अनमोल विरासत: पापा का स्कूटर
- Hashtag Kalakar
- Aug 11
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By Preetika Gupta
शाम ढले, दरवाज़े पे मेरी नज़रें टिकती थीं,
मम्मी और भाई संग, मैं राह तकती थी।
फ़ैक्टरी से पापा, जब आते थे घर को,
एक आहट से खिल उठता था मेरा मन वो।
आते ही पापा, स्कूटर पे बिठाते थे,
गली का एक चक्कर, ख़ुशी से लगाते थे।
छोटे-छोटे हाथ मेरे, पापा को कसकर पकड़ते थे,
उनकी पीठ पे सर रख, दुनिया भुलाती थी।
वो इंजन की आवाज़, कानों में गूँजती थी,
लगता था जैसे, परीलोक की सैर मिलती थी।
कभी-कभी स्कूल भी, उसी पे जाती थी,
पापा का स्कूटर, लेने भी आता था।
वो सीट पुरानी, आज भी याद आती है,
कैसे हर मुश्किल, आसान हो जाती है।
ठंडी हवा का झोंका, जब गालों को छूता था,
पापा का साथ, हर डर को मिटाता था।
वो हेलमेट, जो अक्सर मुझ पर बड़ा होता था,
पाठशाला का रास्ता, कितना हसीन लगता था।
पापा, मम्मी, भाई, हम चारों की सवारी,
हर मेले, हर बाज़ार की, वो ही थी तैयारी।
खुशियों का साथी, सपनों का हमराही था,
हर पल में, वो स्कूटर बस हमारा शाही था।
उबड़-खाबड़ राहो पर, उछलते थे हम,
हर सफर में मिलती थी, इक नई सी ख़ुशी।
पापा की बातों में, कभी खो जाती थी मैं,
छोटी-सी दुनिया में, कितनी महफूज़ थी मैं।
आज न वो स्कूटर है, न रहे पापा मेरे,
बस यादें उनकी हैं, अब भी मेरे घेरे।
आँखें नम हैं, पर दिल में मुस्कान है,
वो लम्हें, वो यादें, अनमोल मेरी पहचान है।
लगता है कभी-कभी, अभी भी वो लौटेंगे,
अपने स्कूटर पर, फिर मुझको बिठाएँगे।
By Preetika Gupta

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