दुष्प्रवृत्त पालन-पोषण: बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर एक अदृश्य घाव
- Hashtag Kalakar
- Aug 11
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By Preetika Gupta
आज का युग चकाचौंध और प्रतिस्पर्धा से भरा है। हर माता-पिता अपने बच्चे को सबसे आगे देखना चाहते हैं, उन्हें हर सुविधा प्रदान करना चाहते हैं। लेकिन इस अंधी दौड़ में कहीं हम अपने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को दांव पर तो नहीं लगा रहे? दुष्प्रवृत्त पालन-पोषण, जिसे अक्सर हम 'कठोर' या 'अनुशासनहीन' कह देते हैं, वास्तव में बच्चों के कोमल मन पर एक अदृश्य घाव छोड़ जाता है, जो उनके भविष्य को अंधकारमय बना सकता है।
सोचिए, एक बच्चा जो लगातार आलोचना का शिकार है, जिसकी हर छोटी गलती पर उसे डांटा जाता है, शर्मिंदा किया जाता है। उसके मन में क्या भाव पनपेंगे? आत्म-संदेह, डर और हीनता। वह कभी भी अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पाएगा क्योंकि उसे हमेशा असफल होने का डर सताएगा। ऐसे बच्चे अक्सर अपनी बात खुलकर कह नहीं पाते, वे अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं और अपनी भावनाओं को दबाने लगते हैं। यह दमन आगे चलकर चिंता, अवसाद और अन्य गंभीर मानसिक बीमारियों का रूप ले सकता है।
कुछ माता-पिता सोचते हैं कि बच्चों को मारना-पीटना या कठोर शब्दों का प्रयोग करना उन्हें 'अनुशासित' बनाता है। यह सरासर भ्रम है। शारीरिक दंड से बच्चे डरते तो हैं, लेकिन भीतर से वे टूटने लगते हैं। उनमें आक्रोश, विद्रोह और हिंसा के बीज बोए जाते हैं। वे सीखते हैं कि समस्याओं का समाधान बल से किया जाता है, न कि संवाद या समझदारी से। ऐसे बच्चे बड़े होकर या तो बहुत आक्रामक हो जाते हैं या फिर दूसरों के सामने अपनी बात रखने में अक्षम।
इसके विपरीत, अत्यधिक लाड़-प्यार और हर मांग को पूरा करना भी उतना ही हानिकारक है। जिन बच्चों को कभी 'ना' सुनना नहीं आता, वे जीवन की चुनौतियों का सामना करने में असमर्थ होते हैं। उनमें धैर्य, सहनशीलता और दूसरों की कद्र करने की भावना विकसित नहीं हो पाती। छोटी सी निराशा भी उन्हें तोड़ देती है और वे वास्तविकता से दूर भागने लगते हैं। ऐसे बच्चे अक्सर आत्म-केंद्रित और अहंकारी होते हैं, जो समाज में घुल-मिल नहीं पाते।
सबसे खतरनाक प्रवृत्ति है बच्चों को 'सफलता की मशीन' समझना। उन्हें अपने अधूरे सपनों का बोझ ढोने पर मजबूर करना। मार्क्स, रैंक और प्रतियोगिता ही सब कुछ बन जाती है। कला, खेल, संगीत, रचनात्मकता... ये सब बेकार लगने लगते हैं। ऐसे माहौल में पला-बढ़ा बच्चा भले ही शिक्षा में अव्वल आ जाए, लेकिन वह भावनात्मक रूप से खोखला होता है। उसे जीवन का सच्चा आनंद कभी नहीं मिल पाता। वह एक रेस का घोड़ा बनकर रह जाता है, जिसे सिर्फ दौड़ना आता है, जीना नहीं। तनाव, अनिद्रा और आत्मघाती विचार ऐसे बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
हमें समझना होगा कि बच्चे कोई मिट्टी के खिलौने नहीं हैं जिन्हें हम अपनी मर्जी से ढाल सकें। वे संवेदनशील इंसान हैं, जिनकी अपनी भावनाएं, अपनी इच्छाएं और अपनी पहचान होती है। एक स्वस्थ मन वाला बच्चा ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है। हमें उन्हें प्यार, सुरक्षा, सम्मान और समझने का माहौल देना होगा। उन्हें अपनी गलतियों से सीखने का मौका देना होगा, उन्हें स्वतंत्र रूप से सोचने और अपनी रचनात्मकता को व्यक्त करने की आजादी देनी होगी।
समाज को इस विषय पर गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है। माता-पिता को शिक्षित करना होगा कि कैसे एक संतुलित और सकारात्मक पालन-पोषण बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि शारीरिक स्वास्थ्य। आइए, हम सब मिलकर एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करें जो न केवल सफल हो, बल्कि मानसिक रूप से भी स्वस्थ, खुश और संतुलित हो। तभी हमारा समाज सही मायने में प्रगति कर पाएगा।
By Preetika Gupta

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