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कॉलेज खुलने के आस में

By Guru Shivam


काव्य परिचय

ये दास्ताँ है, हालिया बीते उस वीभत्स कालखंड की, जिसके विश्वव्यापी कुचक्र ने समूची दुनिया को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। न जाने कितने ही, असमय काल के ग्रास मे समाये थे, और जो जिंदा बच गए, मानो मौत को छूकर वापस आए थे। जिंदगी जहान का कोई ऐसा जर्रा नहीं, जो इस विषाक्त विषाणु की जद में जकरा नहीं। क्या उद्योगपति, क्या अभिनेता, क्या गरीब, क्या सरकार! कोरोना के दिनानोदिन विषद कद के आगे सभी बौने पड़ते जा रहे थे। समाज का हर तबका ही त्रस्त था। ऐसे में, देश के भविष्य माने जाने वाले उन विद्यार्थियों की स्थिति और भी दयनीय थी, जिन्होने नए सत्र की शुरुआत के साथ अपने विद्यालयी/महाविद्यालयी जीवन का शुभारंभ किया था। उनके उत्साह-उमँग को जाने किसकी नजर लगी, नतीजतन, उन्मुक्त गगन के पंछी आज बन बेबस लाचार, खुद को एक बंद कमरे में कैद करने पर मजबूर हो गए थे। प्रस्तुत काव्य-कृति एक ऐसे ही विद्यार्थी की मानो दशा को दृष्टगत करती है जो हर गुजरते वक्त के साथ उस सुनहरे दिन की आस लगाए बेसब्र प्रतीक्षारत है जब उसका कॉलेज एक दफा फिर से अपने बच्चों को अपने आँगन –परिसर बुलाएगा, कक्षा कि घण्टियाँ लगाएगा, एक बार फिर से कॉरीडोर में गूँजेगी किलकारियाँ, और ऑडिटोरियम में बच्चों कि महफिल सजाएगा।



कॉलेज खुलने के आस में

1.

बड़े ही उमँग से, अभी अभी तो पढ़ना शुरू किया था,

पर देखते ही देखते, न जाने कब ये वक्त बीत गया,

इतंज़ार करते-करते, बंद कमरे में चौथा सत्र भी बीत गया ।

2.

मालूम नहीं, क्यों रूठे हैं ईश्वर, क्या भूल हुई हमसे

ये कैसा कहर है, दूर कर दिया जिसने, इंसान को इंसानों से

मालूम नहीं, आज कितनी ज़िंदगियाँ दाँव पर लगेगी

कितनी बचेगी, कितनों की इहलीला समाप्त होगी ।

हर ओर मचा है त्राहिमाम, हर कोई ही संत्रस्त है,

तिल-तिलकर मर रहा मानव, अस्तित्व पर लगा प्रश्नचिह्न है

3.

अब बस! बहुत हुआ कोप भगवन, अब तो कृपा कीजिये।

माना कि भूल हुई है हमसे, पर समूल नाश ना कीजिये।

बच्चे हैं हम आपके, करबद्ध प्रार्थना है आपसे,

विश्वव्याप्त विषाक्त संक्रमण के विष से संत्रास हमें दीजिये।

4.

मिल चुका है दंड हमें, नतीजतन आज मुँह ढँककर खड़े हैं।

सिमट गई ज़िंदगी हमारी, आज खुद की नजरों में ही नज़रबंद पड़े हैं।

बराबर मिली है सजा हमारे उन हाथों को भी,

पहुँचाया है जिसने असहनीय कष्ट,इस प्रकृति को ही,

धोते-धोते दंडस्वरूप उन हाथों को आज,

लग रहा मानों, अपने हाथों से ही हाथ -धो बैठे हैं।


5.

वक्त बहुत बीत चला, सही वक्त के इंतजार में,

हम आज भी आस लगाए बैठे कॉलेज खुलने के इंतजार में ।

कम से कम अब शेष वक्त में भी,

कुछ ऐसा सुसंयोग हो जाए ।

एक दफा फिर मिल सकें अपने अजीजों से,

कुछ ऐसा इंतजाम हो जाए।

संग जिनके, एक छत के नीचे,

एक सफ़र की शुरुआत की थी।

हँसते-खेलते, लड़ते-उलझते, संग जिनके,

सुनहरी यादों की सेल्फीयाँ बना करती थी।

एक दफा फिर सजा सकें अपने सखाओं की महफ़िल,

कुछ ऐसा समाधान हो जाए।।


और क्या लिखूँ अपने बीते कॉलेज दिनों की याद में,

अब तो स्याही भी सूख रही, कॉलेज खुलने के आस में...।।


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