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ख्वाब

By Urvashi


ना जाने सुबह के उजालों से कही ज्यादा ये अंधेरी राते क्यों पसंद आती हैं? यूं तो उन पंछियों की चहचहाट दिल को बहुत भाती है। पर फिर भी दिल ए फरियाद ये खुद में सिमटी शामे ही चाहती है।

उस शाम भी बस बैठ कर मैं कुछ लिख रही थी । जि़दगी के बिखरे पन्नों को एक कोने में अकेले बैठ कर ख्वाबों के कच्चे धागों से सिल रही थी। लिखते लिखते वक्त का कुछ अंदाजा ही न रहा और मेरी हयात की बिखरी किताब को कुछ समेटा था तो कुछ बिखरी ही रह गई।

कहते हैं रातों को देखे हुए ख्वाब हमारे दिल के किसी कोने में दबी एक चाहत होते हैं पर उन पर हमारा कोई जोर नहीं चलता फिर भी जो हकीकत नहीं बन सकता उसे मैं ख्वाबों में पाने एक सैर पर निकल पड़ी जहां वो था मैं और एक कागज़ का सफेद परिंदा।

वो परिंदा भी कुछ मेरी ही तरह था। बहुत खूबसूरत से पाक सफेद पंख लिए आंखों में उड़ान की चाहत लिए मगर उन कागज़ के पंखों की हकीकत से वाखिब। वो भी बस आसमान की ओर देखता अपने ख्वाबों में था।

ख्वाब इजाज़त देते हैं हर किसी को खामोशी से हर पागल पन हर ऊंचाई को जीने की, तो शायद वो भी जी रहा था ।




मैं शांत बैठी बस उस बेजान परिंदे के खूबसूरत पंखों को देख रही थी की तभी एक धीमी सी आवाज मेरे कानो मैं नरम लहज़े के साथ पड़ी, क्या देख रही हो? मैं पलटी तो देखा वो पीछे खड़ा मुझे एक तक नजरों से देख रहा था। मैं बिना कुछ कहे पलटी और फिर उस परिंदे की ओर देखने लगी और वो मुझे ।

ऐसा लग रहा था मानो मुझे पढ़ने की किसी ना काम कोशिश मैं लगा हो। कुछ देर देखते रहने के बाद वो कुछ करीब आया उस बेजान कागज़ के परिंदे को अपनी गुलाबी सी बेहद मुलायम हथेलियों से उठाया और मेरी और देख कर कहा , जादू देखोगी?

जादू तो उसकी मुस्कुराहट मैं भी था याकीन मानिए मगर उसके हाथों मैं न जाने क्या था की उसके छूटे ही वो परिंदा जी उठा और आसमान मैं बादलों के बीच उड़ता उड़ता उन्ही के बीच कहीं खो गया। ऐसा लगा मानो बस उसी के सपर्श का इंतजार था उस परिंदे को।

मैं उसे बस एक तक नजरों से देखती ही रही । ना जाने क्यों नजरें हटाने का मन न था। वो मुस्कुराया और कहा क्या देखे रही हो ? मेरी और झुका और धीमे से कहा ख्वाब सच भी होते हैं मोहतरमा।

मेरे बगल मैं बैठते हुए बहुत नजाकत से मुझे बाजुओं से थमा कुछ देर देखा और मेरे बालों को सहलाया, मानो हर चिंता जनता हो मेरी। मुझे पता ही न चला की मैं कब उसकी बाहों मैं सो गई । उस सर्द सी शाम मैं उसकी गर्माहट बहुत सुकून दे थी। अचानक एक ठंडी हवा का झोंका आया और मेरी नींद खुली देखा तो चारों और मेरी अधूरी किताब के पन्ने बिखरे पड़े थे। घड़ी साढ़े पांच बजे का वक्त दिखा रही थे। मैं उठी चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान लिए उन पन्नों को समेटा और फिर छत पर एक प्याली चाय संग उस सफेद परिंदे को ढूंढने की आस ले कर गई। वो परिंदा तो मुझे कहीं न दिखा पर वो आवाज़ मेरे कानों में रह गई।

ख्वाब सच भी होते हैं।

तो कुछ इसी तरह सुबह क उगते सूरज संग मेरी दोस्ती हुई, तो अब रोज सुबह चली जाती हूं छत पर उस परिंदे को देखने की आस में। और अपने सपनों की उड़ान का कद तह करने ।


By Urvashi



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