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भावों के बुलबुले

By Anjali Kumari


धीमी-धीमी आँच पर, सुलग रहा कुछ ख़ास है

तड़प है, घुटन है, अज्ञात एक प्यास है।

हल्के-हल्के बुलबुले, उठके फूटते हुए

फूटकर फिर बनेंगे, मन को यही आस है।


क्षणभंगुर ये बुलबुले कितने क्षण संभलेंगे फिर?

हल्के नाज़ुक बुलबुले कैसे घात सहेंगे फिर?

सतही ये बुलबुले, जड़ में कैसे जमेंगे फिर?

मिट जाएँ भावों के बुलबुले, जो?

या बच जाएँ अगर किसी तरह वो,

क्या हो, क्या हो, क्या हो फिर?

हृदय को झकझोड़ते इस प्रश्न का उत्तर है क्या?


क्षणभंगुर यदि बुलबुले, तो, क्षण भर का यह देह भी है।

हल्के नाज़ुक बुलबुले सा, मानव का यह देह भी है।

सतही जीवन जीने वाला, सतही इसका देह भी है।

भावों का मिटना, मिटना है सत्य का, 

स्वप्न का, रुचि का, तथ्य का,

अंततः आत्मा का, देह का।


भावों का बचना, बचना है सृजन का,

आकर्षण का, प्रेम का, मिलन का,

सौंदर्य का, आनंद का, कांति का,

धैर्य का, विश्राम का, शांति का,

ऊर्जा का, संकल्प का, विश्वास का, 

प्रकाश का, आस का, विकास का।


भाव है जब तक, धरा है विश्व है

भाव के बल पर, खड़ा यह विश्व है।

भाव स्थाई है, परिवर्तनशील भी

भाव नित्य है, सृजनशील भी।

भाव है तुममें तभी मनुष्य हो तुम

अन्यथा पाषाण के समतुल्य हो तुम।


By Anjali Kumari


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