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क्षितिज का आवरण

By Rishu Maharaj 'Yatharth'


आज के इस दौड़ते-भागते समय में जहाँ शादियाँ सिर्फ़ एक विकल्प बन कर रह गईं हैं, और प्रेम केवल लेफ़्ट/राइट स्वाइप, ब्लॉक और मूव ऑन जैसी शब्दावली तक ही सीमित होकर रह गया है, ऐसे में आजकल रिश्तों के मध्य पनपती भावनाओं की तहों का उचित मूल्यांकन भी दुष्कर प्रतीत हो रहा है। रही बात समर्पण और त्याग की, तो उसे भी लोग आजकल मौलिक अधिकार और अभिमान के चश्मे से देखने लगे हैं।

पर प्रेम का वास्तविक चरित्र कभी भी ऐसा नहीं रहा, उसने तो सदैव ही परिस्थितियों की अग्नि में तपकर अपने अस्तित्व को कुंदन सा पवित्र सिद्ध किया है।


बहरहाल, ये बात कुछ दिन पहले की है, जब मैं अपने एक करीबी मित्र के साथ शहर की राजकीय लाइब्रेरी गया था, और वहाँ शेल्फ़ों के बीच अनगिनत किताबें टटोलते-टटोलते अंततः मेरी नज़र एक शेल्फ़ के कोने में धूल फाँकती उस किताब पर पड़ी जिसपर मोटे अक्षरों से लिखा था "क्षितिज का आवरण"

किसी अप्रसिद्ध लेखक के द्वारा लिखी गई उस किताब का शीर्षक और प्रस्तावना दोनों ही आकर्षक लगे मुझे, परंतु जैसे ही मैंने पढ़ने की इच्छा से उस किताब को उठाया, के तभी उसमें से एक बड़े कागज़ का मुड़ा हुआ टुकड़ा निकलकर फ़र्श पर गिर गया, मुड़े हुए उस कागज़ के टुकड़े को खोलकर देखा तो पता चला की वो एक ख़त था, जो देहरादून से किसी सारिका नाम की स्त्री ने किसी अविदित नाम के शख़्स को लिखा था, जो कुछ इस प्रकार था।


देहरादून

०७ सितंबर २००१


प्रिय अविदित,


हमेशा की तरह तुम्हारा पिछला ख़त देर से प्राप्त हुआ मुझे, मैंने भी सोच रखा था कि अबकी बार मैं भी कोई ख़त नहीं लिखूँगी तुम्हें, और इसी खीझ में मैं पोस्ट बाबू को भी बहुत बुरा भला कह आई, पर न जाने मोह का ये कैसा अटूट बंधन है जो तुमसे नाराज़गी में भी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ना चाहता।

वैसे तुम्हें पता है, जब से तुम मेरे शहर होकर गए हो न तब से यहाँ की नदियाँ, पहाड़, झरने, झील सब पर तुम्हारा ही जादू है, वो तमाम रास्ते जहाँ से गुज़रे तुम, मेरे घर का पता पूछते-पूछते, अक्सर छेड़ते हैं मुझे तुम्हारा नाम लेकर, और मेरा भी चेहरा अक्सर शर्म से गुलाबी हो जाता है उनकी ये हँसी-ठिठोली सुनकर।

एक बात पूछूँ तुमसे, "क्या तुम सचमुच कोई जादूगर हो?"

जानते हो आजकल मैं भी वैसे, अलकनंदा और भागीरथी की तरह द्रवित हो यूँ ही बहने लगती हूँ, मन की वादियों में कहीं, मेरे स्नेह की गंगा इन पहाड़ों से अक्सर पूछती है हमारे सागर संगम का पता।





पर तुम्हें पता है, तुम बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगे थे मुझे उस रोज़, जब हम पहली बार मिले थे एक दूसरे से शहर के गाँधी पार्क में, और वो शाम हमने यूँ ही गुज़ार दी थी पार्क की बेंच पर बैठे-बैठे, न तुम कुछ पूछ पाए उस रोज़ मुझसे, न मैं कुछ कह पाई, और प्रेम किसी अनकहे झिझक सा तीन घंटों तक टटोलता रहा ख़ामोशियाँ हमारी।


तुम न, बिल्कुल मुझ जैसे हो, बाहर से अंतर्मुखी, पर मन से सबसे ज़्यादा बातें करने वाला। भले ही तुमने पुरुषों वाली शरीर और कद-काठी पाई है, पर तुम्हारा अंतर्मन बिल्कुल किसी स्त्री सा सौम्य और कोमल है, और शायद यही वो बात है जो अक्सर मुझे खींचती रही है तुम्हारी ओर।

वैसे वो काली शर्ट तुमपर बिल्कुल नहीं जँचती उसे मत पहना करो, तुम जैसे मौन सरीखे लड़कों पर तो प्रेम का चटख रंग ही फ़बता है।


जानते हो मैंने अपने मन के कैनवस पर इन दिनों उकेरा है अपने समर्पण के सुर्ख़ रंगों से प्रीत का एक समूचा ब्रह्मांड, और सजा रखी हैं अनंत आकाशगंगाओं सी तुम्हारी अनगिनत रुबाइयाँ, वो जो तुम लिखते हो और वो भी जो तुम लिख नहीं पाते कभी।


मैं नहीं जानती के नियति ने हमारे इस रिश्ते का क्या भविष्य तय कर रखा है, बस जानती हूँ तो केवल इतना ही के मुझे तुमसे असीम स्नेह है, ठीक वैसे ही जैसे अक्सर पहाड़ों को हो जाता है प्रेम समंदरों से, और तुमसे मेरा ये अपरिमित स्नेह किसी हालात और परिस्थितियों का मोहताज नहीं।


बस इतना याद रखना के भले ही मेरे अस्तित्व का उद्गम इन पहाड़ों में क्यूँ न हुआ हो, परंतु एक रोज़ तुमसे मेरी आत्मा का संगम सागर के उसी निजधाम में होगा, जहाँ से क्षितिज का आवरण नीला नहीं बल्कि सुर्ख़ दिखता है और तब तक मैं प्रतीक्षा करूँगी इस ओर, तुम्हारी उन सभी प्रेम पातियों की, वो जो अक्सर देर से पहुँचती हैं मुझ तक।


तुम्हारी संगिनी

सारिका



ख़त का सार जितना मर्मस्पर्शी था, उतना ही अप्रत्याशित था मेरे लिए उस किताब के लेखक का नाम जो किताब के मुख्य पृष्ठ के दाहिने ओर, छोटे अक्षरों में लिखा था।

"दीपेश त्रिपाठी 'अविदित'"



By Rishu Maharaj 'Yatharth'





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