आकांक्षी
- Hashtag Kalakar
- May 5, 2023
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By Ashish Priyadarshi
शहर की जगमगाती रौश्नी में, सड़कों पर धाँए-धाँए चलती गाडीयों की शोर और जीवन की व्यस्तता में मग्न, लोगों की भीड़ के बीच कोई चुपचाप सड़क किनारे बैठा है। जहाँ वो बैठा है वहाँ शहर की रौश्नी नहीं पहुँचती, गाड़ीयाँ नहीं रूकती और न ही कोई लोग उधर से गुज़रना पसन्द करते हैं। शायद इन्हीं कारणों से वह वहाँ बैठा है।
फूटपाथ पर पैर लटकाए बैठा वह लड़का एक टक से गुज़रती गाड़ीयों को देख रहा है। उसके पहनावे से मालुम होता है भले घर का है। उसने दोनों हाथों को अपनी जीन्स की ज़ेबों में डाल रखा है। उसके कानों में कोई आधुनिक यंत्र नहीं लगे, शायद वह उस समय उन गाड़ीयों की आवाज़ ही सुनना चाह रहा है। कुछ कदम दूर अंधेरे में लोग उस मोड़ की दीवार पर पेशाब करते हैं, जिसकी दुर्गन्ध लोंगों को इस रास्ते से गुज़रने से परहेज़ करवाती है। बावज़ुद इसके वह वहाँ बैठा है।
जब-जब गाड़ीयों की रौश्नी उसकी आँखों पर पड़ती हैं, वे सजल आँखें चमकती तो हैं पर झपकती नहीं और छलकती भी नहीं। उसकी गोद में एक पतली किताब पड़ी है, मालुम होता है बिल्कुल नईं है।
ऐसी जगह पर क्या ये रोज़ बैठता होगा? कहीं उस पतली सी किताब का वज़न तो नहीं बढ गया जिससे वह थक गया है? ये आँखें, जो झपकती नहीं और छलकती भी नहीं, कहीं पथरा तो नहीं गईं सपनों में धँस कर?
तमाम कौतुहल के बीच वह अचानक अपनी घड़ी की ओर देखता है और गहरी साँस लेता है। अपनी किताब को हाथ में ले वह खड़ा होता है और अपने कपड़े झाड़ता है। फ़िर उसकी बेज़ान होठों पर एक मुस्कान आती है और उसके कदम शहर की उन्हीं रौश्नी से लबरेज़ तंग गलियों की ओर चल देती हैं। वह पीछे नहीं मुड़ता क्योंकि उसको यकीन है न तो उसका कुछ छुटा है और न ही उसे कोई देख रहा है। कुछ कदम चल कर वह भी भीड़ में मिल जाता है और रौश्नी में गायब हो जाता है।।
By Ashish Priyadarshi

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