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पचास रुपए

By Kratika Agrawal


एक कहानी का किरदार तब बहुत असरदार होता है जब उसे कही पहुंचना हो और कहा पहुंचना हो यह भी पता हो, न की जब वह भटक रहा हो। छोटी सी उम्मीद ही हमें आगे बढ़ने का हौसला देती हैं, हम कितने भी हो छूटे हाथ थाम ही लेतीं हैं।

अजीब हैं न हम खुद तो खोए हुए हैं पर हमें सुनना उसको हैं जिसे अपनी मंजिल के रास्ते का पता हों। तभी यह बात दिल को छू जाती हैं कि –

कितना अजीब हैं न

सूनते सब हैं

पूछते भी सब हैं

फिर भी शिकायत है

समझता कोई नहीं।

एक ऐसी ही कहानी हैं आरजू की, जो शुरू होती हैं एक अनोखी सोच से जहां वो सोचती थी कि वह इस दुनिया की सबसे खुशकिस्मत इंसान हैं जिसके पास सब कुछ है; बहुत प्यार करने वाले मां-बाप, मटरगश्ती करने के लिए भाई-बहन, ज़िद मनवाने को दादा-दादी, और एक बहुत बड़ा परिवार जो रहता तो उनसे बहुत दूर था पर दिल ऐसे मिले थे मानो एक ही घर में बसेरा हो।

आरजू एक 5 साल की छोटी लड़की, जो जिंदगी को अपने कैमरे की रील में कैद करती चलती हैं, और आज की तस्वीर उसकी खुशनुमा हैं क्योंकि उसे सब तरफ़ बुराई करने वाले लोग नज़र आते हैं, पर उसे किसी की बुराई नहीं करनी, क्योंकि उसे सभी लोग बहुत पसंद है। वो जैसे हैं वो हमेशा उन्हें वैसे ही देखना चाहतीं हैं, उसे हर सदस्य की अहमियत है और सभी रिश्तों से ही उसे बहुत मुहब्बत हैं।

स्कूल में उसके दोस्त अपनी दादी – नानी की बुराइयाँ करते हैं, घर में उसके चचेरे भाई बहन अपने मां-बाप की बुराइयां करते हैं, पर उसे न तो किसी से शिकायत थी और न ही उसे किसी में कोई कमी ही नज़र आती थीं। वो तो बस अपने उस बड़े से परिवार के साथ ढेर सारा वक्त बिताना चाहतीं थीं।

जब वह अपने गांव त्योहारों पर परिवार से मिलने जाते तो उसे इंतज़ार भी न होता, उसे लगता जैसे वो जल्दी से घड़ी के कांटों को आगे बढ़ दे क्योंकि उसके लिए वक्त तो जैसे कटने का नाम ही नहीं ले रहा था। और फिर जब कुछ दिन साथ रहकर लौटने की बारी आती, तो मन जैसे अंदर ही अंदर रो उठता।

पर कुछ दिनों में आदत हो जाती थीं और जिंदगी फिर हँस कर घुल मिल जातीं।

एक बार की बात थी, आरजू के बाबा ने उसके चचेरे भाई नंद किशोर को 50 रुपए दिए ( तब उनकी कीमत आज के 500 रु. जितनी थी), और कहा कि तुझे ये (समान की पर्ची देते हुए) सामान लाना है। पैसे ध्यान से रखना संभाल कर, कहीं गिरा न देना। नंद किशोर हिसाब में ज्यादा पक्का न था, डरते हुए उसने पैसे लिए और रुमाल के बीच में छिपाकर हिफाज़त से जेब में रख लिए। इधर आरजू भी खड़ी थी, पैसे रखने का मन उसका भी था, पर बाबा पहले ही नंद किशोर को पैसे दे चूके थे तो उसने कुछ कहा नहीं, और वह भी नंद किशोर के साथ बाज़ार सामान लेने चली गई।

आरजू यूं तो थोड़ी बातूनी थी पर वह किसी भी जिम्मेदारी को बखूबी ध्यान से निभाती थीं, दोनों रास्ते में हाथ पकड़कर गए। रास्ते में एक बंदर ने किसी की आम की थैली में हाथ मार दिया था, जिसकी वजह से सारे आम जमीन पर गिर गए थे। दोनों ने पहले मदद करने का सोचा, पर फिर पैसों की जिम्मेदारी ने उन्हें चलते रहना ही ठीक लगा, इस दौरान वो थोड़ा जल्दी में वहां से भागे थे।

दोनों हाथ पकड़कर दुकान पर पहुंचे और सामान की पर्ची जो आरजू के हाथ में थीं वो उसने दुकान वाले भईया को दी और कहा भईया ये सामान निकाल दो। दुकानदार ने पर्ची में पढ़कर सारा समान निकाल दिया, और कहा कि 46 रु. हुए। नंद किशोर ने पैसे निकालने के लिए जेब में हाथ डाला, तब तक आरजू ने बिल का टोटल कर लिया, जो कि ठीक था। इतने में नंद किशोर चिल्लाया कि पैसे गिर गए-पैसे गिर गए। इधर आरजू का दिल बैठ गया, दोनों को बाबा के गुस्से का डर सताने लगा क्योंकि बाबा ने बार बार कहा था कि संभाल कर रखों, और उनसे फिर भी रुपए खो गए। पहली बार बाबा ने इतने रुपयों का कोई काम बताया था और वो भी उनसे न हुआ, उपर से रुपए खोए सो अलग।

दुकानदार परिवार को जानता था, उसने कहां भी कि बच्चों तुम समान ले जाओ पैसे बाद में दे जाना, पर बच्चों ने सोचा कि रास्तें में ही गिरे होंगे पैसे अभी ढूंढकर वापस लाते हैं और फिर समान ले जाएंगे।

पूरे रास्ते कढ़ी निगाहों से बच्चों ने पैसे ढूँढे, वहां भी ध्यान से देखा, जहां बंद की वजह से वे दोनों तेज़ी से भागे थे, पर पैसे तो जैसे किसी सांप के बिल में जा घूसे थे, मिलने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बच्चों ने फिर कढ़ी नज़र रख कर दुकान के रास्ते की और मुख किया, दुकानदार ने बच्चों को आता देखकर पूछा मिल गए पैसे बच्चों, दे दूँ समान। पर बच्चों ने मायूसी से भरी आवाज़ में कहा नहीं भईया नहीं मिले पैसे, दुकानदार ने फिर कहां अरे बच्चों पैसे कल दे जाना, मैं समान पैक कर देता हूँ, पर आरजू ने बिना पैसे दिए समान ले जाना ठीक न समझा और फिर वो दोनों डरी हुई चाल से घर चले आए, पूरे रास्ते निगाहें ज़मीन पर ही थीं इसी उम्मीद में कि शायद किसी तरह कहीं तो उनके पड़े हुए पैसे मिल जाए और वह अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ले और घर जाकर बाबा की डांट से भी बच सके।

पर कोई चमत्कार तो होने से रहा जो गिरे हुए पैसे मिल जाते, खोए हुए पैसे वापस पाना किसी चमत्कार से तो कम नहीं, जो उनके साथ नहीं हुआ।




बाबा ने घर में घुसते ही पूछा, बच्चों इतनी देर कहां लगा दी? पास ही तो गए थ, 10 मिनट में जाकर वापस भी आ जाते, और तुम्हें तो आधा घंटा हो गया। कहाँ रह गये थे और ये क्या समान का थैला कहाँ हैं, वहीं भूल आये क्या?

दोनों की बोलती न निकली और बाबा चिल्ला कर पूछ रहे थे। जब नंद किशोर ने कुछ नहीं कहा और बाबा का चिल्लाना भी बंद नहीं हो रहा था तो आरजू ने डरते हुए अपनी जबान खोली और कहाँ कि बाबा हम समान नहीं लाए क्योंकि पैसे गिर गए थे।। बाबा की आँखें और लाल हुई और बाबा ने कहा – क्या कहा तूने, गिरा दिए पैसे – मतलब कहाँ गिरे और कैसे? फिर भी नंद किशोर डरा हुआ था और वह कुछ न बोला? बाबा ने ज़मीन पर फिर डंडा बजाते हुए उससे पूछा – कहां गिराए पैसे?

उसकी सिट्टी-पिट्टी गुल हो गई, उसने फिर घबराती हुई आवाज़ में कहां- बाबा पता नहीं, मैंने रुमाल के अंदर संभाल के रखे थे पर वहां जा कर देखा तो रुमाल खाली था। हम तो कहीं रुके भी नहीं थे, और फिर भी न जाने पैसे कहाँ गायब हो गए।

बाबा को और गुस्सा आया और फिर बाबा ने कहा – गायब हो गए, मतलब कैसे होंगे गायब, जेब खा गयी तेरी या कहीं खर्च कर दिए और तुम बता नहीं रहें हो? है, बोल? बोलता क्यों नहीं? बाबा ने नंद किशोर को एक डंडा जड़ दिया और पूछा कहाँ गए पैसे कोई जबाव हैं कि नहीं? बाबा ने नंद किशोर को डंडे से खूब मारा, तुम कोई काम के नहीं हो, तुम कुछ नहीं कर सकते जीवन में, तुम्हें तो कोई जिम्मेदारी देनी ही नहीं चाहिए। नंद किशोर ने बाबा की डांट से बचने के लिए यह कह दिया कि बाबा आरजू बहुत बातें कर रही थीं इसलिए मेरा ध्यान नहीं रहा, और वही बहुत तेज़ भाग रही थीं जिसकी वजह से मुझे भी भागना पड़ा क्योंकि हमने हाथ पकड़े थे, और शायद तभी पैसे गिर गए होंगे।

बाबा ने आरजू को भी भागने के लिए खुब चिल्लाया पर मार सिर्फ नंद किशोर को।

आरजू वहाँ बोली तो कुछ नहीं पर उसे लगा उसके बाबा ने उसे इसलिए नहीं मारा क्योंकि वह उनसे दूर रहती थी। उसका मन उस दिन बहुत खराब था एक तो पैसे घूमने की वजह से पर उससे भी ज्यादा ये सोचकर कि क्या उसके बाबा उसे अपना नहीं मानते जो उसे हक से नहीं डांटा जैसे नंद किशोर को डांटा थ और दूसरा यह देखकर कि उसके भाई नंद किशोर ने कैसे अपनी गलती का टोकरा आरजू के सर फोड़ दिया।

उसने कुछ ही पलों में न जाने कितने ही ख्याल बुन लिए थे जिनमें वो खुद ही उलझ कर रोते रोते सो गई। आज उसका मन यह सोचकर खिन्न था कि क्या सच में वो उस परिवार से दूर हैं जिसे वो इतना अपना मानती हैं, और क्या उसके बाबा अम्मा भाई बहन बुरा समय आने पर उसका ऐसे ही साथ छोड़कर चले जाएंगे। इस बात से उसे डर भी लग रहा था और बेहद तकलीफ भी हो रही थी और यही सब सोचते सोचते वो न जाने कब गहरी नींद की गोद में सौ गई।

वह इस डर को किसी से बांट भी नहीं सकती थीं और यह उससे सहन भी नहीं हो रहीं थीं। आरजू थी भले 8 साल की पर सोचती वो उन सभी लोगों से ज्यादा और गहरा थी जो उसके आसपास बड़े बन कर घूम रहे थे। नन्ही सी बच्ची के कंधों पर आज बहुत बड़ा बोझ था या फिर यूं कहो कि यह बोझ उसकी आत्मा पर था।

थोड़ी देर बाद आरजू सौ कर उठ गई, उसके पास नंद किशोर आया हस्ता हुआ। आरजू थोड़ा अचम्भीत थी, सो पूछ उठी कि क्या हुआ नंद बाबा कहा हैं और तू हंस क्यों रहा है? वो फिर खीखी करते बोला दुकान गए। उसकी आँखों में ज़रा तकलीफ न थी, यह देखकर आरजू खुश भी थी और दुखी भी, खुश थी क्योंकि उसे फिर से सब कुछ पहले जैसा लग रहा था, और दुखी इसलिए कि उसने इस बात को लेकर न जाने अपने मन में कितने ख्याल पका लिए थे। हालांकि सब कुछ पहले जैसा होने में कुछ वक्त तो लगता है, पर उसे आज एक बात और समझ आयी कि इतना सोचना भी कहाँ सही होता है।

शाम हुयी नहीं कि फिर क्रिकेट का बल्ला तैयार फिर वो पकड़न पकड़ाई और चोर पुलिस की मार।

बचपन में यही सब होता है यार। और सच बताऊं तो पूरी जिंदगी यहीं सब होता हैं, बात असल में इतनी बड़ी होती नहीं है जितना हम मन में सोच कर उसे बना लेते हैं। ये कच्चे धागे हैं रिश्तों के, ये ज्यादा सम्भालने के चक्कर में बहुत ज्यादा उलझ जाते हैं। हमें बस ध्यान रखना होता है कि हम किसी को अपनी जबान या व्यवहार से चौट न पहुंचा दें बाकी तो दिल में हर किसी को सामने वाले का हर चेहरा मालूम होता हैं। बस कभी-कभी कड़वे शब्द का ढेरा अक्ल और दिल को कमजोर भना देता हैं। वरना कौन यहां असल में किसी को दुख पहुंचाना चाहता हैं।

सोच और समझदारी अच्छी है

पर अत और लत तो हर चीज़ की बुरी ही होती हैं।


बाबा की वो मार जिम्मेदारी की सीख सिखाने के लिए थी, उन पचास रुपयों के मायने बच्चों से ज्यादा हरगिज़ नहीं थे पर जिम्मेदारी का सबक ज़रूरी था।

सबक वो सीख हैं

जिसकी कीमत तब तक चुकानी होती है

जब तक उसे तुम सीख न जाओ।


By Kratika Agrawal





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