पितृसत्ता
- Hashtag Kalakar
- 2 hours ago
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By Varsha Rani
जवानी में जो क्रांतिकारी स्त्री-विमर्श था मुझे बहुत लुभाता,
आज बुढ़ापे की दहलीज़ पर अक्सर उसका सार मुझे क्यों समझ में नहीं आता I
साड़ी, सिन्दूर, चूड़ी, बिछिया, हार, नथिया, झुमके, बेसर, पायल, कंगन,
क्यों लगते थे, ये सब तब सिर्फ बंधन I
शोषण की ये थीं सब निशानी,
जर्जर ये परम्पराएं थीं मिटानी I
किसको थी खबर कि तथाकथित अंधेरों में उजाले भी छिपे रहते हैं,
बेटी से माँ के अनूठे सफ़र के सारे धूप-छाँह पलते हैं I
खुली हवा में सांस लेने के लिए सड़कों पर जब उतरे थे हम,
लगता था कि उग्र क्रांति से मिट जायेगा चारो ओर फैला यह घोर तम I
इसके लिए कभी वस्त्रों को तजा, कभी अंतर्वस्त्रों को भी हमने जलाया,
नारों, मोर्चों और धरनों से हमने अपने अन्दर और बाहर का अन्धकार मिटाया I
बहुत सपने देखे थे हमने कि लायेंगे नया ज़माना,
हमारी बेटियों के होठों पर होगा आज़ादी का अनोखा ही तराना I
हमारे बलिदानों के कारण आया भी वह दौर सुहाना,
ज़मी से आसमान तक अब वह लिख रही हैं नया फ़साना I
उनकी सफलताओं को देखकर जायज़ है, हमारे जी का जुड़ा जाना,
लेकिन सुबह की लालिमा से रात की स्याही तक केवल उनका बेहिसाब काम करते जाना,
लगता है जैसे घर और बाहर सिर्फ मकसद है सुपरवुमन का ख़िताब पाना I
पितृसत्ता से मुक्ति की आस लिए तोड़ा है, उन्होंने घर परिवार का ताना-बाना,
उतार फेंका है साड़ी-सिन्दूर, शादी-ब्याह, बाल-बच्चे – तथाकथित हर चलन पुराना I
गुज़रे हुए दिनों पर अब जब नज़र डालती हूँ मैं, तो अक्सर दोषी होने का एहसास होता है,
सम्पूर्ण स्वछंदता की होड़ में कहीं उन्हें समन्वय का पाठ नहीं पढ़ाने का अफ़सोस होता है I
जब अपनी कमाऊ, स्वतंत्र, घूमंतु,कामकाजी, ममतामयी जवान बिटिया के अकेलेपन को देखती हूँ मैं,
तो लगता है, जैसे जिम्मेदारियों के बोझ तले उसके बचपन और जवानी को दफनाने की गुनाहगार हूँ मैं I
जिस पितृसत्ता से है विरोध, उसकी ही लीकों पर बेहतरी की आस लिए उनका फिर से चलना,
उन्हीं पुरुषों की तरह दिखना, उठाना-बैठना, कपड़े पहनना, खाना-पीना और व्यवहार करना I
जब प्रकृति का भी उद्देश्य था स्त्री और पुरुष के तन-मन को अलग बनाना,
फिर तर्कसंगत है क्या, तथाकथित विरोधियों के विरोध में उनकी ही नक़ल उतारना I
शक्ति होकर भी अपनी अनन्यता का बोध नहीं होता है, जिन्हें,
पितृसत्तामक बाहरी वेश और चाल-चलन बिगाड़ने से क्या पाएंगी वे I
सारे अनमोल रिश्ते क्या इसी आडंबर की भेंट चढ़ जाएँगे,
रेत की तरह जितने मधुर पल हैं, हाथों से फिसल जाएँगे I
सोचती हूँ कभी एक मौका ज़िन्दगी से जो और मिल जाए,
तो नारी मुक्ति के आयाम को बदलने के करूँ कुछ तो उपाय I
अपने बेटे को भी सिखाऊं महत्व संघर्ष, समता और जीवन में सामंजस्य का ,
दूँ मन्त्र प्रकृति और पुरुष के अनोखे मेल को विवेक से संवारने और सहेजने का,
भूल-भूलईयों से गुज़ारती हुई जिंदगी जैसे आज मुझको पल-पल आईना दिखाती है,
बेटी की सूरत में मेरे लिए उम्र भर तड़पती हुई मेरी माँ मुझे बहुत याद आती है I
By Varsha Rani

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