खोजी मन..
- Hashtag Kalakar
- Apr 14, 2023
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By Anurag Shukla
कहां को मैं जा रहा हूं?, किसको खोज रहा हूं?, और किस लिए खोज रहा हूं? और क्या करूंगा? इन सबका! आखिर ये खोजने वाला है कौन? ये पगला मन! यह ढूंढता फिरता रहता है की कहीं मुझसे कुछ ऐसा ऊंचा और नया विषय या फिर ऐसा कोई राही मार्गदर्शक मिल जाए, जहां मेरी सारी प्रकृति ही सुधर जाए।
लगातार वह खोजने के लिए बड़ा उत्सुक रहता है। वह अपने ढर्रों में नहीं जीना चाहता क्योंकि वह जानता है की जिस स्थिति में अभी मैं हूं उसी स्थिति में फंसा रह जाऊंगा। वह स्वयं को परखना चाहता है, जानना चाहता है और वह किसी ऐसी ऊंची चीज से टकराना चाहता है जहां उसे टुकड़ों टुकड़ों में बिखेर दे। और बिखरने के बाद वह किसी ऐसी ऊंची चीज से जुड़ना चाहता है जहां उसकी सारी अपूर्णता पूर्णता में बदल जाए। जब वह किसी ऊंचे ग्रंथ के पास जाता है, तो वहां भी वह लगातार प्रश्न पर प्रश्न करता जाता है, की आखिर सत्य है क्या? और मेरा मूल स्वभाव क्या है? वह अर्थात मन बड़ा विवेकी और चंचल भी है। ये भी कह रहा है, की ऐसे कैसे मान लूं बिना प्रयोग किए। भले ही तुम ऊंचे हो, मुझसे लेकिन तुम्हारे निकट ही आके सवाल करूंगा। और ये मन इस स्थिति में भी अपने को बड़ा मान के कह रहा है की भले ही जगत को मेरी स्थिति का अस्तित्वपन बहुत सूक्ष्म लग रहा है लेकिन सारे जगत का जो दृश्यगत अस्तित्व है, यह मेरी उपस्थिति इस नाशवान शरीर के द्वारा उसके भीतर चेतना बनके ही यह सब कुछ दृश्यमान संभव हो पा रहा है।
यह मन स्वयं से ही बातें कर रहा है और स्वयं से प्रश्न करके स्वयं को उत्तर भी दे रहा है। यह विचलित और अविचलित मन की दोनों दशा हो सकती है। वह बाहरी अर्थात संसारी विषयों के आवरण से घिर चुका है, लिप्त हो चुका है। वह अपने अस्तित्व को ही नहीं पहचान पा रहा है इसलिए वह तड़प रहा है। शायद वह कभी तड़पता भी नहीं इन आवरणों में घिर कर। ये तड़प उठी कैसे? यह उसकी जानने और उठने की तड़प का कारण कोई न कोई एक विशिष्ट कारण जरूर हो सकता है। जिसने उसके भीतर एक चिंगारी पैदा कर दी और उसे एकदम मजबूर कर दिया। जब वह अचानक एक पल के लिए अपनी दशा देखा तो वह एकदम निचले तल पर फंसा हुआ था। वह हैरान! और अचंभित हो गया की मेरे चारों तरफ कई घटनाओं और विषयों के आवरण का परदा छाया हुआ है? तत्काल! उसके भीतर सभी निर्थक विषयों से मुक्ति की एक लहर पैदा हो गई।
जिस क्षण उसके भीतर सभी आसक्तियों से निर्लिप्त होने का भाव उत्पन्न हो जाता है तत्पश्चात वही मन अपने आप को यह करके संबोधित करने लगता है की मैं सिर्फ एक स्वतंत्र चेतनयुक्त इकाई हूं।
मैं ब्यर्थ के संसार के रचे गए बंधनों में फंसा हुआ हूं। इन सब विषयों की आसक्तियों से अपनी मूल स्वरूप को नहीं खोना है। रहना तो है, इस प्रकृति में शरीर में एक चेतना बनके ही लेकिन धूमिल सा नहीं रहना है। ये सारी घटनाएं मनुष्य के भीतर ही चल रही है, मन के रूप में। यहीं से व्यक्ति की अध्यात्म की शुरुआत होती है, जब उसका व्यथित मन सांसारिक वस्तुओं से विरक्तता और स्वयं को जानने की खोज की यात्रा में निकल लेता है।
अपने जानने को प्रश्न से ही वह जैसे जैसे इस यात्रा में आगे जानें लगता है तो वह सबसे पहले भाग कर तुरंत उच्चतम ग्रंथों के पास आता है। क्योंकि अब वह जान चुका होता है की मेरी इस यात्रा की असली मंजिल और असली आनंद भी यही है। मुझे अब और कहीं नहीं भटकना है। न कुछ पाना है और न ही कुछ खोना है। बिलकुल स्थिर हो जाना है, ठहर जाना है। ये जो ठहरना है, बहुत कुछ पाने की चाहत रखने वाले गतिमान मन की अपेक्षा से कहीं ज्यादा गतिमान ठहरा हुआ मन है। वो पहले से ही पहुंचा हुआ है। ठहरे हुए मन की गति प्रकाश की गति से भी तेज है।
By Anurag Shukla

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