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क्या चमत्कार ही सनातन है?

By Anurag Shukla


मैंने एक दृश्य जागृत युवा समाज की भी देखी है। जो सनातन को जानने के लिए लगातार अतिउत्सुक हैं। और यह अंधभक्त समाज के लिए एक उदाहरण भी है, जो समाज अपने आप को हिंदू बोलता है की हम सच्चे सनातनी हैं। जब तक वो ऊंचे ग्रंथों के पास नहीं जाता है, न बैठता है, न पढ़ता है और न ही समझता है, तब तक वह समाज सच्चा सनातनी कभी नहीं हो सकता। सनातन का अर्थ है की जो सर्वकालिक कालातीत सत्य है। उसको तो हमने कभी जाना ही नहीं, तो आखिर सनातनी कैसे हो जायेंगे? इस प्रश्न पर विचार जरूर करें।


हम (समाज) गलती पर गलती अब भी करते जा रहे हैं, जरा ठहर कर हम विचार कभी किए ही नहीं की क्या सनातन का नारा ही काफी है? की इसके आगे और भी कुछ है, जहां पूर्णता है, जहां असली समझ है और जहां बोध है। हम तो सिर्फ कामनाओं की पूर्ति के लिए सनातनी हैं। कौन पढ़े इतना बोझिल और कठिन विषय। हम तो सिर्फ चमत्कारों में विश्वास रखते हैं। अगर कोई बाबा आ जाए सनातनी का मुखौटा पहनकर और तुमसे तुम्हारे भविष्य की बातें और इच्छाओं की पूर्ति की बातें करने लग जाए तो तुरंत तुम उसके गुलाम बन जाते हो। अब ये मत कहने लग जाना की ये तो मेरी श्रद्धा है और मेरी भक्ति है। जीवन भर तुम श्रद्धा और भक्ति कभी नहीं ला पाए और दो मिनट में तुरंत आ गई, वाह! ये तुम्हारे भीतरीपन का अंधकार है, सफेद झूठ है और तुम अपने आपको एक गहरे धोखे में डाल रहे हो। जो तुम्हारी समझ से बाहर है। ये तुम्हारी श्रद्धा नहीं थी, समझो! उसे, तुम अभी बहुत बहुत भूखे हो, तुम्हे अपने वृत्तियों का भरण करने के लिए कुछ चाहिए इसलिए तुम गुलाम हो गए, बाबा के चक्कर में।


तुम्हारा ये जो विचलित मन है, तुम्हे ये हमेशा एक गहरे अंधविश्वास में डाले रखे रहता है और तुम्हारी बुद्धि उसे कभी समझ नहीं पाती इसलिए तुम उस गहरे अंधविश्वास के गड्ढे में फंसे रह जाते हो, सदा के लिए। क्योंकि तुमने कभी अपने मन को गहरी शिक्षा दिया ही नहीं, उसे बोध से हमेशा दूर ही रखा, तो कहां से तुम आत्मज्ञानी बन पाओगे? क्योंकि तुम सदैव सही और शुभ चीज से तो दूर ही रहे। और इसी कारण हमारे निर्णय सब उल्टा पुल्टा के होते हैं, एकदम निर्थक और बेहोशीपन के।



आज तक इस समाज में ऐसा कोई चमत्कारी बाबा कभी दिखा ही नहीं जो उपनिषद और वेदांत की असली बाते करता हो। और समाज में जन जन तक उसका सही अर्थ का विश्लेषण करता हो। क्योंकि उसके समझ से परे है, ये सब चीज, उसने जीवन में कभी ग्रंथों को समझा ही नहीं, सिर्फ ऊपर ऊपर की चीजें उठा ली और रट ली और जो की वो वेद में वे सब बातें सांकेतिक तौर बताई गई थी, उस समयानुकूल, जिसमें प्रकृति में साधारण मनुष्यों को जीने के लिए प्रतीकों के रूपों में ये सब मात्र एक साधन भर थे। वेदों में तो प्रकृति पूजा और कर्मकांड ये सब प्राकृतिक स्तर पर चर्चाएं की गई हैं। अगर हम उससे आगे की बात करें, जो वेदों की श्रृंखला हैं, लेकिन वे बहुत ऊंचे हैं, जिसे वेदांत कहते हैं।

वेदांत जो उच्चतम और बोध से परीपूर्ण है, जिन्हे उपनिषद कहते हैं। वेदों का वेद, वेदांत जिन्हे उपनिषद के नाम से जाना जाता है।


उपनिषद जैसे उच्च ग्रंथों को पढ़ने के बाद जब कोई तुम्हारे सामने ये सब चमत्कार और अंधविश्वास जैसी बातें करने लगेगा तो तुम्हे एकदम झूठी, घटिया और बेहूदापन लगेगा। क्योंकि तब तक तुम सत्य की प्रयोगशाला में परीक्षण से गुजर चुके होते हो। इसलिए अंतिम परिणाम साफ एवम सही आता है। तब तुम्हारी ये सारी इंद्रियां चीजों को सही परखने और निर्णय लेने में भी सक्षम हो जाती हैं। और इसी अनवरत यात्रा का जीवनभर चलना ही अध्यात्म है।

क्योंकि की तुम अब अपनी पूर्णता को पूर्णतः समझ और उसका अध्ययन कर चूके होते हो। जिसके उपरांत धीरे धीरे इस संसार अर्थात इस प्रकृति से भी आगे जा चुके होते हो।


उपरोक्त विश्लेषण के संदर्भों में कहें तो हम ग्रंथों का अध्यन करके अपने जीवन का गुरु स्वयं बन सकते हैं। हमें किसी बाहरी गुरु की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हमारे भीतर शिष्य और गुरु दोनों विराजमान हैं। अहंभाव का मीट जाना ही शिष्यत्व है।और शिष्यत्व का भाव ही हमे अपने जीवन का गुरु बनाता है। और अन्ततः यही सनातन हमारे जीवन की मुक्ति का मार्गदर्शक बनता है।


By Anurag Shukla




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