फ़र्क़
- Hashtag Kalakar
- Oct 24
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By Kapil Chugh
रात को अकेले कभी
टहलने निकलता हूं
कदमों के शोर से
एक सन्नाटा पसर जाता है
आसपास की शांति
और फैली आवाज़ों का
फ़र्क़ समझ नहीं आता
शांत झाड़ियों और पेड़ों की
ओट लिए घुप अंधेरे में
कुछ झींगुर, मेंढक और टिड्डे
अपनी सुबह का ऐलान करते
शिद्दत से काम करते
जब अपने सुर यंत्र उठा
अपना रियाज करते हैं
तो यूं लगता है जैसे
जीने का सलीका शायद
इन जीवों को ही आता है
हमें फ़र्क़ समझ नहीं आता
शांति और सन्नाटे का
रौनक और कोलाहल का
प्रसन्नता और आनंद का
शायद इसीलिए मैं
रात के सन्नाटे में
अकेले टहलने निकलता हूं
ताकि फ़र्क़ समझ सकूं
जीवित होने और जीने का
By Kapil Chugh

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