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परिचय की तलाश

By Manjeet Kumar



कण हूँ या सलिल हूँ , या कहने को अंत है ,

छाया सा में , या खोजत में खुद का आधार है ,

बंधा में अपने ही विचारों में , खोजता एक श्रृंगार है ,

अमृत जो आत्मसान हो , ऐसा एक परिचय की तलाश है। 


समाज उगलता ज़हर , दिन रात और पहर ,

शून्य को तिरस्कार करता , पर है तो एक झंकार ,

भटकन होती है आत्मचिनत्न को, कैसा फैला  अन्धकार ,

अब मुझे में है आग, करने को निकला में एक चमत्कार। 


एक वक़्त था जब ज्योति जलती थी ,

रात को एक विश्वास सी जगती थी ,

जीतने को कई बार मर चुकी थी ,

कुछ पाने को यह ज़िन्दगी आगे बढ़ चुकी थी। 


कहीं दूर एक कलि  मुस्कुरा उठी थी ,

काल इस जीवन में एक सुबह खिल चुकी थी ,

लहराते उसके बाल जैसे वन की बेसुध हवा थी ,

ज़ख्मो में मेरे जैसे कोई लेप थी। 


फिर वह जलन सी , अब मुस्कान में बदल गयी , 

जो हाय थी इस ज़माने की , अब मोहब्बत में घुल गयी ,

मिल गया था रास्ता एक मंज़िल का , एक ज्योति जल गयी ,

अब परिचय की तलाश थी , अब वह एक देवी में दिख गयी। 


मधुर जीवन अब परिचित हुआ, खुद का 

,व्यथा का भार जो ढोता था , अब उसके छुअन से कोमल हुआ ,

रुदन जो स्वर थी , अब उसमे एक गान का मिश्रण हुआ ,

नीरस जीवन में अब जाके एक स्वर्ण सुबह उदय हुआ। 


अब गर्व है खुद के जीवन पे ,  खुद के आत्मसम्मान पर ,

जग गया में एक सुबह , उसके आँचल , उसके आँखों के सुबह पर ,

कहती थी वह मुझसे जीतने को , इस समाज की आवेलेना भूलने को ,

परचम की और चला अब में , उसके हाथ में जग को रखने को। 


अब देखे भी मुझे यह विश्व घृणा से ,

प्रेमी में , कृष्ण में राधा का साथ में ,

पुजारी में उस प्रेमिका का अब वह साथ में ,

प्रकिमा लगाऊं में ऐसे उच्च आशीर्वाद से। 


अब सुनेगा गर्जन मेरी , परिचय की अंगार मेरी ,

युग धर्म को तैयार में , अब चाल में हुंकार मेरी ,

कर चला में अब असलियत को , मेहनत को ,

सब भूल अब जगत में एक पहचान बनाने को। 


अब बन बैठा प्रेम में एक अगन में ,

जो मौन था बन बैठा वह हुंकार में ,

संभाली मुझे प्रियतम ने वह संसार में ,

अब आगे बढ़ने को तैयार में। 


अब लाचारी को टांगा  मेने अलमारी में ,

उठाया किताब अब सपने पुरे करने को ,

आग जो थी अब ताप देती है ,

बन जाने को कुछ मुझे ललकारती है। 


सुध -बुध खोकर अब चला में आगे ,

मंज़िल पाने को छोड़ ज़माने को पीछे ,

हर दिन और रात आँखें जलती रही ,

सपने को साकार करने में कोशिश करती रही। 


अब जो सूखा रस , अब बुझी प्यास विष पी कर ,

निकट है अब मंज़िल , राजा की पदवी पाने को ,

अब आ गया है परीक्षा का वो दिन ,

अब आ गया है वक़्त कम हो गए अब दिन। 


मनुज-वंश के आँशु जो गिरे थे तिरस्कार में ,

गिरी जैसा मेरे ह्रदय टुटा , पाने को हर अधिकार में ,

अब आने वाला है वह पल जो सच होगा , 

बन के अधिकारी एक युग -निर्माण करना होगा।


अब समय -दूह में सिसकते गान अब मन को भाते ,

आज सफलता के वक़्त देखो वर्तमान नाचते आये ,

अब आएगा वह पल जब प्रियतम  संग वक़्त बिताये ,

देखो कैसे अब वही समाज शीश झुकाने को आये। 


अब रण सालों की अब बंद हुई ,

अब विराजे महाराज अपने सिंहासन पर ,

आहुति जो कुण्ड में थी सालों से ,

अब धड़क रही बन के अंगारों में। 


अब परिचय मिल गया मुझे एक अधिकारी का ,

संग में प्रियतम और इज़्ज़त पाता में वही समाज का ,

अब परिचय की तलाश खत्म हुई है ,

अब जाके ज़िन्दगी में एक मुकाम आयी। 


अब मेरे उठती दाह है , सम्मुख ये समाज का मरुथल है,

अकेला संसार में , जो एक परिचय को विकल है ,

अब बन जायेगा वह व्योम के बैठा चमकीला तारा ,

अब जीतेगा वह जो अब तक सिर्फ हारा। 


By Manjeet Kumar






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