्ञान को केवल भौतिक सुख साधनों का हेतु मानकर चल रहा है, उसे इस ज्ञान को दूसरी दृष्टि से भी देखना होगा। यदि मनुष्य आध्यात्मिक रूप से चिंतन करे और सद्गुणों को अपनाते हुए सत्कर्म करे तो निश्चित रूप से वह अपने जीवन में मानसिक शांति का अनुभव करेगा। साथ ही जनकल्याण की भावना से कार्य करने से अन्य लोगों का जीवन स्तर भी ऊंचा उठेगा और मानव को अलौकिक सुख का अनुभव होगा। वास्तव में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जो मानसिक रूप से संतुष्ट है और मानसिक रूप से वही संतुष्ट हो सकता है जिसके मन में ज्ञान की ज्योति जगी हो अर्थात जो इस संसार में रहते हुए अपने समस्त दायित्वों का भली-भांति निर्वहन करे और भौतिकता के साथ-साथ अध्यात्म को भी जीवन का महत्वपूर्ण अंग मानते हुए कार्य करे।


हमें इस संसार से जो भी मिलता है, वह इस संसार में ही रह जाना है और मनुष्य का जीवन तभी सफल है जब वह दूसरों के हितार्थ भी कुछ करे। जिस दिन मनुष्य यह समझ लेगा, उस दिन वह मानवता को सार्थक करेगा और यह स्थिति तभी आएगी जब मानव के मन में ज्ञान की ज्योति जलेगी तथा वह आध्यात्मिक दृष्टि से परिपूर्ण होगा। तब वह समाज में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों, और रूढ़िवादी परंपराओं आदि का खुलकर विरोध करते हुए समाज में सुधार हेतु सार्थक प्रयास करेगा। साथ ही वह अन्य मनुष्यों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने में संलग्न होगा और उसके भीतर आदर्श जीवन मूल्यों का विकास होगा। ऐसी स्थिति में वह प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए संपूर्ण प्राणी जगत के प्रति भी सद्भाव रखेगा और न केवल अपने वरन संपूर्ण संसार के कल्याण में संलग्न होगा। यह स्थिति निश्चित रूप से उसे वास्तविक अर्थों में मानव कहलाने योग्य बनाएगी तथा उसके मन के साथ-साथ उसके जीवन का अंधकार भी दूर होगा और यह सब ज्ञान की ज्योति के कारण ही संभव हो सकेगा। जैसा कि राजा राममोहन राय ने कहा भी था- "केवल ज्ञान की ज्योति द्वारा ही मानव मन के अंधकार को दूर किया जा सकता है।"


By Vibhav Saxena




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