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प्रकृति और मनुष्य

By Anurag Shukla


प्रकृति एक ऐसी व्यवस्था है, जिनमें सभी जीव जंतुओं एवम प्राणियों का निवास है। यह व्यवस्था निरंतर चलती और परिवर्तित होती रहती है। परिवर्तन से तात्पर्य यह है कि प्रकृति की इस व्यवस्था में कई घटनाएं घटती रहती हैं। जो यह घटना किसी जीव के लिए कल्याणकारी या फिर दुःख दायी भी हो सकती है। ज्यादातर प्रकृति की घटनाएं विनाशकारी ही होती है। ये घटनाएं अपने समकालीन निर्धारित होती हैं। और इस परिवर्तन में बहुत सारे नए आयाम जुड़ते और टूटते भी रहते हैं।


प्रकृति के परिवर्तन में सबसे महत्वपूर्ण कारक मनुष्य जाति है। जो इस जाति की उपभोग की विलाशता लगातार बढ़ती जा रही है। अगर हम पहले की अपेक्षा इसे दो पैमानों पर देखें तो सब कुछ स्पष्ट नजर आता दिख रहा है। पहला जब मनुष्य जाति की सभ्यता का विकास हुआ नहीं था या फिर धीरे धीरे कुछ विकास हो रहा था। और दूसरा जब आज की सभ्यता अत्यधिक विकसित एवम आधुनिक जिसमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी दोनों शामिल है।

सैकड़ों, हजारों वर्ष पहले और अब तक का अवलोकन करें तो पता यही चलता है की आज कि मनुष्य जाति जितना विज्ञान के तल पर विकसित हो रहा है, उससे कहीं ज्यादा प्रकृति को नष्ट भी कर रहा है। जैसे जैसे विकास हुआ वैसे वैसे तकनीक की व्यवस्थाएं भी बढ़ी। और ये संभव नहीं की अगर तकनीक बढ़े तो उपभोग न बढ़े, वो निश्चित तौर पर बढ़ेगा।





जब नए नए चीजों का आविष्कार हुआ और वो बाजार व्यवस्था में धीरे धीरे पनपने लगी तो निश्चित है और ये मनुष्य का स्वभाव भी है, सुख भोगना। इसे कौन नहीं भोगना चाहेगा।

बात यहां पर स्पष्ट है की मनुष्य जाति का विकास होना अच्छी बात है, चाहे वह उपकरण हो या फिर चेतना। लेकिन यह प्रकृति और मनुष्य के बीच का संतुलन तभी तक स्थापित रहता है, जब मनुष्य प्रकृति के भीतर उपलब्ध संसाधनों का उपभोग दायरों में रहकर या फिर एक सीमा के भीतर रह कर करता है। अन्यथा प्रकृति परिणाम देनें में सदैव तत्पर रहती है।


अगर आज के समय में प्रकृति की प्राकृतिक घटनाओं का अवलोकन करें तो पहले से कितना भयावह परिणाम दिखता है। इन्ही बढ़ती उपभोग और विलासिताओं के चलते प्रकृति का जितना शोषण आज के समय में हुआ शायद उतना कभी नहीं हुआ था। और इन्ही सब कारणों से प्रकृति और मनुष्य के बीच का संतुलन धीरे धीरे खोता चला जा रहा है। एक असंतुलन का संबंध पैदा हो गया है। और वह लगातार बढ़ता चला जा रहा है। और इन्ही सब कारणों के चलते आज जहां बारिश होती थी अब वहां सूखा और जहां पहले सूखा था अब वहां बारिश के पानी बाढ़ जैसी विपदा बनकर हालात खराब किए हुए हैं। कहीं चट्टाने टूट रही हैं, तो कहीं जमीन ही पूरी खिसक जा रही है।


पहले जहां सब कुछ सामान्य था अब वहां लगातार असमान्य और विपरीत घटनाएं घट रही हैं। यही है प्रकृति की जवाबदेहिता। अब धीरे धीरे नहीं तत्काल इस मानव समाज को सूक्ष्म और गहराई से परखना और देखना चाहिए की प्रकृति कि व्यवस्था का संतुलन कैसे बनाए रखें? अगर मनुष्य जाति को अपने जीवन को प्रकृति के साथ संतुलन को सुचारू रूप से बनाके चलाना है तो निश्चित ही प्रकृति को बचाना होगा। क्योंकि जब ये प्रकृति ही नष्ट हो जाएगी या फिर उथल पुथल हो जायेगी तो निश्चित ही सारे प्राणी एवम जीवजंतु भी नष्ट हो जायेंगे। तो जरा सोचो की व्यवस्था कितने पीछे चली जायेगी। विकसित होने में न जाने कितने हजारों, लाखों वर्ष लगेंगे कोई अता पता नहीं।


लेकिन जब गौर से देखते हैं तो प्रकृति को इस घटना से कोई फर्क नहीं पड़ता की कौन मरा? और कौन जीवित बचा? क्योंकि उसका परिवर्तन होते रहना एक नियत निर्धारित घटना है।


वर्तमान में प्रकृति में जीवित सभी मानव जाति का कर्तव्य है की प्रकृति के सीमित संसाधनों के दायरों में रहकर उपभोग करें और उसकी रक्षा करें। तभी प्रकृति और मनुष्य के बीच एक अच्छे संबंध का संतुलन बना रहेगा। जो यह सतत मानव के विकास और कल्याण के लिए भी आवश्यक है।


प्रकृति एक अमूल्य उपहार है, जीवन जीनें का

जरा इसे भी बचा लो, जरा तुम जी लो।



By Anurag Shukla




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