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कभी कभी

By Kavita Bhatt


खालीपन की क्या कोई सीमा या परिधि होती है, यदि होती है तो कितनी? और अगर कोई परिधि नहीं होती है तो कितने खालीपन को खालीपन मान लेना चाहिए I इन सभी का जवाब खोजने एक बंद कमरे में खड़े होकर देखा जहाँ कुछ भी नहीं था सिवाय एक खिड़की और एक दरवाज़े के ी क्या उसे खाली मान लेना सही था, खैर कुछ क्षणों के लिए खिड़की से आती धूप, रोशनी, हवा और दरवाज़े से आते जाते ज़िन्दगी जीने के नए आयाम को हटाकर एक पल के लिए सोचा सब कुछ बंद है I तो क्या सब कुछ बंद हो जाना खालीपन है, अब उन सब में क्या है जो वस्तु है या सोचने के लिए है I इन सबके बीच भी मेरे विचार अनवरत खुद को आज़ाद होने का सोच रहे थे कि कैसे समय और वक़्त के धागे तो तोड़कर अपने नए समय कि सुई से अपना आने वाला सुनहरा कल पिरो सकूँ I यानि कि खाली तब भी कुछ नहीं था I तो फिर क्यों इतना जरुरी होता है हमें कि हम बार बार विश्लेषण करे खुद का और खुद को खाली करें ,क्या खाली होने का मतलब सिर्फ रिक्तता है, दुःख है, अवसाद या पीड़ा या फिर नयी उर्वरता के लिए ज़मीन खोदने जैसा जिसमें से बेमूल्य मिटटी कंकड़ पत्थर को हटाकर आशा के नए बीज ड़ाल सके I खाली होना एक नकारात्मक विषय नहीं है, खाली होना या कभी कभी जानबूझकर कर खुद को खाली करना भी आवश्यक हो जाता है ताकि अपने व्यक्तित्व का नया पौंधा बो सके जो सड़-गल गया उसका कैसा मोह, जो चीज़ हमारे शरीर रूपी एवं विवेक कि ज़मीं का सही इस्तेमाल नहीं कर रही हो, उसे हटाकर, उसके अस्तित्व का जड़ से हटाकर उस जगह का खाली करके खुद के सकारात्म स्वरुप के बीज बोना ही श्रेयस्कर है I


बंद कमरे में खड़े खड़े खालीपन के एक और पहलू पर नज़र पड़ी और वो थी रिक्तता की I खालीपन को अक्सर हम लोग अपने अपने जीवन में रिक्तता मान लेते हैं और कई बार उसी रिक्तता को पूरा जीवन भी मान लेते हैं I परन्तु उस वक़्त लगा अपने जीवन के एक हिस्से में थोड़ी रिक्तता रखनी चाहिए वो जरुरी है क्यूंकि जब तक पूर्णता का एहसास है आगे चलने की चाह ख़तम हो जाएगी और जो रिक्त है उसको प्राप्त करने की चाह में हम मानव अपने को और पहचान पाते हैं I कभी कभी जीवन हमें रिक्त रखता है और कभी कभी हमें खुद को रिक्त करना चाहिए I और रिक्त होते वक़्त हर वो लिबास उतारना जरुरी हो जाता है जो आडम्बरी है और जीवन के सही मूल को सही आवरण नहीं देता है I रिक्त होते वक़्त अभाव का एहसास होगा, स्थिरता पर प्रश्न चिन्ह लगेंगे परन्तु ऐसे में जो सबसे सुखद होगा वो है नयी स्वछंदता रूपी प्राण वायु जो धीमे धीमे सभी संकुचित और सुकड़ी आशाओं,परिश्रम की कोशिकाओं को खुलने में मदद देगा और विजय का कंठ उस रिक्तता में भी नए सुर और गीत सजायेगा I वो रिक्तता अब जगह दे रही है उस प्राण-वायु को जो आत्मा के भीतर कुंठित भावों को बाहर फेंक देगी और खुले विचाओं की ऑक्सीजन मानों जीवन गति को और संयमित तरीके से संचारित करेगी I और हमारा व्यक्तित्व एक बुलंद भविष्य के नए परिधान ओढ़ता है I





फिर थोड़ी देर के लिए मैंने खिड़की को समक्ष रखा और मान लिया उसका अस्तित्व मेरी कल्पना के बाहर जैसा कि मैंने पहले सोचा था खालीपन को पूर्ण रूप से समझने के लिए I तो जीवन में खिड़की या दरवाज़ा अवश्य होता है क्यूंकि अगर वो नहीं होता तो खालीपन के कमरे में जाने कि सम्भावना ख़तम हो जाती हैं तो ऐसे में खालीपन तक हम पहुंचे कैसे, जरूर कोई मार्ग रहा होगा कोई भी माध्यम रहा हो फिर जब आकांक्षाओं के घेरे के बाहर कदम रखा तो खुद को अपाहिज पाया और दरवाज़े का इस्तेमाल करना भूल गए और वहीँ पड़े पड़े सोचते रहे कि जीवन कितना नीरस और खाली हो गया है I और पास ही की खिड़की और दरवाज़े को खोलने की कोशिश नहीं करते हैं या फिर उम्मीद लगता हैं कि कोई आकर हमारे लिए पट खोल दे पर नहीं अक्सर अपने जीवन की अनुक्रमणिका को खुद ही टटोलना होता है कि कहाँ तक हमने सही से मनन कर जीवन की किताब पढ़ी भी और सही से लिखी भी और कहाँ से अधूरापन आया और क्यों पन्ने रिक्त होते चले गए I यहाँ थोड़ा बहुत झगड़ा भी खुद से करना पड़ता है अपने बनाये खुद के सिद्धातों से क्यूंकि जंग तो खिड़की या दरवाज़ा खोलने की है ताकि बाहर जाकर पूर्णता की खोज हो I पूर्णता कभी नहीं मिलती है पर हाँ मानस पटल पर एक एहसास जरूर उकेरती है की हमने चेष्टा की उस खालीपन या रिक्तता से बाहर आने की जो की वास्तव में हमारा अवसाद, नकारात्मक सोच या अलग रस्ते के बोध के ना होने का है I


एक खालीपन का रूप है जीवन में खुद को ही सर्वोपरि मान आसपास के अनुभव को नकार देना, वो खालीपन है अपने आप से सही साक्षात्कार ना होने का फिर ऐसे में खुद का संचित ज्ञान कितना साथ देगा और हमारा अस्तित्व अज्ञानता की रिक्तता में रिसता जाता है I हमारा जीवन अपरोक्ष रूप से नूतनता का भूखा होता है और जब तक हम विभिन्न अभ्यास नहीं करते हैं कहीं न कहीं अवचेतन मन में एक जंग लग जाता है और फिर रिक्तता होती है जीवन प्रवाह की जो की हमें सबसे बांधकर रखता है और समाज से खुद से भी जोड़कर रखता है I


कभी पैरों पर गौर करना सबसे ज्यादा नगण्य वही होते हैं क्यों क्यूंकि वहां पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं देता और चेहरे पर सबसे ज्यादा ध्यान हम देते हैं क्यूंकि वही अक्सर दुनिया को दिखता है और ऐसे में अधिकांश लोग सिर्फ चेहरे की माया पर ध्यान देते हैं I पैर जो हमारे उसी चेहरे के अस्तित्व को नयी परिभाषा देते हैं, जीवन के असीम आयाम को देखने महसूस करने के लिए पंख देते हैं I वो भी यदा कदा अज्ञानता की यातना का शिकार होते हैं और अवचेतन मन में कहीं न कहीं कोई टीस खा रहे होते हैं I इस खालीपन को वो अक्सर छुपा लेते हैं जब भी कोई उन पर दृष्टि डाले तो या संकुचित हो जाते हैं I इस नगण्य भाव से उभरने के लिए जरुरी है जीवन के हर अभिन्न अंग को सहेजने की I ताकि कोई और रिक्तता भी उन कोशिकाओं में भी ना हो जो हमें जीवन में एक उचित गति प्रदान करते हैं I


तो जीवन की इन सभी रिक्तताओं से मुक्त होना मुश्किल है क्यूंकि थोड़ी बहुत रिक्तता गति प्रदान करती हैं वर्ना सब कुछ अगर पा लिया तो उल्लसित होने की जो ख़ुशी होगी वो कैसे पूरी होगी I


सारांश में कहूं तो –


कभी कभी ख़ुद को ख़ाली कर देना बेहतर होता है I

ख़ाली होते वक़्त जो खुरचन होती है ना

उसमें जो अंकु सारांश में कहूं तो र आते है

भले ही

दुनिया की नज़र मे वो एकदम

बेतरतीब, बिखरे से दिखते हों

पर टूटते वक़्त जो तुम उस खुरचन पर गिरे थे

वो मात्र तुम्हारा बिखरा हुआ स्वरूप नहीं था

वरन् तुम्हारा वो हिस्सा था

जो तुमने नज़रअंदाज़ कर दिया था

या कभी पहचाना ही नहीं था

जो एक खूबसूरत सा बीज़ बन

नवांकुरित हो तुम्हें परिभाषित करता है I


By Kavita Bhatt





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