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प्रेम सर्वज्ञ है!

By Anurag Shukla


पूरे इस सृष्टि का आधार प्रेम पर ही टिका हुआ है। प्रेम एक ज्योति की तरह जलते हुए प्रकाशवान है। उसके भीतर एक शांति है, आनंद है। उसकी उपस्थिति से मात्र सारे भ्रम और विकार दूर हो जाते हैं। जो व्यक्ति प्रेम में जी रहा होता है, उसके भीतर एक समर्पण की भावना होती है। न भय, न विषाद और वह दुखों से मुक्त हो जाता है और इस परम आनंद की सतत यात्रा में वह समर्पित हो जाता है। प्रेम स्वभाव की बात है, संबद्ध की बात नहीं है। प्रेम मन की एक उच्चतम स्थिति है। वह मनुष्य के व्यक्तित्व का भीतरी अंग है।


प्रेम सर्वज्ञ है। प्रेम को बाहर मत खोजो वो तुम्हारे भीतर ही विद्यमान है। प्रेम को जितना बाहर खोजोगे, उतना ही दूर होते जाओगे। प्रेम तो लगातार है, वह तो पहले से ही प्राप्त है, परिपूर्ण है। उसके अस्तित्व को जानों और पहचानों उसमें तो लगातार एक अनंतता का भाव छिपा हुआ है। प्रेम केवल चर्चा का शब्द नहीं है, अपितु उसमें प्रेमपूर्ण होकर अपने आप में जीवंत जिया जाता है। तभी प्रेम दूसरों के प्रति भी होगा। ये ढाई अक्षर शब्द के प्रेम में बहुत बड़ी ताकत है। व्यक्ति के जीवन का आधार प्रेम पर ही टिका होना परमात्मा की प्राप्ति कर लेना जैसा है। व्यक्ति का प्रेमपूर्ण होना कोई कारण नहीं है अपितु अकारण है।


जहां कहीं कोई चीज आकर्षक दिख जाए अगर उससे कहीं तुम चिपक गए, आसक्त हो गए तो जरा सावधान हो जाना, तो तुरंत सवाल अपने आप से करना की क्या यह प्रेम है? या फिर मन का एक भ्रम है, आकर्षण है? प्रेम की यही तो परिभाषा होती है की प्रेम अकारण होता है, प्रेम आकर्षण रहित होता है, प्रेम में कोई निजी स्वार्थ नहीं होता है। प्रेम विषय जरूर हो सकता है लेकिन प्रेम होना कोई कारण नहीं है क्योंकि वह व्यक्ति का तो मूल स्वभाव ही है।



प्रेम एक जागृत चेतना की अवस्था का नाम है। जब कोई व्यक्ति प्रेममुखी हो जाता है तो उसको पूरा जगत एकमय दिखने लगता है, उसे सबके भीतर परमात्मा नजर आने लगता है क्योंकि वह अपने अंतर्दृष्टि से देखता है। जहां सारे भेद-भाव, छुवा-छूत, धर्म और जाति का ऊपरी चोला उसके अंतःकरण से सदा के लिए मिट जाता है। वह चेतना एक मुखी हो जाती है, जिसे आत्मस्थ हो जाना कहते हैं। उसके भीतर इस सृष्टि के सभी जीवों के प्रति एक करुणा, दया और कल्याण की भावना रहती है। प्रेम के द्वारा ही परमात्मा को जाना जा सकता है। पूरे इस अस्तित्व के संयुक्तता को ही परमात्मा कहते है। लेकिन हम यही गलती करते हैं की परमात्मा को बाहर खोजने का काम करने लगते हैं, इससे और पाखंड को जोड़ लेते है।


परमात्मा न सहज है, न सरल है और न ही कठिन है, वह तो सिर्फ अपने स्वभाव में है, अपने मूल में है, जड़ में है और चेतन में है। वह तो पहले से ही प्राप्त है। ये तो हमारे अहंकार की एक जड़ता होती है, की देखो मैं तो सबसे कठिन चीज को पाने जा रहा हूं। लेकिन वह भ्रम बस अपनी झूठी कल्पना से तृप्ति को पा लेता है।

इस पूरे अस्तित्व कि संयुक्तता को जानने के लिए भीतर प्रेम की लगातार धधकती एक ज्वाला होनी चाहिए। इसलिए प्रेम को सीखना पड़ता है, एक समझ पैदा करनी पड़ती है। प्रेम को सीखने के लिए ऋषियों से, उच्च ग्रंथों से और अपने जीवन के दर्शन से भी सीख सकते हैं। प्रेम बलहीनों और कमजोरों के लिए नहीं है। प्रेम उनके लिए है, जो लगातार चुनौतियों से लड़ने के तैयार हों।

प्रेम जीवन का वह गीत है, प्रेम जीवन का वह कौशल है, जहां व्यक्ति के पूरे जीवन को सुगमता एवम सरलता से भर देती है।



- प्रेम मनुष्य के व्यक्तित्व का वह भीतरी अंग है,

जहां उसे मुक्ति मार्ग की ओर ले जाती है।


By Anurag Shukla





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