आज़ादी
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आज़ादी

By Akanksha Tiwari


इस आज़ादी की कीमत

कभी बेड़ियों ने चुकाई थी

एक वो भी समय था

जब लाठी की आवाज़

गूंज कर आयी थी

एक बूढ़ा शोर मचाता था

स्वराज के नारे लगाता था

आज़ाद तो बता गये

आज़ादी नाम है उनका दिखा गये

वो शेर भी किसी को भुला होगा

इनक़लाब जिंदाबाद कहकर

जो मौत को झूला होगा





उसके तन पे रौनक ताज़ी थी

जब मांगी उसने बर्मा मे आज़ादी थी

है ये उस समय की बात

जब साम दाम दंड भेद का खेल

हर गली मोहल्ले के निसानी थे

बाट कर बैठे जब हुए थे दो सौ साल

आ गयी थी तब तक मुर्दो मे भी जान

सोते हुए को जगाने आये थे

न जाने उन्नीसवीं के कितने ही फ़रमान

जब माटी मे बोया था

नन्हे हाथो ने आज़ादी का सम्मान

न रोया कोई उसकी मौत पे

होगया था उसके इंतकाम की जीत

उसने कई रातें जंजीरों मे काटी थी

पर उसकी अकड़ मे मुस्कान अभी बाकि थी

जो शान लिए चेहरे पर फिरता था

खुद को भारतवासी और घर भारत को कहता था

नरम -गरम का मकसद एक हूआ करता था

सरफ़रोसो को देख वो बहभीत हूआ करता था

उसने रंगमंच बनाके खुद को आज़ाद बताया था

देख उसके तेवर को अंग्रेजों ने किनारे को घर बनाया था

ऐसे वो वीर हूआ करते थे

चलते थे वो जब

हर हार उनकी नई जीत हूआ करती थी

सन सतावन की ललकार लिए वो आया थे

जो पैतालीस की आंधी के औज़ार हूआ करते थे

है ये वीर वही जो गंभीर हूआ करते थे

खुद मे नए भारत को हरपल जिया करते थे।



By Akanksha Tiwari




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