दरवाज़े और प्रश्न
- Hashtag Kalakar
- Aug 6
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By Mukta Sharma Tripathi
।। भाग-1 ।।
तुम्हारे तिक्त शब्दों के उत्तर में
मैंने जो चिटकनी जिस चिटक से चढ़ाई थी।
वो उसी वेग से
उसी समय उतार भी दी थी।
पर तुमने देखी नहीं।
तुम्हारे गुस्से ने एक तो सुनी
मगर दूसरी को सुन कर भी
अनसुना कर दिया था शायद!
तुम अगर मुझे जानते तो समझ पाते कि
मैंने तो किसी दूसरे-तीसरे पर भी
कभी किवाड़ बंद नहीं किए थे।
क्योंकि ऐसा तो मेरी फितरत में ही नहीं है।
तो तुम पर मानो खुद पर
मैं कोई किवाड़ कैसे बंद कर सकती थी?
वार्ता के सम्पर्क कैसे जड़ कर सकती थी?
तुम मुड़ कर देखते तो देख पाते!
कि जो दरवाज़ा धम-से थम गया था
अपनी चौखट की दहलीज़ पर।
वो तो चौखट को छू कर वापिस खुला था।
जो कि अब भी वहीं ज्यों का त्यों है।
बंद दरवाज़े दूर से बंद ही रहते हैं।
मगर कभी मुड़कर देख पाते
कि हवा, रौशनी सब
बेरोकटोक, स्वतंत्र थे
और अब भी हैं।।
।। भाग-2 ।।
मैं नज़र गढ़ाए
रश्मि सैनिकों को युद्ध करते अंदर आते।
धूल कणों की लहरों को भंवर सजाते।
जाड़े की सर्दी को चिल्लाते।
देखती, सहती थक चुकी थी।
पर ना-उम्मीद
नहीं, कभी नहीं।
शायद इसी लिए आज
जब दरवाज़े के तल से आती
तुम्हारी परछाई को
कुछ प्रश्नों में उलझा देखा
तो व्यथित मौन-प्रतीक्षा को तोड़
आगे बढ़ने लगी।
परन्तु प्रश्नों का समुद्र
केवल उधर ही नहीं
इधर भी गोते लगा रहा था।
मगर डूबने का अनुभव इस बार स्वीकार नहीं।
इसलिए जैसे ही मैंने
दरवाज़े की ओट-से तुम्हें देखना चाहा।
तो निर्जीव चैतन्य हो गया।
दुश्मन दोस्त बन गया।
सारे प्रश्न खुद-ब-खुद सुलझ गए थे।
मेरे केश तेरी शर्ट के बटन में उलझ गए थे।।
By Mukta Sharma Tripathi

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