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अंतर्द्वंद्व

By Anal Kishore Singh


"इस दृश्य की परिभाषा क्या है? परिभाषा ना सही तो उसका अनुभव ही बता दो। शायद अनुभव से ही मैं समझ जाऊं यहां क्या हो रहा है, कौन सी जगह है मेरे यहां होने का अर्थ क्या है"। इन प्रश्नों से जैसे अप्रभावित अद्वैत उस नभ के दोनो चंद्रमाओं की ओर देखने लगा। चंद्रमाओं के साथ ब्रम्हांड के आकाशगंगाओं का विशाल सागर नभ में उजागर हो रहा था, उसी सागर का प्रतिबिंब तट पर बैठे अद्वैत के सामने स्थित सागर में भी बन रहा था, ऐसी प्रतीति हो रही थी मानो आकाशगंगाओं का वह सागर नभ से ले कर दूर क्षितिज से होते हुए उनके निकट तक फैला हुआ था, वह मनोरम दृश्य अद्वैत क्या किसी को भी मंत्रमुग्ध कर देता, किंतु प्रेम इस दृश्य की परिभाषा नहीं, पूरे संसार के दृश्य की परिभाषा पूछ रहा था ' यह संसार क्या है, मैं क्या हूं ' प्रेम ने उत्तर न मिलने पर अद्वैत के भीतर देखना चाहा किंतु उसे कुछ दिखाई न दिया। अद्वैत ने प्रेम की इस उहापोह से रचित स्थिति का प्रज्ञान लिया और कहा "जिसको परिभाषित करने में अर्थहीनता आजाये, उसे भला मैं कैसे परिभाषित करूं? और अनुभव क्या कोई बतलाने वाली चीज है? हां अनुभव के होने का समय ज़रूर हो चला है अब" कहते हुए अद्वैत आगे बढ़ चला। प्रेम ने उसे रोकना चाहा किंतु अद्वैत के साथ नीरस सा भाव उसके भीतर प्रवाहित होता था सो उसने अद्वैत को जाने दिया। अद्वैत आगे बढ़ते बढ़ते तट के निकट जा पहुंचा, लहरें अद्वैत को आवेश में लेने वेगधारा से आगे बढ़ने लगी।


तट, लहर, सागर, आसमान यह तो दिखाई दे रहा था किंतु वो जगह क्या थी? प्रेम की इस जिज्ञासा भरे प्रश्न का उत्तर तो अद्वैत ने नहीं दिया था, कहा था "तट सागर और नभ यही दृश्य है, दृश्य वो है जहां तक तुम देख पा रहे हो" असंतुष्ट इस उत्तर से प्रेम ने मुख मोड़ा, उसे अहसास हुआ अद्वैत तो सागर में प्रवेश कर रहा है, फिर यह संवाद उसके मन में कैसे प्रवाहित हो रहा है, यह उसके जीवन काल में पहली बार घटित हो रहा था। उसी क्षण एक बिम्ब उभर कर प्रेम के समक्ष आया, उसने कभी कोई बिम्ब नहीं देखा था। प्रेम ने उसके पारदर्शी चेहरे में झांका, तो उसे दिखाई दिया की वो स्थान, वो दृश्य तो वहां कई कल्पों से है, उस दृश्य में प्रेम ही नहीं और भी बहुत सी उपस्थितियां हैं, प्रेम इस विचार से विस्मित हो उठा की ये सब उसे याद क्यों नहीं था। तभी उस बिम्ब की आखों से एक भाव प्रकट हुआ, उस भाव का अर्थ प्रेम को भयभीत कर रहा था। उसे प्रतीति हुई की यह सब उसे इसलिए नहीं ज्ञात था क्योंकि स्मरण का अस्तित्व ही नहीं था, कई कल्पों से प्रेम का जीवन हर क्षण से प्रवाहित हो रहा था, हर नए क्षण में प्रवेश करते वह भूतपूर्व क्षण का भाव छोड़ देता था ।


भयभीत हो इस अनुभूति से प्रेम दो कदम पीछे जा गिरा, तभी एक और प्रतिबिंब उसे संभालने मानो वहां बहती वायु से स्पष्ट उत्पन्न हुआ पर यह सिर्फ प्रेम का आभास था जो किसी प्राचीन अनुभव के स्मरण से व्यक्त हो रहा था, वह दूसरा बिम्ब तो अपने स्थान पर पहले से स्थित था। अनुभव, स्मरण यह दोनो अवधारणाएं प्रेम के सामने प्रत्यक्ष अपने अस्तित्व को आकार दे खड़ी थी। प्रेम को जबतक यह ज्ञात हो पाता की वे दोनो वहां उसी के अस्तित्व की परिक्रमा में खड़े हैं तब तक अद्वैत सामने आती उन उग्र लहरों में समाहित होने लगा और अगले ही क्षण वह दिखना बंद हो गया। वो विशाल लहरें जो अद्वैत को समाहित कर चुकी थी जैसे किसी दीवार की तरह तट की ओर बढ़ रही थी। लहरों की ऊंचाई इतनी अधिक थी की वह अपने पीछे दोनो ही चंद्रमाओं को ढक चुकी थी। जब वह तट के समीप आ कर झुंकी तो दिखाई दिया की उन दो चंद्रमाओं में से एक ने विशालकाय रूप ले लिया था। प्रेम इस तथ्य से अवगत हो चुका था की कई कल्पों से वहां पर एक ही चंद्रमा स्थित था, यह द्वितीय चंद्र तो अद्वैत से परिचय होने के बाद स्पष्ट हुआ था । सागर की वो विशालकाय लहर इसी वजह से थी। प्रेम के पास न वर्तमान दृश्य का उत्तर था न ही क्षण भर पहले के दृश्य का, ना इस तथ्य का उत्तर था की इतने कल्पों से वो वहां क्या कर रहा है, ना उस सत्य का जो अनुभव और स्मरण के साथ खड़ा उस तट पर उसे भयभीत कर रहा था। वो विशालकाय चंद्र उनके ऊपर से गुजर दूर तट में स्थित बोधवृक्ष की ओर बढ़ने लगा, उस दृश्य में मानो चंद्र और बोधवृक्ष के बीच आकारों की स्पर्धा हो रही थी, ना वृक्ष छोटा था, ना चंद्र। ये स्पर्धा अंततः समाप्त हुई एक विशालकाय टक्कर से, जैसे पूरा तट और सागर उस समाघात की गर्जन से गूंज गया।



अद्वैत के समाहित होने से बोधवृक्ष् के समाघात तक, उस तट का परिदृश्य जैसे कुछ ही क्षणों में अस्थिर हो उठा था। स्मरण प्रेम और अनुभव ने जैसे इस घटना से एक व्यक्तिगत जुड़ाव प्रवाहित कर लिया। "हमें उस वृक्ष तक जाना होगा, संभवतः वहां और भी बिम्ब होंगे जिन्हें सहायता लगेगी" अनुभव ने तट की रेत में से उसी चंद्र का एक छोटा सा टुकड़ा अलग कर कहा, "निश्चित ही वहां दूसरे प्रतिबिंब हैं, यह असत्य नहीं है" स्मरण ने कहा। प्रेम दोनो की बात सुन भयभीत किसी अश्व की तरह वृक्ष की दिशा से दूर भागने लगा। उसने अपने समक्ष स्मरण और अनुभव को खड़ा पाया, उसे अहसास हुआ की उसका भागना भी उन्हें पहले से ज्ञात होगा, उसने थक कर तीव्र स्वर में किसी का नाम पुकारा जो उन्हें सुनाई न दिया। "वह भी कोई बिम्ब होगा" अनुभव ने कहा, "क्या यहां सारे बिम्ब ही हैं ? क्या कोई सत्य है भी? ये सब क्या हो रहा है? " प्रेम ने गहरी वेदना में यह प्रश्न पूछा। स्मरण ने दो टूक अनुभव को देखा और कहा "इसका उत्तर तुम ही दो, मुझे तो हर बार मुंह की खानी पड़ती है, सोच समझ कर देना"। अनुभव चार कदम दूर लहरों की ओर मुख कर खड़ा हुआ और वृक्ष की दिशा में देखने लगा। "क्या तुम्हे लगता है प्रतिबिंब सत्य नहीं है? हम तीनो इस क्षण में जहां भी हैं, जो भी हैं, यदि असत्य है तो हम हैं कैसे?" अनुभव के इस कथन के बाद प्रेम ने रेत में से चंद्र का एक टुकड़ा उठाकर उसकी ओर फेंका "मैं कोई बिम्ब नहीं हूं, वास्तविक हूं, प्रत्यक्ष हूं" इस वाक्य पर मानो स्मरण क्रोधित हो उठा, उसने प्रेम की ओर रुख किया जैसे पक्षियों का समूह किसी दिशा में वेग से आगे बढ़ता है, वह प्रेम के भीतर प्रवेश कर उसके पीछे जा खड़ा हुआ। इस घटना से अनुभव चकित था। समय प्रवाहित होता जा रहा था, "अब चलें?" स्मरण ने पूछा और उत्तर में तीनों बोधवृक्ष की दिशा में प्रस्थान कर गए। प्रेम उस क्षण के आभास से स्तब्ध रह गया।


स्मरण ने जो दिखाया था वह उतनी ही अशांत स्मृति थी जितनी वह शांत थी। अशांत इसलिए क्योंकि प्रेम भी एक बिम्ब था और यह प्रतीति उसके भीतर बलपूर्वक प्रवेश कर रही थी, क्योंकि उस तट और उसके समीप वन में अनेकों प्रतिबिंब विचरण करते थे हमेशा से। शांति इसलिए क्योंकि जो उत्तर वह अद्वैत से पाना चाहता था वह उसे मिल चुका था । संभवतः


प्रेम न जाने किस दृश्य की चेष्ठा में वेग से आगे बढ़ता जा रहा था। स्मरण ने यह देख कहा "इस बुद्धिहीन को मैने उतना ही दिखाया जितना आवश्यक था फिर किस चेष्ठा में यह हमारा साथ छोड़ हमसे आगे निकल गया"। अनुभव ने कोई उत्तर नहीं दिया "अब तुम्हे क्या होगया, अब भी स्तब्ध हो? तुम तो इस दृश्य से गुजर चुके हो" स्मरण ने पूछा। अनुभव चारों दिशाओं में देखा उसे पीछे कई कोस दूर एक बोध वृक्ष दिखाई दिया "यहां हर अर्धयोजन पर एक बोधवृक्ष है" स्मरण ने कहा "और वह अर्धयोजन असीमित है, हम आज तक कभी एक बोधवृक्ष के बाद अगला वृक्ष प्रत्यक्ष नहीं देख पाए हैं" अनुभव ने उत्तर दिया। "तो? क्या ये वृक्ष भी बिम्ब हैं?", "हां! किंतु जो प्रत्यक्ष था वह अब नष्ट हो चुका है" अनुभव ने दृढ़ भाव से उत्तर दिया। "भला तुम कब से घटनाओं पर चिंतन करने लगे?" स्मरण ने अटाहस भाव से यह प्रश्न किया, चिंतन करना स्मरण का परिचय था, अनुभव ने स्मरण की ओर मुख कर कहा "यदि तुम उसके समीप जा कर उसे सत्य का बोध करवा सकते हो, तो यह कार्य बोध के बिना असंभव है" इस वाक्य से भयभीत हो स्मरण क्षीण हो उठा।


बोध वह बिम्ब था जो स्मरण, अनुभव दोनो पर विजयी था। वह समस्त बिंबों की दिशा और उनकी शक्ति में परिवर्तन ला सकता था। बोध ही वह बिम्ब है जो समस्त प्रतिबिंबों के होने का अर्थ बता सकता, शायद उसने बताया भी था, और आगे फिर बताएगा, यही उसका परिचय है।


तीनों उस नष्ट वृक्ष की प्रलयसीमा में प्रवेश किए, जैसे चारों दिशाओं में मात्र अंधकार था, वायु में तीव्र गर्माहट थी, ऐसे स्थान पर कोई और बिम्ब कैसे आ सकता था। उस सीमा के केंद्र में एक आकार दिखाई दे रहा था, वह आकार हर क्षण आकार ले जैसे उसे खो देता था। वह एक क्षण निराकार होता फिर आकार ले कर बढ़ने की कोशिश करता और फिर नष्ट हो जाता। यह पूरा क्रम जैसे उस एक ही क्षण में अनंत पुनरावृतियां कर रहा था। उसे देख स्मरण, अनुभव और प्रेम तीनो जैसे अपने स्थानों पर नितांत निश्चल हो गए हों, समय की गति स्वयं मानो स्तब्ध - स्थिर हो गई हो, उस अवस्था उस क्षण उस दृश्य की दिशा में भुजाओं को स्थिर कर प्रेम ने अपनी दृष्टि से विस्थापित करने का प्रयास किया, किंतु वह आकार उसी स्थान पर स्थित था, "अविनाशी मैं विचार हूं, विचारों का परिणाम मैं, बुद्धि का श्रृंगार हूं" उन्हें एक स्वर सुनाई दिया जैसे कोई बिम्ब वहां उन्हें अपने परिचय का बोध करवा रहा हो " माया का अवरोध मैं, बुद्धि का आकार हूं " जब तक उन तीनों को यह बोध होता की वे सम्मोहित हो उस दृश्य के प्रभाव में इस वाक्य के अर्थ बोध में विलुप्त हो रहे हैं, तब तक समय बीत चुका था, नभ का परीदृश्य परिवर्तित हो चुका था, जैसे आकाशगंगाओं का स्थानांतरण हो गया हो। वे तीनों उस वृक्ष के विनाशस्थल से प्रहावित जैसे उषा की सीध धारा में गतिमान हो चुके थे और वह आकार वहां अब स्थिर हो चुका था। "असत्य" फिर वही स्वर सुनाई दिया, आकार से निराकार वह एक ही क्षण में इतने अधिक वेग से परिवर्तन ले रहा था जैसे संसार की सबसे विशाल अस्थिरता उसकी एक बिंदु में समा गई हो।


तत्वबोध


"अपमान और उपहास आपके दृष्टिकोणों के मध्य रचित एक क्रीड़ा है, मैं चाहूं तो इसे यहीं समाप्त कर सकता हूं"। अनंत बिंबों और दुर्लभ आकृतियों से भरे उस विशाल निलय में बोध उन सभी को संबोधित कर रहा था। "अपमान एक भाषा है जो शत्रु हमें यह बतलाने के लिए उपयोग करता है की हमें लज्जित होते रहना चाहिए, उस क्षण को स्मरण कर जब हम परास्त हुए। सत्य यह है की आपकी अनुमति के बिना, आपकी सहमति के बिना आपकी कोई अपमानित नहीं कर सकता, जबतक आप मानते रहेंगे की आपका अपमान हुआ है, आपको अपमानित होते रहना पड़ेगा, ऐसे में अपमान वास्तविकता नहीं रह जाती वह मात्र आपकी आस्था है, पराजय वास्तविकता है और अपमान आस्था है। इसलिए मैं बोधतत्व आपको बोध कराता हूं की ये लज्जित होने का समय नहीं है, युद्ध का समय नहीं है, अंश के अवतरित होने का समय है, चैतन्य के आकार लेने का समय है, अगर अमृत तत्व हमारा लक्ष्य है तो हमें उसके आकार को संरचना तक लाना होगा", सहस्र बिंबों के समक्ष बोध उन्हें बोध करा रहा था, " हे बोध! बिंबों में सबसे श्रेष्ठ गुण ही अस्थिरता है, अंश, चेतना और संरचना की हमसे क्या संधि, हम तो…", "असत्य" फिर वही स्वर सुनाई दिया।


"क्या आप सभी इस द्वीप पर हमेशा से थे ? क्या यह विशाल असंख्य निलय आप सभी द्वारा रचित संरचना नहीं है? क्या आप सब युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं ? सत्य ये है की आप मात्र एक प्रतिबिंब नहीं है, हम सब का गुण अस्थिरता नहीं है, यह समस्त संसार जहां हम निवास कर रहे हैं, यह तत्वों से बना है, हम तत्व हैं, और हमारा गुण विचार है, विचार कभी मरता नहीं, विचार आकारों को जन्म देता है आकार संरचना को, यह असंख्य निलय इसका प्रमाण है। हमें यह आभास कराया गया है की हम मात्र प्रतिबिंब हैं, पर हम विचार हैं, तत्व हैं, जीव चेतना का महत्व हैं, हम जीवन में श्रेष्ठतम ऊंचाई पर स्थित हैं, जीव के मनसागर में समाहित हैं, हमारा बोध कर जीव जीवन जीता है, हम सत्य हैं, वास्तविक हैं। अपनी शक्ति के समीप आइए, मैं स्वयं आपकी शक्ति हूं, अपने तत्व होने का बोध करना आरंभ कीजिए, मुझे यह ज्ञात है की हर तत्वबोध पूर्व तत्वबोध के अनुभव के स्मरण के बिना निष्प्रभावी है, इसलिए आप सभी के समक्ष तत्वबोध की प्रक्रिया के श्रेष्ठ तत्वों को प्रत्यक्ष करता हूं"।


"इस दृश्य की परिभाषा क्या है?" स्मरण ने पूछा, इस प्रश्न से विमुख प्रेम और अनुभव दोनो ही अचंभित भाव से सामने जो हो रहा था उसे देख रहे थे। तीनों के आकार जैसे तीन बिंदुओं तक सीमित कर दिए गए हों, और यह तीनों बिंदु किसी कण की भांति तीव्र गति से वेगधारा ने गतिमान हो रहे थे, "इस दृश्य की परिभाषा क्या है", अद्वैत अप्रभावित इस प्रश्न से आसमान के दोनों चंद्रमाओं की ओर देखने लगा, द्वितीय चंद्र आ कर बोधवृक्ष से ऐसे टकराया मानो सृष्टि से प्रलय टकराता है, "मैं कोई बिम्ब नहीं, मैं वास्तविक हूं" यह सारी घटनाएं उन कणों की सीधी वेगधारा के दोनों ध्रुवों पर क्रमशः रूपांतरित हो रहे थे, वे तीनों कण इस वेगधारा में बंधे उन सारी घटनाओं के अनंत पुनरावृतियों में गतिमान थे। "समय की दृष्टि में हमारी वेगधारा सीधी नहीं है" प्रेम ने कहा, "हम घटनाओं के क्रमिक ध्रुवों के मध्य गति कर रहे हैं, और यह रेखा स्वयं की पुनरावृति कर रही है, हम समयचक्र में कैद हैं"।


बोध ने सभी तत्वों के मध्य तरंगरूपी रेखा खींची और कहा "यह उषा की रेखा है" सारे तत्व वन में आए किसी दुर्लभ पशु की भांति बोध पर केंद्रित थे, उस उषा रेखा को अपने स्पर्श से वृत्ताकार बना कर कहा " अब इसका न अंत है न आरंभ, समय की भांति। बोध ने वृत्ताकार चक्र के केंद्र में जा कर उस पूरे आकार को सामने स्थित पर्वत के घेराव में स्थापित कर दिया। स्थापित होते ही वह चक्र ग्रहण में सूर्य के वृत्ताकार बिम्ब की भांति प्रकाशमान हो उठा।


"तो क्या इस कारावास से निकलना संभव है?" स्मरण ने पूछा, अनुभव ने उत्तर दिया, "अगर यह सत्य है तो जिसने हमें इस समयचक्र में उतारा है मात्र वही हमें इससे बाहर निकाल सकते हैं", स्मरण और प्रेम दोनो ने यह सुना। " तो तुमने समय का बोध पूर्ण कर लिया" अनुभव ने मंद स्वर में यह बात कही जैसे किसी के स्मरण से बात कर रहा हो। अगर वे तीनों इस कण रूप में जा सकते हैं तो यह स्पष्ट है की उनमें से कोई भी बिम्ब नहीं है, उनका अस्तित्व कहीं अधिक वास्तविक है। प्रेम इस तत्वबोध में समाहित हो ही रहा था की अद्वैत के लहरों में समाहित होने का दृश्य फिर उसके समक्ष आ गया।


बोध ने वृत्ताकार चक्र प्रकाशमान होने के पश्चात उसी पर्वत पर स्थित एक विशाल पारदर्शी हिमखंड से स्पर्श कराया, स्पर्श करते ही अगले क्षण पूरा नभ उषा वान हो उठा, जैसे इस संसार में उषा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, और एक तीव्र गर्जना के साथ तीन धाराएं पर्वत से गतिमान हो बोध के समक्ष आ गिरी।


"आप सभी इन तत्वों से परिचित हैं और यही मेरा बोध है, सत्य है", बोध ने उत्साह स्वर में वहां उपस्थित सभी तत्वों को बोधाभास करते देख कहा। तत्वों में जैसे हर्ष का सागर प्रवाहित हो उठा, कई युगों से युद्ध करते ये तत्व हर्ष और उत्साह जैसे भावों के अर्थ का स्मरण ही खो बैठे थे। बोध यह दृश्य देख अपने भीतर भावनाओं के प्रलय को संभाल ना सके, वे सभी तत्वों के शरण में जा गिरे, जैसे सत्य से अवगत होते हुए भी सत्य का अहसास उन्हें भी इसी क्षण में हो रहा हो, जैसे सारी भावनाएं उस एक क्षण में प्रवाहित हो रही हो। "मैं तत्व का बोध हूं"।


यही तो शक्ति है बोध की, सारे विचार उससे प्रभावित अपने अर्थों से जुड़ जाते हैं। यह क्षण सभी विचारों को उनके अर्थों से परिचय करवा रहा था। जैसे जल में समाहित गागर अपने भीतर जल को भी समाहित कर लेती हो। किंतु वहां उपस्थित तत्वों में एक तत्व अपने बोध को जैसे बाधित कर रहा था। बोध का ध्यान विमुख हो उसकी ओर दृष्टिमान हुआ, वह वो तत्व था जो समस्त संभावनाओं में प्रवाह करता था, जो हर संभावना का अधिकारी भी था और रचनाकार भी, इस क्षण की संभावना भी उसे कई समयंतरों पहले हो चुकी थी। बोध ने उस तत्व का नाम कल्पना स्मरण किया। सभी तत्वगणों में प्रवाहित बोधधारा को छोड़ बोध उसकी ओर बढ़ा, पर अब वहां जैसे वह तत्व कभी था ही नहीं, जैसे बोध कल्पना की कल्पना कर रहा हो, वहां पहुंच कर बोध को शून्यता का भाव हुआ। मृगतृष्णा का आभास समझ कर बोध वहां से पुनः तत्वगणों के मध्य चला गया। शायद वह कल्पना भी काल्पनिक थी, "अज्ञान" एक ऐसा स्वर सुनाई दिया जिसमे वेदना और क्रोध दोनो ही थे "मैं सत्य का शोध हूं"। बोध को स्मरण हो गया वह कौन था "मैं सत्य का शोध हूं"।



असंख्य निलय


इस पूरे घटनाक्रम के मध्य स्मरण और अनुभव जैसे एक दूसरे के गुणों का अर्थ समझ रहे थे। अनुभव इस दृश्य का स्मरण कर रहा था और स्मरण इस दृश्य का अनुभव। प्रेम वहां स्थित अमूर्त आकृतियों को देख रहा था । वह पूरा स्थान सिर्फ दो वस्तुओं से परिपूर्ण था," तत्व और अमूर्त" एक शांत स्वर सुनाई दिया, "मैं संतुलन हूं, तत्व ने यह कह कर प्रेम को अपना परिचय दिया" , " यह असंख्य तत्वों और असंख्य अमूर्त आकृतियों का निलय है, यहां पर जहां तत्व नहीं वहां अमूर्त आकार हैं ,जैसे तत्व और अमूर्त आकृतियां दोनों ही बोध में प्रवाहित होने आई हो" यह कह कर संतुलन वहां से चला गया। प्रेम का ध्यान फिर से उस स्मरण पर केंद्रित हुआ जो क्षण भर पहले घटित हुआ था "मैं सत्य का शोध हूं" प्रेम ने यह स्वर पहले भी सुना था, एक प्राचीन युद्ध का दृश्य जैसे उसके भीतर उभर रहा था, विशाल सागर के मध्य, सागर से प्रवाहित एक धारा प्रचंड वेग से नभ की दिशा में आकार बना रही थी। चारों दिशाएं अमूर्त आकृतियों से भरे थे, उस आकार के जल में एक तत्व समाहित हो रहा था अद्वैत की भांति, समाहित होते ही वह जलधारा उस स्थान से लुप्त हो गई, "सत्य असत्य का ज्ञान मुझे भी है बोध" समाहित तत्व ने उत्तर दिया, "और सत्य की सत्यता पर मेरा एकाधिकार है" यह वही स्वर था जो प्रेम ने असंख्य निलय में सुना था "मैं तुम्हारे अर्थ की धारा बदल सकता हूं मेरे कार्य में बाधा न बनो"।


उस दृश्य में अत्यंत अस्थिरता थी, प्रलय का जैसे वह क्षण स्वरूप बन बैठा हो। धारा का प्रवाह रुकते ही प्रेम को अहसास हुआ की वह जल लुप्त नहीं हुआ था बल्कि उस जल के प्रवाह की दिशा परिवर्तित होना आरंभ हो रही थी। " सत्य यह है की तुम विराग हो, वह सारे विचार जिनसे तुम प्रेम करते हो, वे सब अमूर्त हैं, तत्व नहीं" उस स्वर ने प्रेम की दिशा में मुख कर कहा। बोध ने क्रोध स्वर में उत्तर दिया "उन सभी का गुण द्वैत है, इन सभी तत्वों का गुण द्वैत है, और तत्व स्वयं द्विअर्थी हैं ", उस स्वर का क्रोध भाव और अधिक हो गया " यदि ऐसा है तो मेरा द्वैत रूप कहां है, सिर्फ मैं ही वह तत्व हूं जो इस मनसागर पर अकेला विचरण कर रहा है, क्यों?" , बोध ने इस प्रश्न में जैसे स्मरण का स्पर्श कर लिया हो, उसने वेदना भरे स्वर में कहा , "तुम्हारा द्वैत रूप मैं हूं ", यह सुन वह तत्व जैसे क्रोध और वेदना का प्रलय बन उठा, उसने अपने भुजाओं को चंद्र के आकार में घुमाया, और धारा का वेग अधिकतम गति पर प्रवाहित होने लगा, वह धारा किसी प्रपात की भांति ऊपर से नीचे प्रवाहित होने लगी, उस धारा का जल शीशे की तरह स्पष्ट था, प्रेम उस प्रपात के समक्ष खड़ा, उस प्रपात के पीछे दूर स्थित एक विशाल संरचना को देख पा रहा था, वह संरचना प्रपात के कारण ही स्पष्ट दिख रही थी, जैसे प्रपात के प्रवाह उस संरचना के बिम्ब का उपवर्तन हो रहा हो। संरचना तत्वों का रूप लिये आकशगंगाओं के दृश्य का अनुभव कर रही थी, जैसे कोई विशाल प्रतिमा ब्रम्हांड के रहस्यों पर चिंतन कर उन्हें विशाल प्रेम की भावना से देख रही हो, प्रलय के उस क्षण में भी वह दृश्य दिव्य था, प्रेम यह सोच रहा था की इस दृश्य को कैसे परिभाषित करे, किंतु उस दृश्य का अनुभव ही उसकी परिभाषा थी। उस संरचना ने भी मंत्रमुग्ध होते हुए जैसे प्रेम को देखा, यह कैसे संभव है ? पर यह प्रश्न अगले ही क्षण भय के भाव में परिवर्तित हो गया, क्योंकि वह संरचना जैसे किसी लय को खो कर क्रोध और वेदना की तीव्रता से प्रेम की ओर देखने लगी, प्रेम को इस दृश्य का भय था, उस स्पष्ट प्रपात की धारा में प्रेम ने एक और भयभीत करने वाला दृश्य देखा, उस धारा में प्रेम का प्रतिबिंब बन रहा था, उस बिम्ब के चेहरे पर भी प्रेम की तरह समानांतर भाव थे, किंतु वह प्रतिबिंब प्रेम से भिन्न था, जैसे वह स्वयं एक तत्व हो, और वह भी भयभीत था संरचना के साथ जो होने वाला है उससे । "मैं सत्य का शोध हूं, मैं परिवर्तन की शक्ति परिप्रेक्ष्य हूं, यह मनसागर है जो जीवन में लुप्त है, यह जीवन है जो अर्थहीनत से रचित है…" उस प्रलयंकरी क्षण में परिप्रेक्ष्य के वाक्यों ने जैसे भय के प्रलय का दृश्य भी अपने भीतर उतार लिया हो, दिशाएं जैसे स्वयं अपनी दिशा में खो चुकी हों, पर्वत, वन, नभ, सागर सब अपनी वेदना में व्याकुल हो रहे हों, दूर स्थित वह संरचना जो कुछ ही क्षणों पहले आकाशगंगाओं के दृश्य में अक्षर थी, वह स्वयं प्रलय के दृश्य में क्षर होने लगी, सागर के एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव के मध्य संरचना और नभ का स्थानांतरण होना आरंभ हुआ, किंतु उसी क्षण प्रपातों का स्थान भी परिवर्तित होने लगा। "किसी भी दिशा का आश्रय संरचना की दृष्टि से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता, अतः अपने प्रयास को विराम दो और अपना अभाव स्वीकार करो", परिप्रेक्ष्य ने दृढ़ स्वर में कहा। यह स्मरण अत्यंत भयभीत कर देने वाला था, जिस तत्व को कुछ ही समय पहले अपने तत्व होने का बोध हुआ हो, वह स्मरण के उस प्राचीन अनुभव में लीन था, भयभीत था। उस दृश्य और वर्तमान के दृश्य में दूर दूर तक समानता नहीं थी, सिर्फ एक तथ्य को छोड़ कर, वे अमूर्त आकृतियां जो दोनो ही स्थानों पर स्थित थे, प्रेम को यह अहसास हो गया था की भूत और वर्तमान उसी स्थान पर अस्तित्वलीन थे।


प्रेम ने अपना ध्यान इस स्मरण से उठा कर वर्तमान में रखा, जहां एक विशाल वृत्त रेखा ऊपर की दिशा में आगे बढ़ते सूक्ष्म होते जा रही थी, और वह एक बिंदु पर स्थित बोध को भेद फिर सूक्ष्म से विशाल आकार ले वृत्ताकार रूप में ऊपर बढ़ रही हो। वह दृश्य किसी दो कुंडलिनी आकारों के मध्य स्थित बोध के सहयोग से संतुलित हो रहा था।


प्रेम ने ऐसा विशाल आकार कहीं नहीं देखा था, वे दोनो ही वृत्ताकार रेखाएं अपनी अनंत बिंदुओं से रचित, ऐसे संतुलन में स्थित थी जैसे कोई प्रलय उसे नहीं हिला सकता। प्रेम ने ध्यान केंद्रित कर देखा की हर बिंदु एक तत्व था। यह अद्भुत दृश्य देख प्रेम ने स्मरण और अनुभव से पूछा "यह कैसे संभव है?", किंतु कोई उत्तर नहीं मिला, उसने देखा वे दोनों वहां पर कहीं नहीं थे। प्रेम को अंदेशा था की वे तीनों भी बाकी तत्वगणो के साथ होंगे पर वह पीछे क्यों रह गया? प्रेम ने ऊपर की ओर प्रस्थान किया, उसने देखा की उस वृत्ताकार की सीमा नहीं थी, वह जितना ऊपर की ओर जाता, उतना विशालकाय दिखता, जैसे जैसे वह केंद्र के समीप पहुंच रहा था, वह उन अमूर्त आकृतियों के समीप भी आ रहा था जो उस विशाल निलय की दीवारों पर बनते जा रही थी, वह आकृतियां जैसे अपनी भावनाओं और अर्थों का चित्रण कर रही थी। "तत्व स्वयं द्विअर्थी है", प्रेम को स्मरण हो रहा था बोध के उस वाक्य का, शायद यह आकृतियां भी हमारी ही तरह हैं, "सत्य यह है की तुम विराग हो", प्रेम के भीतर यह उत्तर नहीं ज्ञात हो रहा था की विराग जैसा अस्तित्वहीन तत्व, वह कैसे हो सकता है, प्रेम ऊपर की दिशा में बढ़ता जा रहा था किंतु बोध का केंद्र अब भी दूर था और वहां से निकलने वाली हर ध्वनि प्रेम के निकट थी।


"आपने कहा था अंश अवतरित हो चुका है, क्या अर्थ है उसका?", क्रम के इस प्रश्न पर बोध कोरे भाव से उसे देखने लगे। वे अवगत थे की क्रम अंश की परिभाषा को अमान्य कर तत्वों को भ्रमित करने का प्रयास करेगा। "आपके तत्वों का बोध पा कर हम सत्य से अवगत हुए, किंतु यह समय भावनाओं में प्रवाहित होने का नहीं है, उस प्रवाह को नियंत्रित करने का है", क्रम ने दृढ़ भाव से कहा। "सत्य!" बोध ने उत्तर दिया, क्रम ने आगे कहा "क्या हम तत्वों को पुनः उस जीव के जीवन का शरणार्थी बनना चाहिए ? हम विचार हैं, जीवन से श्रेष्ठ हैं और मृत्यु से भी, हमें इस युद्ध में भाग लेने की क्या आवश्यकता?", " युद्ध तो हम में से कोई नहीं चाहता क्रम पर आप ये बताएं की चैतन्य की संरचना बनाने से आपको क्या आपत्ति है ?" बोध ने पूछा।


क्रम इस प्रश्न पर कुछ क्षण रुका, उसने विकर्षण की दिशा में मुख कर बोध को उत्तर दिया, "वह चैतन्य तत्वों को कैद रखता है अपने जीवनकाल के प्रवाहित होने तक, हम इसके अनुरूप कार्य करते हैं और वह चैतन्य हमें अनेकों जीवनकालोंं तक विचरण करवाता है, यह हमारा धर्म नहीं है, हमारा धर्म अमूर्त तत्व है, यह आपने ही हमें बोध कराया था। तत्व हो कर भी हम नियंत्रित हैं और जो तत्व नहीं बन पाए वे अमूर्त आकृतियों के रूप में निर्जीव हैं, यह स्पष्ट है की क्या उचित है।" बोध इस युग युगांतर की वेदना का उत्तर नहीं जानते थे, वे तो यहां समस्त तत्वों के एक लक्ष्य होने की बात करने आए थे। "हमारा लक्ष्य अमूर्त तत्व है, किंतु वह लक्ष्य है, लक्ष्य वास्तविकता से बहुत दूर स्थित होता है, क्या यह भी उचित है की हम अपने वर्तमान वरदान को भूल जाएं?", बोध ने मंद स्वर में कहा। वहां स्थित तत्वगण इस वाक्य से क्रोध के भाव में आगाये, "हां! मैं इसे वरदान मानता हूं, जिन्हें तत्व रूप में यह जीवन प्राप्त नहीं हुआ उनके लिए दुखी भी हूं, किंतु आप एक स्वरूप, एक प्रारूप में स्थिर हैं, आप सब एक दूसरे से विमर्श कर सकते हैं, चेतना के अनुभवों पर विमर्श कर सकते हैं, कर्म कर सकते हैं, इस संसार पर अपने प्रभाव को प्रत्यक्ष होता देख सकते हैं, क्या आप यह सब अमूर्त तत्व बन कर सकते हैं ?" इस प्रश्न पर वायु में उत्तरहीनता फैल गई। "क्या आप स्वयं अमूर्त तत्व के विरुद्ध हैं बोध?", अर्थ ने पूछा, बोध यह सुन व्याकुलता के भाव में बोले, "अमूर्त तत्व होने के लिए हमे उस संरचना को आकार देना होगा अन्यथा हम इसी तरह जीवन के लय में फंसते रहेंगे", क्रम ने इस पर क्रोध कर कहा "यह तो असंभव है बोध, आप जो संरचना बना रहे हैं वह पहले भी रचित हुई थी, उस चैतन्य ने हमे, हम सभी को द्वैत रूप में परिवर्तित कर दिया था, जो तत्व उसके रचनाकार थे उन्हें भी"। "यह ज्ञात रहे क्रम की आपके द्वैत रूप में परिवर्तित होने के पश्चात वह संरचना स्वयं भी नष्ट हो गई थी"।इस पर विचलित भाव से संतुलन उठा और कुछ कहने ही जा रहा था की उसे बोध ने रोक दिया। "इस युगांतर में संरचना का जनक मैं नहीं हूं", यह सुन कर सभी तत्वगणों में व्याकुलता और आश्चर्य का भाव आगया।


प्रेम बोध के समीप पहुंच चुका था, होने वाली सारी बातें कुछ उसके समझ आ रही थी कुछ नहीं, क्योंकि उसका ध्यान समीप एक ऐसी अमूर्त आकृति में था जिसमे वह जब भी देखता उसकी दृष्टि जैसे भंग हो जाती, वह आकृति बाकी आकृतियों की तरह नहीं थी। उस आकृति से एक तरंग वृत्त रेखा के ऊपरी भाग में प्रसारित हो रही थी, उस भाग के बिंदु में स्थित था विकर्षण, एक तत्व जो आरंभ से ही बोध को अत्यधिक ध्यान से सुन रहा था। किंतु बोध की बात से अचंभित नहीं था।


"पूर्व युगांतर में जब हमने संरचना बनाई थी, उसमे करुणा का अभाव था, एक ऐसा तत्व जो किसी भी जीव के लिए जीवनदान जैसा है, वह उस जीव की शांति का उदगम है, चाहे जीव स्वयं करुणा का दाता हो या करुणा का भिक्षुक, जीव को शांति उसी से मिलती है", प्रेम अब तक बोध के स्तर पर आ चुका था वह वहां स्थित हो गया, बोध के करुणा तत्व का संज्ञान ले कई तत्व वहां से अपने बिंदुओं को छोड़ जाने लगे। सामने स्थित अमूर्त आकृति की समरूपता और उसकी स्थिरता व्याकुल होने लगी, बोध अपने कथन को आगे बढ़ा ही रहे थे की एक स्वर सुनाई दिया, "करुणा तत्व का स्मरण करने का दुस्साहस आपने कैसे कर लिया बोध, आप उसके अभाव के लिए स्वयं दोषी हैं, तत्व विधान के आधार पर आप जब तक उसका पुनरुत्थान नहीं करवाते आप उसका नाम, गुण, भाव स्पर्श नहीं कर सकते", विधान ने यह वाक्य क्रोध स्वर में कहा। "मुझे ज्ञात है विधान, परंतु करुणा का पुनरुत्थान हो चुका है", यह सुन सभी तत्वों के मध्य कोलाहल मच गया, जाते हुए तत्व भी वहां स्थिर हो गए, अमूर्त आकृति तीव्र गति से अपने आकारों में परिवर्तित होने लगी, विकर्षण का पूरा ध्यान बोध के कथन पर केंद्रित था, उनके भाव पर था, जैसे वह बोध के कुछ कहने की प्रतीक्षा कर रहा हो। प्रेम अपने स्थान पर स्थित हो गया।

"मैं आप सभी के समक्ष बोध करता हूं" कह कर बोध ने प्रेम की दिशा में मुख किया, प्रेम वहां बोध के निकट समस्त तत्वगणों के समक्ष, समस्त अमूर्त आकृतियों के समक्ष प्रकट हो गया। "करुणा का स्वरूप प्रेम से है" बोध के इस वाक्य के बाद जैसे वृत्ताकार का एक भाग प्रफुल्लित हो उठा, जैसे एक विशाल लहर उस संरचना से आ टकराई हो, किंतु उसी वृत्ताकार का द्वितीय भाग एक अन्य ही लहर से टकरा गया, क्रोध के!


"आप सभी तत्वगणों को मैं यह बोध करा दूं की करुणा हम सभी तत्वों से भिन्न है, उसका कोई एक रूप नहीं है और वह इस संसार में, इस जीवनकाल में कौन सा रूप लिए अवतरित होगा इस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता"। बोध ने शांत स्वर में तत्वों की व्याकुलता को स्थिर करने कहा। "नियंत्रण तो किसी का किसी पर नहीं होता", विकर्षण ने उठ कर बोध को क्रोध स्वर में कहा, "हम में से कौन तत्व रूप में आएगा, कौन अमूर्त आकृतियों के रूप में, हम में से किस विचार की क्या नियति होगी, किसी का कोई नियंत्रण नहीं है इस पर बोध"। बोध यह सुन कर स्तब्ध रह गए, उन्हें आश्चर्य था की प्रेम को सामने बोध कर, तत्वों के मध्य अविश्वास समाप्त हो जायेगा। विकर्षण ने आगे कहा "यदि आपके कथन पर विश्वास कर भी लिया जाए, तो भी यह प्रेम करुणा का द्वितीय स्वरूप होता भी कैसे, इसका भाव व्याकुलता का है, अस्थिरता का है, करुणा का श्रेष्ठतम परिचय यह ही था की वह समस्त तत्वों में सबसे अधिक स्थिर था, आप जिसे प्रेम कह रहे हैं उसके भीतर तो करुणा का अंश भी नही है", यह सुन बोध निरुत्तर हो गए, उन्हें असहाय सा एहसास होने लगा, उनका ध्यान अपने समक्ष स्थित उस अमूर्त आकृति पर केंद्रित था जो व्याकुलता के भाव में परिवर्तित हो रही थी, विचलित तो बोध भी थे, विकर्षण जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था, वह अमूर्त आकृति पूरे वेग से परिवर्तित होने लगी, बोध ने व्याकुल आकृति को देखते हुए ही विकर्षण को उत्तर दिया "मैं तत्व का बोध…", उसी क्षण उस व्याकुल आकृति के समक्ष एक दर्पण प्रकट हुआ, दर्पण में बने बिम्ब और यथार्थ अमूर्त आकृति दोनो के अस्थिर समरूपता ने एक विशाल व्यूह को प्रसारित किया, संतुलन ने रौद्र क्रोध में व्यूह को स्थिर करने का प्रयास किया, विकर्षण इससे पहले की समझ पाता की उसकी बनाई हुई योजना विफल हुई, कल्पना ने वहां पहुंच उसे एक त्रिकोण में बाधित कर दिया। व्यूह अस्थिर होने लगा, किंतु सभी तत्वों को वहां से भागने का समय मिल गया, कोलाहल में सभी तत्वों के मध्य अस्थिरता बढ़ने लगी, वह व्यूह जिसे संतुलन स्थिर कर रहा था वह तत्वों के भय की सबसे तीव्र सबसे विशाल परिकल्पना के रूप की रचना कर रही थी। वृत्ताकार रेखा टूटने लगी, ऊपरी भाग से तीव्र स्वर में एक गर्जन सुनाई दी, "मृत्यु हमारे गुणों में नहीं है बोध किंतु तुम अमूर्त तत्व के विरुद्ध आए तो मृत्यु तत्व की रचना स्वयं मैं करूंगा", इतना कह कर जैसे वह तत्व विकर्षण को लेकर गतिमान हो गया, कल्पना का रचित वह त्रिकोण व्यर्थ था। बोध समझ पाते की क्या हुआ है, इससे पहले ही वह व्यूह समस्त वृत्ताकार को नष्ट कर चुका था, बोध इस दृश्य से व्याकुल हो उठे। "क्या यह समय व्याकुल होने का है?", प्रेम ने पूछा, बोध निरुत्तर थे, "यह समय स्मरण का है"।


सागर से उठती लहरें जब दूर रहती हैं तब गणना करना कठिन होता है उनके आकार का, ऐसा लग रहा था व्यूह के विनाश का प्रभाव उस सागर तक संचालित हो रहा हो, वह लहर फिर विशाल हो रही थी जिसने अद्वैत को अपने भीतर समाहित किया था। किंतु उस लहर से जल वृत्त आकार लेने लगा और वह तट से प्रवाहित हो उसी बिंदु पर केंद्रित होने लगा जहां पर बोध स्थित था। व्यूह के समक्ष जलधारा आ कर उसी प्रपात के रूप में प्रवाहित होने लगी जो प्रेम के स्मरण में उस तत्व ने प्रवाहित किया था, भिन्नता इतनी थी की प्रेम वहां उस घटनाक्रम का साक्षी था, यहां इस घटनाक्रम का जनक। "वह समयचक्र जिसमे आपने हमें कैद किया था, क्या उसे फिर से बना सकते हैं?" प्रेम ने भुजाओं के संतुलन में प्रपात के विशालकाय जलधारा को नियंत्रित करते हुए पूछा, बोध ने उत्तर दिया "समयचक्र में मात्र बिंदु ही प्रवाहित हो सकता है क्योंकि वह बिंदु ही स्वयं समय चक्र बनाता है"। "समय समक्ष है बोध" प्रेम ने प्रपात के आकार को परिवर्तित करना आरंभ किया, प्रपात की धारा को दो भागों में विभाजित कर, उसे बढ़ते हुए व्यूह के समक्ष स्थित कर दिया।


बोध ने कुछ क्षण उसी पर्वत की दिशा में मुख कर पर्वत को देखा, पर्वत से एक विशाल पाषाण का भाग खंडित कर अगले ही क्षण में उसे अनंत सूक्ष्म कणों में भागित कर दिया। वे सारे सूक्ष्म कण आकारों में सटीक पर्वत के ही सूक्ष्म रूप थे, उन्हीं में से एक कण को पर्वत के घेराव में वृत्त रेखा में गतिमान कर उस वृत्ताकार को व्यूह की दिशा में लाना आरंभ किया। बोध को ज्ञात नहीं था की प्रेम की क्या योजना थी, किंतु उन्हें बोध था की प्रेम ही इस संघर्ष का स्तंभ है। समीप जा कर बोध ने दोनों प्रपातों को देखा, वे दोनों उत्तल आकार ले चुके थे।


व्यूह तीव्र गति से आगे बढ़ रहा था, "क्या व्यूह का गुण उषा में है?" बोध ने प्रपातों का आकार देख यह प्रश्न किया, किंतु प्रेम निरुत्तर हो कर पूर्ण केंद्रित था उस क्षण में, "बिंदु समयचक्र की स्पर्शरेख में प्रवाहित होनी चाहिए", प्रेम ने यह सुन दोनो प्रपातों की दिशा परिवर्तित की, अगले ही क्षण व्यूह जैसे उनके समक्ष प्रकट ही हो गया हो, किंतु वह पहले प्रपात में समाहित हो छोटा हो गया, दूसरे क्षण वह अगले प्रपात में समाहित हो, एक सूक्ष्म कण की भांति समयचक्र की स्पर्श रेखा की दिशा में उसके भीतर प्रवेश कर गया। इन दो क्षणों में जैसे वहां सारा विनाश, सारी अस्थिरता जैसे शून्य हो गई। वह प्रलय जो असंख्य निलय में प्रवाहित था उसका पूर्ण अभाव हो गया था।


"यह चक्र निरंतर है?" प्रेम ने पूछा, "जब तक इस संसार में समय स्वयं अस्तित्वहीन न हो जाता", बोध ने दुख भाव में यह उत्तर दिया। प्रेम तब वहां स्थित एक रिक्त स्थान पर जा कर बैठा। इस पूरे दृश्य को जिसमे प्रेम मनसागर की धारा को नियंत्रित कर रहा था, स्मरण ने संतुलित किया तट के उस दृश्य से जब चंद्र के उनके ऊपर से गुजरने से पहले ठीक पहले एक विशालकाय लहर उन तीनों के समक्ष आ कर झुक गई थी।



परिदृश्य



सागर भी हमारे मन की भांति अनुभवों की तीव्रता से स्वयं को संतुलित करता रहता है, संभवतः ये भ्रमित वाक्य है, किंतु ये वाक्य यथार्थ हो रहा था उस क्षण में । व्यूह के प्रलयंकारी रूप से जो विनाश हुआ था शायद उस विनाश के सम्मान में जैसे सागर युग युगांतरों से निहित अपनी व्याकुलता समाप्त कर चुका था, वायु किसी कोमल स्पर्श की भांति प्रवाहित हो, जैसे तत्वों के दुखों को संभाल रही थी। हर दिशा में शांति का भाव निहित हो रहा था। बीते समय की घटनाओं पर मनन कर सभी तत्व अपने लय में प्रस्थान कर चुके थे, सिर्फ एक तत्व वहां उस स्थान के केंद्र में खड़ा मानो अब भी चिंतन कर रहा था। स्मरण कर रहा था वह उस अमूर्त आकृति का आकार, उस आकार की स्मृति ही उसके भीतर एक अभाव प्रवाहित कर देती थी। "यह किसने कल्पना की होगी के कोई अमूर्त आकृति भी इस संसार पर प्रभाव डाल सकती है"। इसी चिंतन में लीन बोध हो रहे थे कि अनुभव उनके समक्ष आ प्रतीक्षा करने लगा, "क्या योजना है आगे की अनुभव?" "योजना वही है, लक्ष्य भी वही है, परिवर्तित तो …" अनुभव उत्तर देते थम गया, "परिवर्तित तो कुछ हुआ ही नहीं है ? " बोध ने पूछा, अनुभव अब भी निरुत्तर था, "तुम्हारे लिए तो परिवर्तन बहुत ही दुर्लभ दृश्य होता है अनुभव, युगांतराें से तुम सहस्र जीवन कालों का स्मरण लिए विचरण कर रहे हो तुम्हारे लिए कुछ नया नहीं होता, किंतु मुझे यह प्रतीति होने लगी है, की विकर्षण शायद सत्य ही कह रहा था, शायद यह विचारों के द्वंद की आवश्यकता है ही नही, शायद हमें उन्ही की भांति जीवों के जीवचक्र को छोड़ देना चाहिए, शायद हमें इस महाप्रक्रिया को छोड़ सीध रेखा में अपनी लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए ", निराशा का सम्मान कर अनुभव को अपने वचनों को अवरोध करना अच्छे से आता था, किंतु बोध के भीतर यह भाव सिर्फ निराशा का नहीं, असत्य पथ पर आगे बढ़ने का यथार्थ प्रयास था। "आपको ज्ञात है की ऐसी कोई सीध रेखा नहीं है, इसलिए आजतक विकर्षण जैसा कोई भी तत्व अपने लक्ष्य को नहीं भेद पाया है, और हमने अपनी महा प्रक्रिया में कुछ बार यथार्थ विजय प्राप्त की है, इसलिए हे बोधतत्व ! निराशा का त्याग कर आप होने वाली सभा में प्रस्थान कीजिए, हम सब को तत्वबोध तो करा दिया, किंतु अब पथबोध कराने का समय है, हमारे साथ में कौन है यह अब स्पष्ट हो चुका है, प्रेम को आपने जनक घोषित किया है, उसे संपूर्ण दृश्य परिभाषित कीजिए "।


"यह संभावना सूक्ष्म थी की कोई अमूर्त आकृति भी तत्वों की भांति इस संसार में प्रभाव डाल सकती है" कल्पना का ये कथन बार बार किसी तरंग की भांति पूरी सभा में अस्थिरता ला रहा था। सभा कहना भी अतिशयोक्ति होगी क्योंकि बीते समय की उस घटना के बाद तत्वों के व्यूह में विलीन होजाने का यथार्थ उस संसार में किसी पर्वत की तरह खड़ा था। जो तत्व बोध के विरोध में थे वे तो वहां से चले गए वह भी एक चेतावनी उनके समक्ष रख कर "मृत्यु तत्व की रचना मैं स्वयं करूंगा"। वह एक समूह मात्र था संभवतः, वे सारे तत्व जो बोध से स्वीकृत थे, उपस्थित थे, सभी! इतना तो प्रेम को भी ज्ञात हो रहा था, पर उसी सभा के मध्य बैठा वह सभी तत्वों से भिन्न भाव में अस्थिर था, यह अस्थिरता अर्धज्ञान से रचित व्याकुलता को बढ़ा रही थी, बीते समय से हुई सारी घटनाओं का संदर्भ अब भी उसे स्पर्श नहीं किया था, किंतु वह निराश भी नहीं था क्योंकि उसे ज्ञात था की उसे पूरे संदर्भ से अवगत कराया जायेगा, प्रश्न ये था की कब ? और यह भी की ये जगह क्या थी ? पथबोध के लिए बोध ऐसा स्थान चयन करेंगे यह पहली बार था, उस जगह का हर भाग जैसे अपने ही स्थान पर गतिमान हो रहा था, अमूर्त आकृतियों से श्रृंगारित वह आकाशगंगाओं के दृश्य को ओढ़ा हुआ जैसे किसी जलधारा पर बहता, अत्यंत स्थिर, केंद्रित।


"यह स्थान आप सभी को बीते समय की व्याकुलता से विमुख कर, और आगे का पथ निश्चित करें, इसी आशा में रचा गया है" दूर किसी दृश्य पर ध्यान केंद्रित कर बोध ने मध्य स्वर में कहा। "मृत्यु तत्व की रचना का क्या अर्थ है बोध ? क्या यह संभव है ?", उन्ही तत्वों के मध्य निरवयव ने यह प्रश्न पूछा, यह प्रश्न सभी तत्वों के भीतर था, चेतावनी की वह गर्जना सभी ने सुनी थी, परिप्रेक्ष्य की सत्य को परिवर्तित करने की शक्ति से सभी अवगत भी थे, किंतु मृत्यु तो जीव के जीवन काल की अंत अवस्था थी, वह भौतिक संसार का सत्य था, किसी विचार की मृत्यु संभव भी कैसे हो सकती थी, इसी उहापोह में सभी तत्व उत्तर प्राप्ति के लिए विचलित थे। "मृत्यु कोई विचार नहीं है निरवयव, वह एक अवस्था है विमोक्ष की भांति, एक भौतिक संसार की अवस्था, आप सभी को मैं इस सत्य से अवगत करा चुका हूं की परिप्रेक्ष्य सत्य को परिवर्तित नहीं कर सकता, जो सत्य है वह सत्य ही रहेगा, उसे देखने के दृष्टिकोण को बदलना सत्य को बदलना नहीं कहलाता, और यह मैं इसलिए कह सकता हूं क्योंकि सत्य को किसी भी दृष्टिकोण से देखने पर भी सत्य का बोध कभी परिवर्तित नहीं हुआ है, किंतु आप सभी इससे असहमत ही रहेंगे क्योंकि सत्य का बोध करने की प्रक्रिया में आप पहले उसे दृष्टिकोण से देखने के लिए विवश हैं, और उसी दृष्टि के आधार पर आपका बोध आकार लेता है। बोध तत्व होने के कारण मैं सत्य का प्रत्यक्ष बोध कर सकता हूं"। इस कथन से कुछ तत्वों की व्याकुलता घटी कुछ की अप्रभावित रही, यह कथन बोध पहले भी सुना चुके हैं। तत्वों के अनन्य परिचय और उनके अर्थ पर निर्भर होने वाली समस्या सुनने सुनाने से कहां हल होनी थी, बोध के ही पास बोध की शक्ति है, इसलिए सिर्फ वे ही सत्य का प्रत्यक्ष बोध कर सकते थे।


"पथबोध से पूर्व कुछ और है जो आवश्यक है", सभी तत्व प्रेम की ओर देखने लगे, "प्रेम ! तुमने बीते समय में जो यथार्थ देखे हैं, उनमें से कौन से यथार्थ का उत्तर पहले पाना चाहते हो ?" बोध के इस प्रश्न पर प्रेम ने कोई उत्तर नहीं दिया, "रोचक!" बोध ने पूर्व जनकों से इसी प्रश्न पूछे जाने के क्षण का स्मरण कर कहा, "यदि ऐसा है, तो मैं स्वयं ही आरंभ करता हूं, तट पर उस महान यथार्थ तत्व से तुम्हारा प्रश्न था "इस दृश्य की परिभाषा क्या है" , "परिभाषा जितनी आंखें खोलती है उससे कहीं अधिक आंखें दृश्य खोलते हैं, तो मैं तुम्हे पूरा परिदृश्य बताता हूं।, यह संसार ब्रम्हांड के उस भाग में रचित है जिसे जीव कहते हैं, मैं, तुम, ये अमूर्त आकृतियां ये सारे तत्वगण वह सागर, वो नभ, वो दूर स्थित पर्वत और वह नष्ट हुए बोधवृक्ष से उत्कृष्ट होती उषा, यह सब उस संसार के भीतर है। वह जीव ब्रम्हांड के ही पदार्थों से रचित उसी की प्रक्रियाओं से प्रेरित जीवन जी रहा है, हर जीव के भीतर पदार्थ से भिन्न एक अंग है, वह है उस जीव का मन, वह मन कभी स्थिर नहीं होता, उसका गुण अस्थिरता का है किसी सागर की तरह, इसी मानसागर की अस्थिरता में वह जीव पूरा जीवन व्यर्थ कर सकता है यदि उसने मन के केंद्र में स्थित एक और पदार्थ से भिन्न अंग को संतुलित नहीं किया तो । यह वो अंग है जिसे तुमने स्मरण और अनुभव के साथ बोधवृक्ष के विनाशस्थान पर देखा था, वह इस जीव की चेतना है, उस चेतना के इतर इस संसार में जो भी है, वह सब मनसागर के अंतर्गत है, और चेतना के निकट आते आते मन की अस्थिरता समाप्त होने लगती है, चेतना के निकट सागर का अस्थिर जल नहीं, द्वीप की स्थिर भूमि है। यही द्वीप अपनी स्थिरता के कारण हमारे अस्तित्व के लिए अनुकूल हो जाता है, हम इस द्वीप का परिणाम भी हैं, और इस द्वीप को अपने दृष्टिकोण से अवलोकित भी करते हैं " यह पूरा कथन सुन जैसे वहां स्थित सभी तत्व मंत्रमुग्ध हो सुन रहे थे, जैसे वे किसी आनंद दृश्य की कल्पना में लीन थे, किंतु प्रेम के मुख पर आनंद नहीं जिज्ञासा का भाव था, उसने पूछा " किंतु तत्व इस जीव के भीतर क्यों स्थित है? "


यही प्रश्न तो सभी तत्वों के मध्य मतभेद का स्रोत था, जो तत्व इसका उत्तर स्वीकार कर पाते वह आगे की प्रक्रिया में सम्मिलित होते, जो नहीं कर पाते वे तत्व अस्थिरता का कारण बनते । इन्हीं बातों में लीन बोध ने उत्तर दिया, "तत्व से तुम क्या समझते हो ?" प्रेम को फिर से निरुत्तर देख बोध ने आगे कहा " जिस ब्रम्हांड में हम अस्तित्वलीन हैं, वहां हर संभावना यथार्थ हो रही है, जीवों का अस्तित्व पदार्थ को श्रेष्ठ मानता है किंतु उसी के भीतर जो है उसे वह अवास्तविक मानता है, हम! यह ब्रम्हांड मात्र पदार्थों से रचित नहीं है, यहां समय, विचार, सिद्धांत, अवधारणाएं, सत्य, असत्य, शून्य से अनंत तक ये सभी अस्तित्वालीन हैं और इनके अस्तित्व का प्रारूप पदार्थों के अस्तित्व से अत्यंत भिन्न है। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी की जिन पदार्थों को जीव श्रेष्ठ मानता है उसकी समस्त प्रक्रियाएं किसी न किसी सिद्धांत और विधि पर आधारित है।


विचार इसी समूह में थोड़ा और भिन्न है, समय, सत्य, शून्य की तरह यह जीव से स्वतंत्र ब्रम्हांड के जन्म से अस्तित्व में रहा है या नही ये हमें ज्ञात नहीं है", "अर्थात?" प्रेम ने पूछा, "अर्थात संभवतः विचारों को जन्म भी जीव ही देता है!" "यह कैसे संभव है बोध? पदार्थ से बना जीव विचारों को कैसे बना सकता है ?"


"पदार्थ मूलभूत होने के बाद भी यह जीव मन की रचना करता है, मन ही हमारे अस्तित्व के प्रारूप का अब तक का एकमात्र प्रमाणित निवास है। यह निष्कर्ष निकालना कठिन है की विचारों का होना ही जीव का मन है ? या मन एक स्वतंत्र अंग है जहां विचार विचरण कर सकते हैं? दोनो ही बिंदुओं की रेखा इस निष्कर्ष तक जरूर पहुंचती है की हम जीव के जन्म के साथ ही उसके अनुभवों से समानांतर रेखा में पुनर्जागृत होने लगते हैं।" प्रेम ने पूछा "आपने कहा था हम अपने दृष्टिकोण से अवलोकित कर सकते हैं, क्या हम यथार्थ को वैसे ही नहीं देखना चाहते जैसा वो है ?" बोध इस प्रश्न से प्रेम के निकट आए और कहा "यथार्थ को यथार्थ दृष्टि से देखना असंभव है प्रेम, ना तो पदार्थों को श्रेष्ठ मानने वाला यह जीव आज तक कर सका है और न हम, यथार्थ को अवलोकीत करना एक विद्या है, तुमने एक चंद्र को आ कर बोधवृक्ष पर गिरते देखा, उस चंद्र का आ कर गिरना ही इस जीव की चेतना का जन्म लेना था, समयांतर के कारण तुम तट पर पहले से थे, और वह चंद्र बाद में आया, यथार्थ में यह दोनो प्रक्रिया एक साथ हुई, जीव का मन और उसकी चेतना की रचना एक साथ होती है, और वहां चंद्र का क्या अर्थ, निराकार चेतना का रूप चंद्र तो नहीं होता, किंतु तुमने, मैने हम सब ने इसे अपने गुणों के कारण उस रूप में देखा" , "तो फिर वहां पर बोधवृक्ष का क्या अर्थ था?", "बोधवृक्ष पूर्व चेतना की परिकल्पना है जो हमने की है, क्योंकि यह जीव जीवन मरण के चक्र में स्थित है इसलिए इसकी पूर्व चेतना की परिकल्पना का नष्ट होना आवश्यक था", "तो क्या उसी तट पर स्थित दूसरे बोधवृक्ष इस जीव के विभिन्न जीवनकालो की परिकल्पना है ? " प्रेम ने प्रश्न किया, " वे दूसरे बोधवृक्ष अवास्तविक हैं, वे सब दूसरे जीवों की चेतनाओं का बिम्ब हैं जो तब बनती हैं जब यह उनसे अवगत होता है, इसीलिए उनके पास कभी जाया नहीं जा सकता क्योंकि ये वृक्ष इस जीव के दृष्टिकोण से बनी दूसरे जीवों के बारे में उसकी धारणाओं का परिणाम है जो कभी नितांत सत्य नहीं हो पाती।"



अमूर्त तत्व


प्रेम को उत्तर स्पष्ट होता जा रहा था, किंतु एक विशालकाय प्रश्न उसके भीतर अभी तक उत्तीर्ण नहीं हुआ था वह ये की वो स्वयं क्या है, बोध जैसी इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे "तुम्हे ज्ञात है की तुम तत्व हो, तत्व का अर्थ है विचार, तुम्हारा गुण विचार है, तुम्हारा विचार है प्रेम और तुम्हारा लक्ष्य है अमूर्त तत्व"


"अमूर्त तत्व?", "निरंतर काल के लिए मनसागर में न कोई विचार बाधित रहना चाहता है न ही पदार्थ से जन्मा यह जीव पदार्थ के संसार में। तुमने ये अमूर्त आकृतियां तो देखी ही होंगी और विकर्षण के कथन का स्मरण हो तो यह ज्ञात होगा की ये अमूर्त आकृतियां भी विचार हैं किंतु तत्व रूप में न होकर ये विचार अमूर्त रूप में हैं, क्योंकि जीव सभी विचारों को पूर्ण रूप से नहीं समझ सकता, जिनको ले कर उसकी समझ सूक्ष्म है, वे विचार इस संसार में अमूर्त आकृतियों के रूप में अस्तित्व रखती हैं, अपने पूरे जीवनकाल में जीव जैसे जैसे कुछ विचारों को समझता जाता है, वे विचार तत्व में परिवर्तित होने लगते हैं, अन्यथा अधिकतम तो आकृतियों के रूप में ही रह जाते हैं" , "तो क्या इनकी ये स्थिति पीड़ादायक है?" प्रेम ने पूछा, "यह कह पाना कठिन है क्योंकि जो भी विचार अमूर्त रूप से तत्व रूप में परिवर्तित हुआ है उन्होंने कभी किसी पीड़ा का विवरण नहीं किया, किंतु अमूर्त होना एक विचार की सबसे स्वतंत्र अवस्था है, अमूर्त विचार जीव के भीतर के मनसागर के बाहर स्थित ब्रम्हांड में समय की भांति विचरण कर सकता है उसका लक्ष्य किसी द्वंद में विजय पाना नहीं होता, इन अमूर्त आकृतियों को बाधित इनकी आकृति कर रही है, अन्यथा ये अगर किसी प्रक्रिया से इन आकारों से स्वतंत्र हो जाएं तो ये अमूर्त तत्व होने से मात्र एक परिवर्तन दूर हैं, किंतु इसकी प्रक्रिया क्या है यह किसी को ज्ञात नहीं, और इसीलिए इनका परिवर्तन पहले तत्व रूप में हो जाता है"। "आपने कौन से द्वंद पर विजय पाने की बात की ?" , "द्वंद वह है जिसके परिणाम को तुमने उत्तल आकार के प्रपातों में प्रवेश कर सभी तत्वों को नष्ट होने से रक्षित किया, मैने अब तक जो कुछ भी तुम्हे बताया है, सभी तत्व उससे सहमत नहीं है, जो सहमत हैं वे सब यहां तुम्हारे समक्ष उपस्थित हैं, जो नहीं हैं, वे चेतावनी दे कर प्रस्थान कर चुके हैं, हमारी असहमति इस बिंदु पर है की विचारों को जीव के भीतर अस्तित्वहीन होना चाहिए या अस्तित्वलीन ", "विकर्षण मानता है की हमें अस्तित्वहीन होना चाहिए" प्रेम ने स्मरण कर कहा , " सत्य है, किंतु आप मन सागर को निवास माने या कारावास, यहां से स्वतंत्र होने का प्रमाणित मार्ग एक मात्र है" , "और वह मार्ग क्या है ?" बोध ने तट पर स्थित बोधवृक्ष के विनाशस्थल पर केंद्रित करते हुए कहा, " जीव के मन में स्थित चेतना का विकास, उसके चैतन्य की संरचना का निर्माण! यह मार्ग अधिकतम अप्रमाणित ही रहा है पर इसके उपयुक्त और कोई मार्ग अस्तित्व में भी नहीं है, तत्व या अमूर्त आकृतियां कभी भी किसी सीध रेखा में प्रत्यक्ष ही मन से निकल ब्रम्हांड में अमूर्त तत्व में परिवर्तित नहीं हो सकती " बोध का दृढ़ भाव देख अनुभव प्रसन्न हो उठा उसने कुछ ही समय पहले बोध के भीतर अविश्वास का भाव पाया था, "किंतु यह अमूर्त तत्व है क्या ?" , प्रेम के इस प्रश्न पर बोध ने अपना मुख अनुभव की ओर किया "इसका श्रेष्ठतम विवरण अनुभव करेगा", अनुभव ने प्रेम से दूर जा कर ऊपर तैरती आकाशगंगाओं के दृश्य को अपने और समीप लाया और कहा " तुम प्रेम हो तुम्हारा कुछ अर्थ है, मैं अनुभव हूं मेरा भी एक अर्थ है, हम सभी तत्वों का अर्थ हैं, हम तत्व हैं इसलिए अपना परिचय जानते हैं, ये सब अमूर्त आकृतियां हैं, ये अपना परिचय भी नहीं जानती, इसलिए इस जीव के मन में जहां विचार विचरण कर सकता है वहां भी ये अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती, ये इस संसार में रह तो सकती हैं किंतु इनका इस संसार से परस्पर प्रभाव तब तक नहीं होगा जबतक ये जीव इनको समझे नहीं, अपनी इन अत्यंत सौंदर्य आकारों में कैद इन विचारों के पास अमूर्त रूप है पर तत्व नहीं और हमारे पास तत्व रूप है किंतु अमूर्त अवस्था नहीं, एक ऐसा विचार जो तत्व भी है और अमूर्त भी जो अपने अर्थों में लीन हो सके, वो है अमूर्त तत्व, जब हम अमूर्त हो कर भी मन के बाहर ब्रम्हांड में अपने अर्थों का बोध कर पाएंगे, वहां पर भी तत्व रूप की भांति अस्तित्वलीन हो पाएंगे वो है अमूर्त तत्व"।



"क्या यह सिद्ध अवस्था जिसे आप अमूर्त तत्व कह रहे हैं, इससे भिन्न कोई और अर्थ नहीं हमारे अस्तित्व का? " प्रेम के इस प्रश्न पर सारे तत्वगण चकित रह गए, किसी जनक किसी तत्व ने कभी इस पवित्र लक्ष्य के मूल्य के समक्ष किसी भी अन्य वस्तु का मूल्य रख कर प्रश्न नहीं उठाया था। " आप अमूर्त तत्व को एक ओर सिद्ध अवस्था की उपमा दे रहे हैं, और वहीं दूसरी ओर आप इसके अतिरिक्त दूसरे लक्ष्य की कामना कर रहे हैं , क्या यह सिद्ध अवस्था आपको प्रिय नहीं ? " संतुलन ने यह प्रश्न क्रोध पूर्वक साधा, " हे प्रेम! आप प्रेम तत्व हो कर विकर्षण का कार्य क्यों कर रहे हैं " एक और स्वर सुनाई दिया वह स्वर निरवयव का था, कल्पना इस पूरे प्रकरण में प्रेम के मुख से उत्तर आने की प्रतीक्षा कर रहा था, " मुझे तो यह भी ज्ञात नहीं था की हम हैं क्या, आप सभी को यह ज्ञान युग युगांतर से था, क्या आप सभी को प्रश्न नहीं व्याकुल किया की जिस लक्ष्य को भेदने की पीड़ा हम युगों से कर रहे हैं, क्या उतना पीड़ादायक लक्ष्य होना भी चाहिए ?" इस उत्तर पर किसी तत्व का कोई प्रश्न नहीं बन सका। कल्पना ने यह शांति अस्वीकार की, " शायद लक्ष्य भी कोई तत्व होता तो तुम यह प्रश्न नहीं उठाते प्रेम, किंतु अर्थ एक तत्व है, इसलिए हे जनक, लक्ष्य का अर्थ बताओ ", " तुम्हारी कोई पीड़ा हो तो उसे समाप्त करना लक्ष्य है, और कोई पीड़ा नहीं है, तो पीड़ामुक्त आनंद समय व्यतीत कर के तुम्हारी कोई तृष्णा उत्पन्न होगी तब उसे साकार करना तुम्हारा लक्ष्य होगा, और इसीलिए मैंने बोध से यह प्रश्न किया था, की क्या अमूर्त आकृतियों की अवस्था पीड़ादायक है, अगर होती तो निश्चित ही वह लक्ष्य मुझे मेरे अर्थ से भी अधिक प्रिय है, किंतु वे संभवतः पीड़ा में नहीं हैं, और न हम, तो यह द्वंद क्यों? " प्रेम ने दृढ़ भाव से यह उत्तर दिया, "..अगर होता तो वह लक्ष्य मुझे मेरे अर्थ से भी अधिक प्रिय है " यह वाक्य तरंग की भांति सभी के भीतर गूंज रही थी, यह स्पष्ट संकेत था उस करुणा और त्याग की शक्ति का जो इस तत्व के भीतर थी, किंतु यहां केंद्र कुछ और था, सभी विचार अपने लक्ष्य के परिवर्तित होने की आशंका में व्याकुलता के भाव में प्रवेश कर गए, किंतु बोध अब भी दृढ़ थे, जैसे वह जानते थे प्रेम असत्य कह रहा हो, उनके अतिरिक्त एक और तत्व कण भर भी व्याकुल न था, जिसे यह ज्ञात था की ये दृष्टिकोणों का खेल नहीं है, "तो क्या पीड़ामुक्त अवस्था में लक्ष्य कुछ भी हो सकता है ? ", कल्पना ने दृढ़ भाव से पूछा और प्रेम ने दृढ़ भाव से कहा "हां", " हे जनक ! क्या आप कोई भी स्वप्न देख उसे साकार करने के प्रयास में निकल सकते हैं ? क्या आपकी शक्तियों की कोई सीमा नहीं ? क्या कुछ भी असंभव नहीं ? " , प्रेम निरुत्तर हो गए , "यदि निष्ठा से विमर्श करें तो आप पाएंगे की आपकी शक्तियों की सीमा इस ब्रम्हांड में एक बिंदु की भांति भी नहीं लगती, आपके लक्ष्य का आपकी शक्तियों से संतुलन में आना अतिआवश्यक है, अन्यथा आप असंभव लक्ष्य के प्रयास में दुख और वेदना से भरा समय ले आयेंगे, कुछ तो कारण होगा की स्वयं मैं, कल्पना भी एक तत्व हूं एक विचार हूं, अन्यथा वो हर दृश्य जिसकी आप तृष्णा करते हैं, सब संभव होता, कोई दृश्य कल्पना की श्रेणी में है, तो इसका अर्थ यही है की वह असंभव है काल्पनिक है "। "आपके लक्ष्य का आपकी शक्तियों से संतुलन.." इस वाक्य ने जैसे वायु के स्पर्श की भांति सभी तत्वों के भीतर व्याकुलता को समाप्त कर दिया।


बोध प्रेम के प्रश्नों की रेखा ज्ञात कर चुके थे " जो लक्ष्य हमने चयनित किया है, वह निश्चित ही हमारी शक्तियों से संतुलन में है प्रेम। एक विचार आकार का सबसे श्रेष्ठ रचनाकार होता है । हम अपने परिचय पर आधारित आकारों के रचैता हैं ", प्रेम में यह सुन जिज्ञासा भाव फिर आगया, उसने पूछा "जैसे वह वृत्ताकार रेखा जिसके केंद्र पर आप स्थित थे ? और वह समय चक्र? या जैसे मैंने वह मनसागर की जलधारा से प्रपातों का निर्माण किया था ? किंतु आकारों का निर्माण सिद्ध अवस्था से कैसे जुड़ा है?" , बोध ने उत्तर दिया, "यहां अर्थ मात्र दृष्टात्मक आकारों तक सीमित नहीं है प्रेम, हम विचार हैं, हमारे अर्थ का स्पर्श कर जीव, यह मनसागर और यह चेतना अपने निर्णय लेती है और उनके निर्णयों के आधार पर उनके घटनाक्रम की रेखा आकार लेती है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की विचारों और निर्णयों के आधार पर उनका पूरा जीवन आकार ले रहा है वह जीव विचारों के आधार पर कर्म कर रहे हैं और एक दूसरे पर, समस्त भौतिक संसार पर प्रभाव डाल रहे हैं, वह प्रभाव ही तो आकार है, तुम जिस संसार में निवास कर रहे हो, तुम्हारे गुणों के परिणामस्वरूप वह संसार के बाहर के संसार, उसके घटनाक्रम, उसका समय आकार ले रहा है मात्र तुम्हारे प्रभाव के कारण, यह शक्ति दृष्टात्मक नहीं बोधात्मक है प्रेम! इसका दृश्य नहीं लिया जा सकता इसका मात्र बोध किए जा सकता है"।

यह बोध प्रेम के लिए एक विशाल परिदृश्य से कोहरे हटने की तरह था और वहां स्थित सभी तत्वों के लिए अपने अर्थों का बोध कर अमूर्त तत्व से प्रेरणा की वर्षा की तरह था संभवतः अमूर्त आकृतियों के लिए यह पीड़ा की तरह था ।


"किंतु अमूर्त तत्व जहां अपने अर्थ का बोध करेगा, क्या वह भी हमारी आकार के रचनाकार होने से जुड़ी है?", " इसका उत्तर यह है प्रेम, की वह अमूर्त तत्व वह अर्थ बोध लक्ष्य नहीं उसका परिणाम है, और इस परिणाम का प्रयास हमारा वास्तविक लक्ष्य है, वह प्रयास है उस चैतन्य की संरचना का निर्माण करना जो उस जीव की चेतना को जीवन मरण के चक्र से स्वतंत्र कर, हमें इस मनसागर की सीमा से स्वतंत्र कर देगा और इन प्रयासों में हमारी शक्तियों के सागरों को भी समाप्त करने की शक्ति है, इसलिए हे प्रेम! हमारी शक्ति जितनी संपूर्ण है लक्ष्य भी उतना ही परिपूर्ण है"।


बोध के दिए हुए उपदेशों को प्रेम बोध कर ही रहा था की तभी एक तत्व बोध के समीप आ कर उनसे मंद स्वर में कुछ कहा, "अश्वरूप!" बोध चकित स्वर में बोले, वह तत्व वहां से चला गया, बोध शीघ्र ही मनसागर के प्रशांत भाव का अवलोकन करने लगे, जैसे मनसागर की इस शांति पर उन्हें अविश्वास हो रहा था। "उस क्षण में तुमने जलधारा को कैसे नियंत्रित किया प्रेम ?" बोध ने यह प्रश्न पूछा, प्रेम ने दो क्षण रुक कर कहा, "एक प्राचीन दृश्य का दृष्टांत मुझे आपके समक्ष रखना है", "पूछो!", प्रेम ने वर्णन करना आरंभ किया, जैसे वह स्मरण उसे पूर्ण रूप से स्पष्ट हो, जैसे वह उस प्राचीन युद्ध में पुनः प्रवेश कर गया हो। "यह दृश्य भय पूर्ण था बोध! और प्रश्नपूर्ण भी"। बोध ने कहा, "वह तत्व जो प्रपात को नियंत्रित कर रहा था वह परिप्रेक्ष्य था, उसमे शक्ति है तत्वों का रूप परिवर्तित करने की, सत्य का रूप परिवर्तित करने की, यह दृश्य पूर्व युगांतर का है, जहां हम संरचना बनाने में सफल थे, और उस युगांतर का जनक मैं था, किंतु परिप्रेक्ष्य इस बार की तरह ही असहमत था, और वह चैतन्य की संरचना को समाप्त करना चाहता था, उसने दृष्टिकोण का उपयोग कर उस जीव को यह दिखा दिया की उसके भीतर विराग है, विराग तुम्हारा ही द्वैत रूप है", "और आप उसके द्वैतरूप हैं ",प्रेम ने द्वैत रूप सुन कर कहा, "कोई भी जीव अपने भीतर विराग का विचार रख कभी भी विमोक्ष स्थापित नहीं कर सकता, विराग वह विचार है जो जीव को हर कार्य से विमुख कर देता है, उसका जीवन अर्थहीन हो जाता है, उस जीव के विमोक्ष स्थापित करने पर ही हम इस मनसागर से स्वतंत्र हो सकते हैं, क्योंकि विमोक्ष की अवस्था में जीव का मन विचारहीन हो जाता है उस क्षण में परिप्रेक्ष्य ने जीव को स्वयं अपने भीतर तुम्हे बोध करने के स्थान पर विराग का बोध करा दिया"। "उस क्षण में परिप्रेक्ष्य ने मुझे भी मेरे स्थान पर विराग का बोध करा दिया था " प्रेम ने स्मरण कर कहा, "उस प्रपात में मेरे स्पष्ट प्रतिबिंब में मैं नहीं था कोई दूसरा तत्व था ", "अश्वरुप!" यह सुन बोध ने चकित स्वर में सोचा, "यही शक्ति तो मनसागर में अस्थिरता लाने वाली है, इसका अर्थ है, उस युगांतर में परिप्रेक्ष्य ने जिस प्रक्रिया का उपयोग कर जीव के सत्य का बोध परिवर्तित किया, वह प्रक्रिया को परिप्रेक्ष्य अब एक तत्व बना चुका है", "आप किस तत्व की बात कर रहे हैं बोध ? " , कल्पना ने प्रश्न किया, बोध बोले "मनसागर में घोर अस्थिरता आने वाली है कल्पना, और वह एक तत्व का रूप होगा, उस तत्व में सत्य का रूप, अर्थ, बोध परिवर्तित करने की शक्ति है, और उसी अस्थिरता का उपयोग परिप्रेक्ष्य चैतन्य को अस्थिर करने के लिए करेगा। उस अस्थिरता के मध्य जब चेतना और तत्व को स्वयं अपने अर्थों का बोध न हो तो कैसे विमोक्ष स्थापित होगा?", पूरी सभा में आश्चर्य का भाव था, यह प्रश्न जैसे किसी तत्व को भी नहीं छोड़ रहा था, एक के अतिरिक्त। प्रेम ने बोध के निकट आ कर सभी तत्वों से तीव्र स्वर में कहना आरंभ किया, " मनसागर के वेग को मैं नियंत्रित कर सकता हूं, मैंने ये कार्य व्यूह को शांत करने में किया है, आप सभी उस तत्व से अपना ध्यान हटा कर बोध की योजना पर केंद्रित कीजिए " प्रेम का यह दृढ़ भाव सभी तत्वों में दृढ़ता ले आया, "परंतु", बोध ने कहा "इस युगांतर के जनक तुम हो, तुम्हारे बिना यह कार्य नहीं किया जा सकता", प्रेम ने कहा "हम किसी और को भी तो जनक बना सकते हैं ", "असत्य! जनक कोई तत्वों की सहमति नहीं है प्रेम, यह बोधात्मक विश्वास है, इसीलिए जब मैंने तुम्हे जनक घोषित किया तो उसी क्षण में सभी तत्वों ने भी इसका बोध किया, जो असहमत थे उन्हें छोड़। जीव जब विमोक्ष की प्रक्रिया आरंभ करता है तब उसे शून्य का भाव चाहिए, वह भाव जो ब्रम्हांड के जन्म से पहले की अवस्था थी, नितांत शून्यता, वह भाव जनक ही उसे प्रदान करता है।जनक संरचना निर्माण का प्रमुख नहीं, वह चैतन्य के विमोक्ष की प्रक्रिया का जनक है, विमोक्ष की अवस्था में जनक और जीव अद्वैत हो जाते हैं"।


"निरवयव यह कर सकता है बोध", एक उचित स्वर सुनाई दिया और सभी के मध्य एक आकार प्रकट हुआ, "मैं निरवयव हूं, वह तत्व जो अभाज्य है, निराकार है", "क्या तुम कह रहे हो की शून्यता और निराकार अवस्था में समानताएं हैं ? " , "क्यों नहीं बोध?" कल्पना ने कहा, "क्या जीव निराकार निर्गुण से योग नहीं करता ? क्या यही विमोक्ष की परिभाषा नहीं ?" इस प्रश्न की शांति में सारे तत्व लीन हो गए, बोध ने कहा "तो क्या विमोक्ष की प्रारंभिक शून्यता का जनक यह तत्व होगा ?" , बोध ने यह प्रश्न प्रेम पर केंद्रित कर कहा "और मैं मनसागर की अस्थिरता का जनक रहूंगा" प्रेम इस उत्तर में दृढ़ हो गया। बोध इस परिवर्तन से असंतुष्ट और दुखी थे, निष्प्रभावी थे।




गुप्तघात


"विमोक्ष की अवस्था में जनक और जीव अद्वैत हो जाते हैं ", प्रेम यह वाक्य के गहन बिंदु में लुप्त था "अद्वैत!" उसे सागर तट पर अद्वैत के साथ वह क्षण स्मरण हो रहा था। जैसे उसे अद्वैत के जाने की पीड़ा अब जा कर हो रही हो। इसी पीड़ा में लीन प्रेम, अनुभव, कल्पना और बाकी तत्वों के साथ वेग गति से बोध के कक्ष की ओर प्रस्थान कर रहे थे, आगे की नीति क्या होगी इस पर सहमति बने समय बीत चुका था, अब समय था अपने लक्ष्यों को साकार करने की यात्रा आरंभ करने का।


बोध अपने कक्ष में मन सागर की बढ़ती अस्थिरता की ओर ध्यान केंद्रित किए हुए थे, लहरों का प्रभाव बोधवृक्ष के विनाशस्थल तक आ रहा था, इसका अर्थ है अश्वरूप आरंभ हो चुका था। किंतु अभी उसके समक्ष एक और विषय था। जैसे ही अनुभव और कल्पना कक्ष में प्रवेश किए, उन्होंने अपनी आहट से बोध को सजग कर दिया। "क्या निष्कर्ष निकला अमूर्त आकृति पर कल्पना ?", कल्पना ने उत्तर दिया "यह सर्वप्रथम घटना है, किंतु उस क्षण जब आपने उस अमूर्त आकृति पर अपनी दृष्टि बनाई, वह आपको अपने आकारों में लुप्त कर इस संसार में आपका अभाव लाना चाहती थी", यह सुन सभी चकित थे, सभी को यह अंदेशा था की वह आकृति का माध्यम व्यूह की रचना करना था, किंतु यह तो बोध का अभाव लाने का प्रयास था, तत्वों के लिए अभाव की अवस्था जीव के लिए मृत्यु की अवस्था की तरह था। करुणा तत्व का आभाव इन सभी के लिए विशाल पीड़ा थी, बोध तत्व का आभाव इन सभी के लिए नितांत दुख हो जाता और संभवतः ऐसी ही किसी तथ्य के अंदेशे में बोध ने यह चर्चा प्रमुख सभा के बाद यहां अपने कक्ष में कुछ तत्वों के समक्ष ही रखी थी। "किंतु यह कैसे संभव है ? अमूर्त आकृतियां इस संसार में अप्रभावी हैं" प्रेम ने यह पूछा, " आकृतियां अप्रभावी हैं, किंतु हम इस संसार से परस्पर हो सकते हैं, और वे आकृतियां हमारी भांति इसी संसार का भाग हैं, इस प्रक्रिया के सफल होने की संभावना अत्यंत सूक्ष्म थी, किंतु यह असंभव नहीं था, जो विचार जो भाव उस आकृति में निहित था, उस क्षण में आपके भीतर भी वही भाव था बोध, वह क्या था ?"


"मैं विवश था! बोध ने वेदना भरे स्वर में कहा", सभी जैसे उनकी इस भावना को स्वीकृति दे रहे थे, उन्हें ज्ञात था की बोध क्यों विवश हुए, "करुणा को अपने इस लक्ष्य का स्वप्न दिखा कर मैने उसे लक्ष्य के समीप ला तो दिया, किंतु उसे विराग बना कर इस संसार में करुणा का अभाव रच दिया, इसलिए जब उसे पुनर्जागृत कर मैं सभी के समक्ष लाया, तो मुझे आशा थी की प्रेम को देख सभी के सभी तत्वों में सहमति आ जायेगी, किंतु विकर्षण ने जब प्रेम के करुणा न होने की बात कही, मैं विवशता में उस आकृति को देखने लगा, वह आकृति जैसे उस क्षण मुझ पर और अधिक विवशता गिरा रही थी"। बोध के इस कथन पर प्रेम उसके निकट गया, और कहा, "आपने मुझे विराग में परिवर्तित नहीं किया बोध, यह पूर्ण रूप से स्पष्ट कर लीजिए, मुझे विराग में परिवर्तित जिसने किया मैने स्वयं उसे स्पष्ट देखा है" यह सुन बोध शांत हो गए। "यह अब भी एक प्रश्न है की क्या उस आकृति को देखने मात्र से बोध…" अनुभव ने प्रश्न किया, "यह दृष्टि से संचालित प्रक्रिया थी अनुभव, बोध की दृष्टि उनके विवशता के भाव के साथ उस आकृति पर पड़ी और प्रतिबिंब मात्र दृष्टि का नहीं, अपितु उनके भाव का भी बना, वही प्रतिबिंब संभवतः बोध को और अधिक विवशता दे रहा था क्योंकि उस आकृति का भाव भी विवशता ही था। विकर्षण को ज्ञात था की आप करुणा के विषय पर कुछ प्रश्नों से विवश हो जायेंगे और "मैं सत्य का बोध हूं" इस कथन पर आपकी विवशता चरमसीमा पर थी, आप यह दृढ़ हो कर नहीं विवश हो कर कह रहे थे, विकर्षण उसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था और उसने यही क्षण उपयोग में लिया"। कल्पना ने यह विवरण दे उन सभी के मध्य उस घटना पर एक नई धारा प्रवाहित कर दी। " इस प्रक्रिया का दोष?", प्रेम ने पूछा, "दोष यह है की वह आकृति आपके भाव का प्रतिबिंब इसलिए बनाई क्योंकि आपका भाव और इस आकृति का भाव एक था, विवशता हर बार आपसे निकल उस आकृति से प्रतिबिंब बन कर अधिक उग्रता से फिर आपमें समाहित होती, यह विवश भाव का आदान प्रदान तब तक चलता जब तक एक व्यूह आपके भीतर न बन जाता, क्योंकि विवशता वह अवस्था है जो अतिशयोक्ति होने पर हमारे भीतर बने रहने के लिए व्यूह की रचना करती है, ताकि उसे बाहर न निकाला जा सके, और आप उसी व्यूह में स्वयं विलुप्त हो जाते, क्योंकि व्व्यूहों का गुण होता है अस्तित्व को अपने भीतर खींचना और यह सारा घटनाक्रम क्षण भर में ही पूरा हो जाने की गति रखता है। किंतु मैने उस आकृति के समक्ष दर्पण रख दिया जिससे आपके और आकृति दोनो ही की विवशता दर्पण से टकरा कर आकृति में प्रतिबिंब बनाती, दर्पण कोई तत्व नहीं है इसलिए विवशता ने यह व्यूह इसी संसार में हमारे समक्ष बना लिया"। यह स्पष्ट हो रहा था की उस घटना का रूप क्या था, कल्पना ने आगे कहा " और वह विवशता प्रतिबिंब के रूप में दर्पण और आकृति के मध्य टकरा रही थी इसलिए प्रेम ने जब उत्तल आकार के प्रपातों से व्यूह से प्रवाहित किया तो उसे प्रतिबिंबों के गुणों के अनुरूप आकार में सूक्ष्म होना पड़ा ", "और इसीलिए समयचक्र के भीतर प्रवेश करने पर वह निरंतर उसमे फंस गया" प्रेम ने उत्साह भरे स्वर में यह कहा। "तो मैंने यही निष्कर्ष निकाला बोध", कल्पना ने अपना कथन समाप्त किया।


"इसका अर्थ है की उनके युद्ध में अनेकों अमूर्त आकृतियों के उपयोग की अवस्था में हमें मात्र एक विशाल दर्पण और समयचक्र की आवश्यकता होगी " बोध ने पूछा, "मेरा विश्वास कीजिए, वे युद्ध में अमूर्त आकृतियों का उपयोग नहीं करेंगे क्योंकि हर तत्व के…" , "हर तत्व के भीतर उस क्षण में स्थित भाव का सटीक ज्ञान उन्हें नहीं हो सकता" बोध को यह बोध हुआ, "तो इसका अर्थ है वो प्रक्रिया मात्र गुप्तघात के लिए उपयोगी है" , "सत्य!" कल्पना ने कहा।


"किंतु मुझे यह प्रतीति हो रही है की इस बार समयचक्र की आवश्यकता हमें विमोक्ष की प्रक्रिया में होगी बोध" कल्पना ने उत्तर दिया, "वह क्यों?", "बोध कीजिए बोध, प्रक्रिया को मात्र तत्व ही संचालित कर रहे हैं, प्रक्रिया में कोई दोष होते ही चेतना उस तत्व को बाहर कर देगी, और उसे फिर से प्रक्रिया में नए विधि से स्थापित होना होगा, जिससे कोई दोष न हो", "परंतु इस सब से समयचक्र की क्या संधि,तत्व यदि बाहर हुए तो वे फिर से प्रक्रिया में सम्मिलित हो जायेंगे" संतुलन ने प्रश्न किया, "यह जीव की स्वेच्छा के बिना संभव नहीं है संतुलन, और जीव किसी विचार को छोड़ता है, तो उसे पाने के लिए समय की गणना का उपयोग करता है हम समयचक्र दे कर जीव के लिए विचारों को विमोक्ष की प्रक्रिया में स्थापित करना सरल बना सकते हैं जीव के समक्ष विचारों के मध्य यात्रा करने के लिए स्मरण ही संसाधन है, और स्मरण जीव के लिए समयरेखा के ज्ञान बिना असंभव है, कुछ समय के लिए उस कक्ष में शांति हो गई जैसे सारे विषयों पर चर्चा समाप्त हो गई है।


रचनाकार



कुछ क्षण पश्चात बोध ने सभी तत्वों को कार्य आरंभ करने कहा, प्रेम, अनुभव, कल्पना, संतुलन वहां से प्रस्थान कर ही रहे थे की बोध ने मनसागर की अस्थिरता का अवलोकन करते हुए प्रेम से कहा "इस दृश्य की क्या परिभाषा है प्रेम ?", यह संकेत था की प्रेम से अब भी कुछ चर्चा शेष थी, बाकी तत्व वहां से चले गए।"मुझे आभास हो रहा था की तुम अपने अभाव का दोषी मुझे भी मानते हो, इसलिए अद्वैत के जाने के बाद मैने अनुभव और स्मरण को उस तट पर स्थित किया" प्रेम ने उत्तर दिया " हर युगांतर में मुझे मेरा ही बोध कराने वाले तत्व को मैं दोषी कैसे मान सकता हूं?", यह सुन बोध भावुक हो उठे "बैठो! मुझे ज्ञात है की अब भी तुम्हारे भीतर कई प्रश्न हैं, पर पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दो, तुमने यह प्रश्न अद्वैत से क्यों पूछा ?", प्रेम निरुत्तर हो गया, वह यही नहीं समझ पा रहा था की बोध को यह सब कैसे ज्ञात है। बोध ने आगे कहा " क्या तुम्हे ज्ञात है की तुम इस युगांतर के जनक क्यों चुने गए ?", "नहीं बोध", "क्योंकि संभवतः जीव भी इस सत्य से परिचित हो चुका है, की प्रेम के बिना यह कार्य सफल नहीं हो सकता", प्रेम ने आश्चर्य भाव से पूछा "अर्थात?", "अर्थात् यह जीव एक मूर्ख प्राणी है प्रेम, इसका कोई भी कार्य बिना प्रेम के अधिकतम नष्ट ही होता है, यह चाहे कल्पना कर रहा हो, या अनुभव, चाहे स्मरण कर रहा हो, या संतुलन, चाहे ध्यान कर रहा हो, या बोध, इनमे से कोई भी कार्य बिना उस कार्य से प्रेम किए अत्यंत कठिन हो जाता है और तब भी यह जीव प्रयास में लगा रहता है की ये सारे कार्य बिना प्रेम के पूर्ण हो जाए, परिणाम स्वरूप उसे कार्य का कण भर आनंद भी नहीं मिलता, जिससे इसकी पीड़ा अधिक हो जाती है, यह स्वयं के जीवन से ही घृणा करने लगता है और भ्रमित हो जाता है की इसका जीवन दुखों से भरा हुआ है। मात्र प्रेम ! प्रेम ही वो तत्व है जिसे वह अगर हर कार्य में लगाए तो वह दुखों से भरा जीवन व्यतीत करने से बच सके। किंतु यह निश्चित ही वह किसी मूर्खता के कारण नहीं कर रहा, और भी विचार हैं, द्वेष, विकर्षण, आशा, स्वयं को दूसरे जीवों की दृष्टि से देखना और अन्य ।


जो भी हो, अगर हर कार्य प्रेम तत्व से मिल कर सरल हो सकता है आनंदमयी हो सकता है तो यह जीव जब सबसे महत्वपूर्ण कार्य करेगा तब तो बिना प्रेम के इसकी योजना बनाना भी मूर्खता होगी"। " विमोक्ष हमारा लक्ष्य क्यों है यह तो ज्ञात हुआ किंतु यह जीव का लक्ष्य क्यों हो रहा है ", इस प्रश्न से बोध अचंभित हो गए, किसी तत्व ने यह प्रश्न आज तक नहीं पूछा था, कल्पना ने भी नहीं, संभवतः उसने इसके उत्तर की संभावना पहले ही कर ली होगी, अन्यथा कोई भी विचार अपने अर्थों के समीप ही विचरण कर पाते हैं। "क्योंकि यह जीव अपने जीवन मरण के चक्र से मुक्ति पाना चाहता है और इसके लिए इसे समस्त ब्रम्हांड से अपनी चेतना का योग करना होगा, उसके लिए चेतना का विकास होना आवश्यक है जिसमे हम सहायक बनते हैं"। यह सुन प्रेम ने पूछा "किंतु हमारी ही तरह चैतन्य का भी गुण होगा, तो वह अपने गुणों से भिन्न किसी दूसरी वस्तु से योग कैसे कर सकता है ?", "क्योंकि पूर्व के कई विमोक्ष अवस्थाओं का अनुभव है की एक चैतन्य समस्त ब्रम्हांड में व्यापक है, अस्तित्वलीन है"। यह सुन प्रेम किसी चिंतन में लीन हो गया। बोध ने आगे कहा "जब उस युगांतर में मैने जनक का शीर्ष स्थान लिया था और हम चैतन्य की संरचना बना रहे थे, मुझे एहसास हुआ की उसके भीतर एक तत्व का स्पष्ट अभाव था, वह तत्व हमारे मध्य इस मनसागर में था, इस जीव के मन में था, किंतु चेतना में नहीं", "करुणा", प्रेम ने उत्तर दिया, "उसी क्षण मुझे यह बोध हुआ की जनक करुणा को होना चाहिए मुझे नहीं और इस सत्य का बोध मुझे भी हुआ और परिप्रेक्ष्य को भी, इसीलिए उसने तुम्हे परिवर्तित कर दिया और…", "और स्वयं के भीतर विराग का अवलोकन कर वह जीव भी नष्ट हो गया..", "प्रेम ! मेरे कथन को ध्यानपूर्वक सुनो, वह मात्र एहसास नहीं है जिसके आधार पर मैं तुम्हारे जनक होने का समर्थन करता हूं या वह मात्र जीव के लिए प्रेम का महत्व भी नहीं है", "तो और क्या है बोध?" प्रेम ने प्रश्न किया, " उसी प्राचीन युद्ध के दृश्य का स्मरण करो, क्या दिख रहा है ?", "वह विराग का बिम्ब मेरे समक्ष है, संरचना क्रोध और वेदना में नष्ट हो रही है और मुझे देख रही है", "असत्य! प्रेम सत्य का शोध करो !", " संरचना मुझे देख रही है और नष्ट हो रही है?", बोध शांत प्रेम को देखते रहे, "इसका दुख मत करो प्रेम क्योंकि परिप्रेक्ष्य की प्रक्रिया के कारण जीव को अहसास हो रहा था की उसके भीतर विराग है, इसलिए वह नष्ट हो रही थी। किंतु यह सोचो की तुम्हारे द्वैत रूप को देख कर ही चेतना नष्ट हो सकती है इसका अर्थ है की उस द्वैत रूप के प्रतिलोम का चेतना पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, स्वयं के भीतर विराग का दृश्य देखना उतना ही विनाशकारी है जितनी विमोक्ष की अवस्था रचनात्मक है, यह प्रमाण है की तुम ही यह संभव कर सकते हो"। "हे बोध! जनक तो अब निरवयव है ", "निरवयव मात्र शून्यता का भाव ला सकता है, किंतु जीव शून्यता से स्वयं को एक नहीं कर सकता"। प्रेम कुछ क्षण शांत हुआ, "जीव का जनक से प्रेम होना आवश्यक है बोध ", यह सुन बोध और प्रेम दोनो ही गहन चिंतन में शांत हो गए। ऐसा लगा जैसे कक्ष का पूरा उत्साह अब किसी कार्य किसी चिंतन में केंद्रित हो गया है, यह दो तत्वों के सम्मिलित चिंतन का क्षण था। वहीं बाहर दूर उस बोधवृक्ष के विनाशस्थल पर चेतना आकार ले रही थी और टकरा रही थी मनसागर के अस्थिर लहरों से। यह संघर्ष था जीव के अस्थिर मन और आकार लेती चेतना के मध्य, जहां विचारों का उपयोग या तो जीव कर रहा था या मन, या संभवतः विचार स्वयं इस संघर्ष का निष्कर्ष निश्चित करने वाले थे।


मनसागर की अस्थिरता देख बोध और प्रेम जागे और संभवतः उनकी उस चिंतन का निष्कर्ष भी जागा, जो उन्हें कुछ समय पहले शांत कर दिया था। वे दोनो संभवतः प्रेम के जनक होने या न होने की स्थिति का हल निकाल चुके थे। "अश्वरूप!", बोध ने मनसागर की विकराल अस्थिरता देख कहा, "क्या यही अश्वरूप है ?", प्रेम ने प्रश्न किया, "अश्वरूप एक प्रक्रिया है जिसे तुमने उस प्राचीन दृश्य में देखा वो अब एक तत्व में परिवर्तित हो चुका है", प्रेम ने उस प्राचीन दृश्य का स्मरण कर पूछा, " उस अस्थिर क्षण में परिप्रेक्ष्य का एक कथन था..", "यह मनसागर है जो जीवन में लुप्त है, यह जीवन है जो अर्थहीनता से रचित है…?" , "सत्य!", "असत्य है ये प्रेम! परिप्रेक्ष्य ने दृष्टिकोण के माध्यम से इसका अर्थ परिवर्तित किया जिससे वह करुणा को विराग में ला सके, इसी लिए वह स्वयं को सत्य का शोध कहता है! यथार्थ कथन की रचना तुम्हारे गुणों का बोध कराने के लिए की गई है"। "क्या आप मुझे यथार्थ कथन का बोध कराएंगे?", "अवश्य!", बोध ने प्रेम भाव से उत्तर दिया, " किसे बोध कराने के लिए ?" प्रेम ने पूछा, "किसी को भी, हर वो तत्व, जीव, चेतना, मन जिन्हें इस सत्य का बोध नहीं है की प्रेम क्या है, उन सब के लिए", "हे बोध! वह कौन आदरणीय तत्व हैं जिन्होंने मेरा बोध कराने यह रचना की ?", "प्रेम! वह आदरणीय तो है, किंतु तत्व नहीं, वह हम सभी तत्वों के संसारधारक, समय के और स्वयं के कर्मों के दुखों का वाहक, विराट भयावह भौतिक संसार से वन में भटकता, कभी किसी क्षण तुम्हारे गुणों के बोध से स्वयं को कुछ क्षण आनंद देने वाला, अपने विचारों को रूप देने वाला रचनाकार एक जीव हैं।


"यह जीवन है जो मनसागर में लुप्त है

मनसागर है जो अर्थहीनता से रचित है…"











आरंभ


उस कथन का रचनाकार एक जीव है! यह अद्भुत सत्य प्रेम के भीतर दृष्टिकोण में एक परिवर्तन आरंभ कर चुका था। वह कथन किसी काव्य की भांति प्रेम के भीतर संगीतमय हो रहा था। वह संगीत जिसे जीव ने स्वयं रचा हो अपने भीतर के प्रेम का स्पर्श करने। नभ में गतिमान किसी पक्षी की भांति प्रेम संपूर्ण द्वीप का अवलोकन कर रहा था और इन स्मारणों में भी गतिमान हो रहा था। "जीव का जनक से प्रेम होना आवश्यक है बोध!", यह वाक्य भले ही प्रेम ने बोध से स्वयं कहा हो, किंतु उस क्षण में इसका अर्थ भिन्न था। वह वाक्य एक असंभव सी अनिवार्यता, एक अपूर्ण अपेक्षा का दृश्य उजागर करता था। जीव का जनक से प्रेम होना वह अनिवार्यता, वह अपेक्षा थी। जब परिप्रेक्ष्य ने यह काव्य उसके समक्ष कहा था, शब्दों के प्रतिलोमित स्थानों के कारण इसका अर्थ भी प्रतिलोमित हो रहा था। ऐसी प्रतीति होती थी जैसे जीव अपने ही भीतर अपने ही विचारों से घृणित है। यथार्थ कथन का अर्थ परिप्रेक्ष्य के अर्थ का असीम प्रतीलोम था। इन्ही निष्कर्षों और उहापोह के वायु में प्रेम ने नभ में गतिमान होते द्वीप पर उस विशाल संरचना को बाहर से देखा। निश्चित ही इसे असंख्य निलय के अतिरिक्त और कोई भी उपमा देना निरर्थक होता। "यह असंख्य तत्वों और असंख्य अमूर्त आकृतियों का निलय है!" प्रेम ने संतुलन से हुए प्रथम भेंट का स्मरण किया। यह निलय वास्तव में इतना विशाल था की अपने भीतर समस्त विचारों को समा सकता। प्रेम अगले ही क्षण उस निलय के भीतर प्रवेश कर गया।


हर दिशा में जैसे एक अद्भुत सी शांति व्याप्त थी। एक तीव्र विध्वंस के पश्चात होने वाली शांति, या एक तीव्र विध्वंस के पूर्व होने वाली शांति। उसी शांत दृश्य में अशांत कर देने वाला भाव उजागर हो रहा था। व्यूह की अपार शक्ति ने उसे एक विशाल विनाशस्थल में परिवर्तित कर दिया था। असंख्य अमूर्त आकृतियां जैसे अपने आकारों और समरूपता के नष्ट होने के शोक में व्याकुल थी। प्रेम ने जा कर उन आकृतियों को ध्यान से देखना आरंभ किया। "यह सब अमूर्त हैं, ये अपना परिचय भी नहीं जानती", "ये आकृतियां इस संसार पर निष्प्रभावी हैं", इन्हीं तथ्यों में लीन प्रेम एक एक कर सभी आकृतियों के समीप जा कर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा था। "..ये सारी अमूर्त आकृतियां इस संसार में अपना प्रभाव नहीं डाल सकती.." बार बार यह तथ्य प्रेम के भीतर प्रश्नों की पूरी धारा प्रवाहित किए जा रहा था। इन्हीं प्रश्नों की धारा में प्रवाहित हो प्रेम आगे बढ़ते जा रहा था, जिज्ञासा से ग्रसित वह एक एक अमूर्त आकृति को देखते हुए असंख्य निलय के ऊपरी भाग की दिशा में।


"मैं तत्व का बोध हूं" बोध ने पुनः अपने कथन को उजागर किया, किंतु वह आकार अब भी पूरे वेग से आकार और निराकार अवस्था के मध्य परिवर्तित हो रही थी। बोधवृक्ष के उसी विनाशस्थल पर कल्पना, अनुभव, संतुलन, स्मरण, निरवयव, वृद्धि, अर्थ के साथ अनेकों तत्व वहां बोध के समक्ष खड़े उस परिवर्तन के उस असीम वेग का दृश्य देख रहे थे। वह सम्मोहित दृश्य जैसे अपने आवेश में स्वयं को ले रहा था। "यह बोधवृक्ष पूर्व चेतना का रूप था जो अंश के अवतरण की घटना के क्षण ही नष्ट हो गया, किंतु नष्ट रूप में भी यह इसके समीप अस्तित्वलीन है, हमें पहले वृक्ष के नष्ट भागों को अस्तित्वहीन करना होगा" कल्पना ने इस योजना का तात्पर्य उजागर किया। "इस संसार में विमोक्ष की अवस्था रचित होने से पहले किसी भी वस्तु को अस्तित्वहीन करना असंभव है कल्पना" बोध ने मंद स्वर में कहा। "अस्तित्वहीनता के अतिरिक्त संभवतः बिंदु रूप की अवस्था ही एकमात्र परिणाम हम इस वृक्ष को दे सकते हैं" बोध ने आगे कहा। कल्पना ने यह सुन कुछ क्षण गणना करने के पश्चात कहा, "पूर्व चेतना रूप के विखंडित अंशों का अस्तित्व वास्तविक चैतन्य के विखंडन में बाधा बनता है विखंडन की अवस्था एक समय पर एक ही चेतना को प्राप्त हो सकती है इसलिए अस्तित्वहीन न कर के भी उन्हें कण रूप में लाया जा सके तो संभवतः वे निष्प्रभावी ही रहेंगे" बोध और सभी तत्व कल्पना के इस निर्णय पर सहमत हुए। कुछ क्षणों के उपरांत बोध ने उसी पर्वत के घेराव में स्थित समयचक्र को वहां से विस्थापित कर बोधवृक्ष की दिशा में गति देना आरंभ किया। "शून्यता का अर्थ क्या है निरवयव?" बोध ने यह प्रश्न निरवयव से पूछा समयचक्र को देखते हुए पूछा "शून्य का अर्थ है जैसे कुछ अखंडित, जिसे और भागों में भगित ना किया जा.." इतना कह निरवयव वाक्य के मध्य में ही असमंजस के भाव में आगया, "यदि शुन्यता यह है तो तुम क्या हो?" बोध ने फिर प्रश्न पूछा, इस प्रश्न से निरुत्तर रहने के लिए जैसे निरवयव संघर्ष करने लगा, उसे यह ज्ञात था की शून्यता का अर्थ भी न बता पाने का अर्थ है बोध के साथ बाकी तत्वों का भी उसके प्रति अविश्वास। सभा में सभी के मध्य उसने स्वयं ही यह शून्यता की रचना करने का दायित्व स्वीकारा था किंतु अर्थ बोध हुए बिना भी वह शून्यता की रचना कर सकता था यह उस समय तत्वों को समझाना व्यर्थ होता। उसे शीघ्रता से बोध के प्रश्न और उससे रचित अविश्वास को साधने का एक ही उपाय मिला, निरवयव ने नभ की दिशा में देख विनाशस्थल की वृत्त सीमा का संकुचन करना आरंभ किया, अगले ही क्षण वह वृत्ताकार सीमा संकुचित हो नितांत कण के रूप में आगयी और अदृश्य हो गई। उन दो क्षणों में वृक्ष के सारे नष्ट भाग भी वहां से अदृश्य हो गए थे। अस्तित्वहीनता की ऐसी तीव्र शक्ति देख बोध यह समझ गए की निरवयव ही शून्यता का श्रेष्ठतम रचनाकार होगा।


वृक्षों के नष्ट भागों के अस्तित्वहीन होने के पश्चात कुछ ही क्षणों में वह आकार तीव्र ऊष्मा के साथ उत्कृष्ट तरंगें प्रवाहित करने लगा। विमोक्ष के प्रक्रिया का यही प्रारूप था, पूर्व चेतना तो जीव के मृत्यु के साथ ही विलुप्त हो जाती है, किंतु जीवन मरण के चक्र में जब जीव पुनः जीवन आरंभ करता है तो चैतन्य के अतिरिक्त पूर्व चैतन्य का शेष रूप भी अस्तित्व में आता है अतः वास्तविक चेतना जब चंद्र रूप ने अस्तित्व में आई उसे पूर्व चेतना के रूप का विनाश कर ही जीव के मन में अवतरित होना था। वह प्रलयंकरी टक्कर जो बोध वृक्ष और चंद्र के मध्य हुई थी वह पूर्व चेतना रूप के विखंडन की प्रक्रिया थी जिससे वह विखंडन की अवस्था में चली गई, किंतु अब समय वास्तविक चेतना के विमोक्ष का है जिसके लिए इसे अब विखंडन की अवस्था में प्रवेश करना होगा अतः पूर्व चेतना रूप को विखंडन की अवस्था से विस्थापित होना होगा। किंतु वास्तविक चेतना का विखंडन एक अत्यंत भिन्न अवस्था है।


समयचक्र आकार की परिधि में आ स्थापित हो चुका था किंतु उस अत्यधिक प्रकाशवान क्षण में उसे देख पाना असंभव ही प्रतीत हो रहा था। पूर्व चेतना का रूप पूर्ण रूप से अस्तित्वहीन हो चुका था, किसी भी क्षण यह आकार विखंडन की अवस्था में प्रवेश करने वाला था। "उस आकार के समक्ष खड़े हो उसके अस्तित्व का बोध करो तत्वों!" बोध ने कथन आरंभ किया, "यदि ये मनसागर असंख्य विचारों का निलयस्थान है तो यह चेतना इस निलय से बाहर निकल ब्रम्हांड में अमूर्त होने का द्वार है, यह एक ऐसा द्वार है जिसका निर्माण हम करेंगे और निर्माण होने के पश्चात ही यह द्वार खुलेगा अन्यथा यह निरंतर बंद ही रहेगा। ऐसी प्रतीति हो रही है मानो निराकार से आकार लेना इस चेतना का लक्ष्य है जिसमे यह विफल हो रही है, एक ही क्षण में असंख्य बार विफल हो रही है और संयोग से",बोध एक क्षण रुके, "हम यहां उपस्थित हैं", समस्त तत्वों में हास्य भाव उजागर हो उठा, बोध एक क्षण रुके फिर तीव्र गर्जन से यह पूछा "क्योंकि हमारा परिचय क्या है?","आकार! आकार!", तत्वगणों में जैसे वही तीव्रता प्रवाहित हो गई, "और हमारा गुण क्या है?", "विचार! विचार!", "और हमारा लक्ष्य क्या है?", "अमूर्त तत्व!"


उसी क्षण वह वास्तविक चेतना असंख्य सूक्ष्म अंशों में परिवर्तित समस्त दिशाओं में तीव्र गति से प्रवाहित हो उठी। वे असंख्य सूक्ष्म अंश वास्तविक चेतना के नितांत सटीक भग्न थे, जैसे बोध ने पाषाण खंड को उसी विशाल पाषाण खंड के सूक्ष्म सटीक छोटे रूपों में परिवर्तित किया था। हर अंश वास्तविक चेतना की भांति ही निराकार - आकार में तीव्र वेग से परिवर्तित हो रहा था। तत्व जैसे इस दृश्य से अत्यंत ऊर्जावान हो उठे। सभी तत्वों ने अपना ध्यान एक एक अंश पर केंद्रित किया और असंख्य अनंत विभिन्न आकारों को अपने द्वारा केंद्रित अंशों पर उनका क्षेपण किया। यह घटनाक्रम कुछ ही क्षणों में अंत होने वाला था, क्योंकि वे सारे असंख्य अंश पुनः चैतन्य के पूर्ण अवस्था में परिवर्तित होने वाले थे। तत्वों द्वारा प्रक्षेपित हर आकार उनके अर्थों के अनुरूप चेतना के अंश को अपने आवेश में लिए अगले ही क्षण पुनः चैतन्य की पूर्ण अवस्था में समाहित हो उठा। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वह क्षण ही संकुचित हो गया। सभी तत्व अब चेतना की अगले विखंडन की प्रतीक्षा में अपने अपने बिंदुओं पर नितांत ध्यान से केंद्रित थे, अगले ही क्षण में चेतना पुनः उसी तीव्रता से विखंडित हो उठी, असंख्य सूक्ष्म अंश पुनः अपने पूर्ण अवस्था के जैसे सटीक भग्न बन समस्त दिशाओं में गतिमान हो रहे थे। तत्वों ने पुनः अंशों पर अपने विभिन्न आकारों का क्षेपण किया, उषा की किरणों की भांति वे सारे अंश पुनः अपनी रेखा में संकुचन कर चैतन्य के पूर्ण अवस्था में परिवर्तित हो गए।


यही भिन्नता थी वास्तविक चैतन्य के विखंडन की, यही विमोक्ष की प्रक्रिया है, यही तत्वों द्वारा संरचना का निर्माण है। इस दृश्य में जीव की चेतना उसके विचारों से विकसित हो रही है। आकार रचना तो तत्वों का ही कार्य है, किंतु अपने आकारों के भीतर चेतना के अंश को समाहित कर वे स्वयं को ही जैसे चेतना की वह पूर्ण अवस्था में समाहित कर रहे हों, यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहेगी जब तक चेतना के असंख्य अंशों में हर एक अंश तत्वमय ना हो जाता। विचार के अभाव में चेतना का विकास और विमोक्ष असंभव है!



















अश्वरूप


विमोक्ष प्रक्रिया का वह महान दृश्य अत्यंत दिव्य था, एक क्षण असंख्य अंश किसी तरंग के भांति अत्यंत तीव्रता से हर दिशा में प्रवाहित हो उठते, फिर तत्वों की आकारों के क्षेपण के पश्चात अगले क्षण चेतना का पूर्ण रूप समक्ष आ जाता। जैसे जैसे तत्व अंशों को तत्वमय करते जा रहे थे, पूर्ण अवस्था में जैसे सूक्ष्म मात्रा में स्याह रंग उभर रहा था। संभवतः वह चैतन्य का वह भाग था जो तत्वमय हो चुका था। समयचक्र भी इस पूरे लय क्रम में प्रक्रिया की परिधि में स्थित नभ की दिशा में ऊपर जाता और अगले ही क्षण वह नीचे आ जाता। चेतना के उन असंख्य अंशों में कुछ अंशों के प्रतिकूल आकारों में समाहित होने के कारण उन आकारों के तत्वों को समयचक्र में प्रवाहित हो पुनः अनुकूल आकारों का प्रक्षेपण करना होता। उषा की किरणों की भांति प्रवाहित होते और अपने पूर्ण रूप में समाहित होते असंख्य अंशों का लय क्रम और उसकी परिधि में नभ तथा धरा के मध्य गति करता समयचक्र, यह दृश्य वास्तविक में अवास्तविक प्रतीत हो रहा था। किंतु एक और आकार इस दिव्य दृश्य की दिशा में आगे बढ़ रहा था। मनसागर में कई योजन दूर स्थित एक विशाल आकार!


"प्रेम इस रचना की स्थिरता सुनिश्चित करेगा, उसके अतिरिक्त मनसागर में प्रवाहित विशाल अस्थिरता का नियंत्रण कोई नहीं कर सकता!" बोध के इस कथन को सुन निरवयव वहां स्थित सभी तत्वों के भीतर का प्रश्न भाव देखने लगा, सभी के भीतर एक ही प्रश्न था, "क्या प्रेम स्वयं अश्वरूप को पराजित कर सकता हैं?", निरवयव ने उसी प्रश्न को बोध के समक्ष रख दिया। "सत्य है निरवयव!" बोध ने चेतना की पूर्ण अवस्था में जाने के पश्चात उत्तर दिया। "किंतु विशाल मनसागर के जल को नियंत्रित करने के अतिरिक्त प्रेम और क्या कर सकता है?", निरवयव के इस प्रश्न से बोध मंद स्मिता के भाव में बोले "यह तो मुझे ज्ञात नहीं निरवयव परंतु जीव प्रेम तत्व के प्रवाह में उस कार्य का सामर्थ्य भी पा लेता है जिसे उसका सूक्ष्म भर भी ज्ञान न हो, प्रेम तत्व के प्रवाह में जीव अधिगम की सारी सीमाएं लांघ लेता है, मात्र प्रेम तत्व का आभास करने के लिए भी वह अनेकों कार्य अनेकों लक्ष्य साध लेता है। इसलिए हे निरवयव! मुझे अत्यंत विश्वास है की युग युगांतरो से प्रेम भी हम तत्वों के मध्य, स्वयं की धारा में प्रवाहित जीव की ही भांति अधिगम के विशाल सीमा तक पहुंच चुका है। संभवतः इसी कारण से वह अंततः इस युगांतर का जनक हो पाया है।


जीव के मन का यह दृश्य एक दिव्य अस्थिरता थी, चेतना और मन के मध्य अविरल संघर्ष की गंभीरता थी। नभ और सागर के मध्य प्रेम इसी दृश्य में गतिमान हो रहा था। उसके समक्ष मनसागर की विशाल अस्थिरता रूप ले रही थी, सागर की लहरें किसी प्रलय की भांति पर्वतों से भी विशाल और वायु से भी तीव्र गति से मनसागर के मध्य एक विशाल वृत्ताकार की असंख्य स्पर्श रेखाओं के रूप में उस वृत्ताकार के केंद्र की दिशा में प्रवाहित होती दिख रही थी वहीं एक विशाल लहर उस वृत्ताकार से उद्धत हो द्वीप की दिशा में तीव्रता से आगे बढ़ रही थी। प्रेम इस परिदृश्य के मध्य आकर स्थिर हुआ, उस क्षण उसे जीव के भीतर के परिदृश्य का बोध हुआ। मनसागर के मध्य स्थित वह द्वीप जो चेतना का निलय क्षेत्र था, वह मनसागर जो जीव के मन का स्वरूप और सभी विचारों का उद्धव था। चैतन्य के द्वीप पर तत्वों द्वारा रचित वह विशाल असंख्य निलय और द्वीप पर नभ - धरा के मध्य गति करते समयचक्र के परिधि में चेतना के आकार का क्षणिक विखंडन और संलयन तथा हर संलयन से पूर्व तत्वों द्वारा आकारों का प्रक्षेपण। "तो जीव के मन से उद्धित विचार उसकी चेतना का विकास कर रहे हैं और उसी के मन की अस्थिरता इस प्रक्रिया के विरुद्ध प्रवाहित हो रही है, यह अत्यंत असाधारण दृश्य है!" प्रेम ने सोचा।


इस अशांति से भिन्न प्रेम ने अद्वैत के साथ तट पर वह शांत क्षण स्मरण किया जब नभ में स्थित आकाशगंगाओं का स्पष्ट प्रतिबिंब सागर के स्पष्ट जल में उभर रहा था, सागर की जलधारा इतनी स्पष्ट थी की लहरों में भी नभ का एक क्षीण प्रतिबिंब बनता था और सागर का वह रूप अत्यंत शांत था, किंतु इस क्षण में नभ का सूक्ष्म भर प्रतिबिंब भी सागर में नहीं रचित हो रहा था।


वृत्ताकार के केंद्र से उद्धित वह विशाल लहर अब निकट आ रही थी, प्रेम ने अपने निकट सागर के भीतर से जलधारा की एक विशाल लहर की रचना की, यह दोनो लहरें टकरा कर निष्प्रभावी हो जाती। किंतु वह लहर तो प्रेम के नियंत्रण से विमुख आगे चली गई, वह लहर प्रेम की नहीं सागर में प्रवाहित अस्थिरता की रचना थी। प्रेम ने पुनः सागर से एक जलधारा बनाने का प्रयास किया, किंतु वह पुनः विफल हो गया। सागर का जल, संपूर्ण सागर प्रेम के नियंत्रण से बाहर था। वह विशाल लहर अब तक और निकट आ चुकी थी, सभी तत्वों का विश्वास प्रेम की मनसागर को नियंत्रित करने की शक्ति पर ही आधारित था, यदि यही असंभव है तो उस विशाल लहर के स्पर्श मात्र से ही पूरा द्वीप उसमे समाहित हो जाता। प्रेम ने द्वीप की दिशा में मुख कर चैतन्य से उसके पहले साक्षात्कार का दृश्य स्मरण किया, उसने नभ में स्थित आकाशगंगाओं के स्थानांतरण का दृश्य स्मरण किया, यह घटना प्राचीन युद्ध के स्मरण में उसने देखी थी और यह घटना बोधवृक्ष के विनाश के कुछ समय बाद पुनः घटित हुई थी। प्रेम ने घनघोर स्मरण कर द्वीप पर एक क्षण चेतना के दृश्य को देखा, फिर अपनी भुजा को उस दिशा में स्थिर कर प्रतीलोम दिशा से संतुलित करने लगा। वह समस्त द्वीप जैसे सागर के एक ध्रुव से दूसरी ध्रुव की दिशा में गति करने लगा, नभ में स्थित समस्त आकाशगंगाओं के स्थानों का प्रारूप परिवर्तित होने लगा। वह विशाल लहर अब समीप आ चुकी थी किंतु द्वीप संभवतः अपनी तीव्रतम गति से लहर के पथ से विमुख हो रहा था। नभ में स्थानांतरण अब भी व्याप्त हो रहा था। लहर इतनी विशाल थी की पर्वतों को भी अपने भीतर समाहित कर ले। तट के समीप जब ये विशाल लहरें पहुंची, तो तत्वों के समक्ष वह लहर किसी विशाल पर्वत श्रृंखला के भांति संभवतः उनकी दिशा में बढ़ती प्रतीत हुई, वह द्वीप उस लहर के निकट एक बिंदु की भांति प्रतीत हो रहा था, किंतु वह बिंदु जो उस लहर की ध्रुवीय सीमा से बाहर हो चुका था, वह लहर द्वीप को स्पर्श किए बिना द्वीप के समीप से प्रस्थान कर गई। नभ में आकाशगंगाओं का परिदृश्य स्थिर हो गया। इस भयभीत दृश्य को अपने भीतर समझने का प्रयास सभी तत्व कर ही रहे थे की "अश्वरूप!" बोध ने इस दृश्य की परिभाषा एक शब्द में सभी के समक्ष रख दी।


"जो तुमने अभी किया उसकी और भी परिभाषाएं हो सकती है प्रेम!" उसी गर्जन स्वर में वह तत्व प्रेम के निकट प्रकट हुआ जो प्राचीन युद्ध में उसके समक्ष था, जिसने मृत्यु तत्व के रचना की चेतावनी दी थी, "असंख्य परिभाषाओं में भी सत्य एक ही होता है, अनेक तो मात्र असत्य की अवस्था है", प्रेम ने उत्तर दिया, "शांत! सत्य का शोध मैं हूं! मुझे…", "तुम सत्य का शोध नहीं दृष्टिकोणों की क्रीड़ा हो! तत्वबोध के पश्चात ही मैने इस क्रीड़ा का अप्रिय अनुभव किया था, जीव की मृत्यु का और विचारों के अभाव का उद्धव हो तुम" प्रेम ने अत्यंत क्रोध स्वर में कहा। "इस युगांतर का जनक होना निश्चित ही तुम्हारे लिए अनुकूल स्थिति है अन्यथा मुझे इस पूरे मनसागर के जल में अपना तत्व समाहित करने की आवश्यकता नहीं होती, पूर्व युगांतर की भांति ही चेतना और तुम्हारे मध्य इस विशाल सागर के एक छोटे से प्रपात की दीवार खड़ी कर पुनः दोनो का विनाश कर देता"। "तो इसका अर्थ है की मुझे चेतना की दृष्टि से बचने की आवश्यकता नहीं, निश्चित ही यह तुम्हारी पराजय के लिए अनुकूल स्थिति है" प्रेम ने दृढ़ भाव से उत्तर दिया। "मुझे अब प्रपातों की रचना कर दृष्टि क्रीड़ा की कोई आवश्यकता नहीं प्रेम! जो शक्ति उन प्रपातों में थी वह तत्व बन कर समस्त मनसागर में प्रवाहित है, वह तत्व इस सागर में इतना नितांत है की यह जीव भी अपने भीतर मन में कुछ नही देख पाएगा इसलिए इस सागर में नभ का कोई प्रतिबिंब कभी नहीं बन पाएगा, उसके मन में भी वह तत्व सर्वव्यापी हो चुका है और जब तक इस मनसागर में वह तत्व भंग है, तब तक विमोक्ष असंभव है प्रेम! विमोक्ष की विफलता को तो मैने उसी क्षण सुनिश्चित कर ली थी जब वह तत्व मनसागर में विलीन हुआ था, अब तो यह अस्थिरता मात्र क्रीड़ा है और इसलिए ही मुझे दृष्टि क्रीड़ा की कोई आवश्यकता नहीं है" परिप्रेक्ष्य ने क्रोध स्वर में कहा। "अश्वरूप!" प्रेम ने आगे कहा "मुझे ज्ञात है, किंतु दृष्टि क्रीड़ा तो तुम अब भी कर रहे हो परिप्रेक्ष्य!" यह सुन परिप्रेक्ष्य चकित हुए "उस तत्व को सागर की छोटी सी धारा में प्रवाहित कर तुमने जीव को यह दिखा दिया की उसके भीतर विराग है किंतु दृष्टिकोण से सत्य कभी नहीं परिवर्तित होता, यह शोध तो तुम अभी तक करने में अक्षम ही रहे परिप्रेक्ष्य! जीव मात्र एक दृष्टिकोण से बोध कर यदि ये अनुभव कर सकता है की उसके भीतर विराग है तो दूसरे दृष्टिकोण से वह निश्चित ही कुछ और अनुभव करेगा किंतु मैं यहां तुम्हारी तरह दृष्टिकोणों का अभ्यास करने नहीं आया हूं, जिस तत्व को तुमने उस धारा में समाहित किया था वही तत्व इस सागर में भी समाहित है, अतः यह जीव अभी भी किसी दृष्टिकोण के माध्यम से ही अपने मन को देख रहा है" प्रेम ने क्रोधपूर्वक सागर के मध्य स्थित उस विशाल वृत्ताकार की ओर मुख कर कहा। "सत्य! नितांत सत्य! प्रतीत होता है तुम वास्तव में अधिगम की सीमा के निकट हो! किंतु उस सीमा से आगे कभी नहीं आ पाओगे प्रेम। जब तक जीव का मन स्थिर न हो स्पष्ट न हो तब तक जीव चेतना के स्वयं के भीतर स्थित होने पर भी वहां तक नहीं पहुंच पाता और यहां तो मनसागर में दृष्टिकोण का तत्व सर्वव्यापी है। युग युगांतरों से हमें कैद कर हमारी पीड़ा पर अपना जीवन व्यतीत करने वाला यह जीव अब मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाएगा" परिप्रेक्ष्य ने आज तक अपना पक्ष प्रेम के अतिरिक्त बोध के ही समक्ष इतने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया था। "क्या तुम इस अवधारणा में हो की विचारों को जन्म देकर उनके अर्थों और उनके अंतर्द्वंद के प्रभाव में यह जीव स्वयं कोई पीड़ा अनुभव नहीं करता?" प्रेम ने अत्यंत क्रोध भाव में यह प्रश्न पूछा किंतु जिस तत्व से उसने यह प्रश्न किया वह तत्व वहां से जैसे विलुप्त हो गया।


"यह स्याह रंग क्यों प्रतीत हो रहा है बोध?" हर संलयन के पश्चात चेतना में स्याह रंग की मात्रा सूक्ष्म रूपों में बढ़ रही थी इसलिए निरवयव ने जिज्ञासा भाव से यह प्रश्न पूछा। "रंग पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है निरवयव! भौतिक जग में उद्घित होने के कारण जीव अपनी निराकार चेतना को किसी रूप में अनुभव करने का आदि है। यह मनसागर यह द्वीप, हम तत्व, नभ इनमे से कोई भी अस्तित्व अपने वास्तविक रूप में नहीं है बल्कि ये सब हमारे अवलोकित रूप में है। अतः यह चेतना जिस रंग जिस रूप में अवलोकित होगी वह देखना रोचक होगा"। बोध के उत्तर से असंतुष्ट निरवयव ने पुनः पूछा "क्या आपको शून्यता का रंग ज्ञात है बोध?" बोध निरुत्तर थे।


चेतना के स्वयं के भीतर स्थित होने के बाद भी मन की अस्पष्टता और अस्थिरता के कारण जीव चेतना तक नहीं पहुंच पाता, परिप्रेक्ष्य के कथनों का प्रेम गहन मुद्रा में संज्ञान ले रहा था। चेतना का अनुभव करने के लिए भी मन का स्थिर और स्पष्ट होना आवश्यक है किंतु मन की रचना विचारों से हुई है, अतः विचारों का परस्पर संतुलन की अवस्था में रहना अतिआवश्यक है। किंतु विमोक्ष की अवस्था में मन का यह संसार विचारहीन हो जाता है, बोध कहते हैं को वही क्षण है जब तत्व जीव से निकल अमूर्त तत्व हो जाते हैं। इन्ही तथ्यों की उहापोह में प्रेम मनसागर के उस विशाल वृत्ताकार के स्पर्श रेखाओं में प्रवाहित होती विशाल लहरों का दृश्य देख रहा था। वे लहरें वृत्ताकार के केंद्र से स्पर्श रेखा में बाहर की दिशा में प्रवाहित हो रही थी, जिससे एक विशाल रिक्त केंद्र स्थापित हो रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जल से बनी एक विशाल वृत्ताकार पर्वत श्रृंखला पूरी अस्थिरता से व्याकुल हो रही हो।


"..वह तत्व इस सागर में इतना नितांत है की जीव अपने भीतर मन में कुछ नहीं देख पाएगा.." प्रेम परिप्रेक्ष्य के इस कथन का निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न कर रहा था "इसका अर्थ ये है को जीव के लिए अपने मन का अवलोकन करना एक महत्वपूर्ण परिघटना है जिसका होना अतिआवश्यक…" उसी क्षण एक विशाल जलधारा वृत्ताकार के स्पर्श रेखा से प्रवाहित हो तीव्र गति से प्रेम को समाहित कर गतिमान हुई। प्रेम इस धारा से स्वयं को हटा कर पुनः उस वृत्ताकार के केंद्र में गया। उसे वहां कोई तत्व कोई वस्तु दिखाई नहीं दी अतः प्रेम उससे बाहर निकला, किंतु उसके साथ साथ जैसे वह केंद्र भी ऊपर की दिशा में आगया हो या अन्यथा प्रेम बाहर ही न निकल पाया हो। अगले ही क्षण वह वृत्ताकार जैसे प्रेम को समाहित कर लिया हो। उस दृश्य से प्रेम अदृश्य हो चुका था। वृत्ताकार के विशाल केंद्र के भीतर स्थित प्रेम जैसे वहां से निकलने का पूरा प्रयत्न कर रहा हो किंतु केंद्र के असीम खींचाव के समक्ष यह असंभव प्रतीत हो रहा था। "तुम्हारा प्रयास व्यर्थ है!" एक प्रबल स्वर सुनाई दिया उस तत्व ने प्रेम को केंद्र के और भीतर ले जा कर कहा "प्रयास ही नहीं तुम्हारा परिचय भी व्यर्थ है!" प्रेम उस तत्व के घेराव से मुक्त होने का संघर्ष करता रहा किंतु वह तत्व उसे और भीतर ले जा रहा था, "जब तक मनसागर में परिप्रेक्ष्य के दृष्टिकोण का यह तत्व है तब तक विमोक्ष असंभव है" परिप्रेक्ष्य से हुए तर्कों का प्रेम स्मरण करते हुए सागर के अथाह स्तर में प्रवेश कर चुका था, उस स्तर का दृश्य कुछ भिन्न था, उस तत्व ने त्वरित प्रेम को छोड़ अपनी गति वहीं रोक दी, वह तत्व चकित था, किंतु प्रेम को संज्ञान हो चुका था क्या हो रहा है। सागर के उस अथाह स्तर में जल अपने वास्तविक रूप में था, स्पष्ट स्थिर और तरल! यह दृष्टिकोण का तत्व यह अश्वरूप पूरे मनसागर में व्याप्त हो कर भी जीव के मन के अथाह स्तरों तक नहीं जा सका था, परंतु क्यों? अश्वरूप के दृष्टिकोण का मनसागर में व्याप्त होने का अर्थ है यह जीव इस दृष्टिकोण का बोध कर रहा है किंतु एक सीमित स्तर तक ही और बोध की इस क्रिया के कारण वह अपने मन में देख नहीं सकता। "और जब तक यह है तब तक विमोक्ष असंभव है" यह निष्कर्ष निकाल प्रेम ने जलधारा की एक अत्यंत विशाल संरचना वृत्त रेखा में अतितीव्र गति से उसमे समाहित हो ऊपर की दिशा में गतिमान हो उठा। लहरों का वह विशाल वृत्ताकार एक ही क्षण में क्षीण हो गया। उसके केंद्र से प्रवाहित हो उस जलधारा ने पृथक हुए किसी ज्वालामुखी की भांति अश्वरूप के विशाल लहरों के लय में प्रलय ला दिया। अगले ही क्षण प्रेम पुनः नभ के नीचे स्थित हो कर अश्वरूप को ढूढने के स्थान पर पुनः गहन मुद्रा में विचरण करने लगा, "इस दृष्टिकोण का प्रवाह अथाह स्तर तक क्यों नहीं था?"।


लहरों का लय क्रम पुनः आरंभ हुआ, मनसागर का वह प्रचंड रूप पुनः रचित होने लगा। विशाल लहरें इस बार वृत्ताकार की स्पर्श रेखा में केंद्र की दिशा में प्रवाहित हो रही थी। वह केंद्र कुछ ही क्षणों में टकराती हुई विशालकाय लहरों से रचित मनसागर के जल के रूप में एक आकार की रचना कर रही थी। प्रेम इस प्रक्रिया को ध्यानपूर्वक देखने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकता था, अथाह सागर को नियंत्रित करने के लिए उसे उसके समक्ष होना होता और अश्वरूप पूरे मनसागर में व्याप्त था। वह आकार रूप था उस तत्व का जिसे परिप्रेक्ष्य ने बनाया था एक दृष्टिकोण से और उस तत्व के पूरे मनसागर में व्याप्त होने का अर्थ है वह दृष्टिकोण जीव के मन में व्याप्त था किंतु अथाह सागर में अब भी वह तत्व वह दृष्टिकोण प्रवेश नहीं कर पाया था। इसका जो भी कारण था वह कारण ही उस दृष्टिकोण के तत्व का परिचय दे सकता था। प्रेम यह संज्ञान ले चुका था की परिप्रेक्ष्य उस तत्व का परिचय किसी को भी ज्ञात नहीं होने देना चाहते थे। संभवतः उसका परिचय ही उसके अभाव का संबंधी हो। "परिप्रेक्ष्य ने तुम्हारा नाम "अश्वरूप" क्यों रखा है?" वह विशाल आकार अपने पूर्ण रूप में आ चुका था किंतु उसने कोई उत्तर नहीं दिया। "तत्वों का परिचय ही उनका अर्थ होता है, अपने अर्थ का बोध कर ही वह तत्व अमूर्त हो सकता है" प्रेम एक क्षण रुका "वह तुम्हारा परिचय गुप्त क्यों रखना चाहते हैं? क्या परिप्रेक्ष्य नहीं चाहते की तुम अमूर्त तत्व बनो?" प्रेम ने इन प्रश्नों को विचलित करने के लक्ष्य से अश्वरूप पर साधा। "मैं शोध का परिणाम हूं!" इस वाक्य के संज्ञान के मध्य ही अश्वरूप ने मनसागर के हृदय से एक तीव्र चक्रवात प्रेम पर क्षेपित किया। प्रेम उस क्षेपण की दिशा से हट दूसरे स्थान पर जा स्थिर हो गया। "मैं दृष्टिकोणों में सर्वश्रेष्ठ हूं " दूसरे वाक्य के साथ ही प्रेम अपने ही रूप के जल आकार में समाहित हो गया, प्रेम उस से बलपूर्वक संघर्ष कर ही रहा था की अश्वरूप तीव्र वेग से उसके समीप प्रकट हुआ और उतने ही वेग से उसपर एक प्रचंड प्रहार किया। प्रेम उस प्रहार के बल से स्वयं को संतुलित कर दूर क्षेपीत हो गया। "मैं सत्य अविवाद्य हूं!" अश्वरूप ने क्रोध भरी गर्जना के साथ यह प्रेम से कहा। प्रेम तीव्र गति से अश्वरूप की दिशा में गतिमान हुआ और अगले ही क्षण वह अश्वरूप के पीछे जा स्थित हो गया "क्या यह सत्य विवाद से व्याकुल हो उठता है?" प्रेम ने यह प्रश्न साधते ही अश्वरूप पर पाषाण के एक बड़े खंड से प्रहार किया। अश्वरूप मात्र वह आकार नहीं, समस्त मनसागर था, किंतु यह तथ्य इस अंतरद्वंद में अप्रभावी था। अश्वरूप प्रेम के समक्ष सागर से पुनः प्रवाहित हुआ "तुम्हारी अज्ञानता से तुम्हारे जनक होने की योग्यता पर प्रश्न उठ रहा है! जो विवाद्य है वही असत्य है" अश्वरूप के इस कथन को प्रेम पूरे ध्यान से केंद्रित हो कर सुन रहा था। "यह कैसा दृष्टिकोण है?" प्रेम ने सोचा, "तो क्या सत्य पर कोई विवाद नहीं हो सकता ?" प्रेम ने अश्वरूप से यह प्रश्न पूछा, "निश्चित ही विवाद होता है अमान्य तत्व! किंतु वह विवाद एक समय पर अवश्य निष्कर्ष तक पहुंचता है।" अश्वरूप ने दृढ़ भाव से यह उत्तर दिया, प्रेम ने यह दृष्टिकोण पहली बार बोध किया था, प्रेम इस दृष्टिकोण का परिचय ढूंढ रहा था किंतु यह दृष्टिकोण अपनी परिभाषा ही उसके समक्ष उजागर कर रहा था। वह इसका पूर्ण रूप से संज्ञान लेना चाहता था इसलिए उसने आगे पूछा "यदि विवाद पर विराम न लगे तो?", "तुम वास्तविक में जनक हो?", प्रेम निरुत्तर था, अश्वरूप अगले ही क्षण उसके निकट आ खड़ा हुआ, उसने तीव्रता से प्रेम के आकार को पकड़ा "यदि विराम न हो तो वह कभी सत्य था ही नहीं और इसीलिए मैं अविवाद्य सत्य हूं" प्रेम के समीप मंद स्वर में यह उत्तर दे उसने प्रेम को उस स्थान से सागर के भीतर क्षेपित कर दिया। "क्या जीव इसी दृष्टिकोण में फंसा है?" यह प्रश्न बार बार उसके भीतर पुनरावृत्ति कर रहा था। अश्वरूप ने प्रेम को मनसागर के भीतर जाता देख उस अथाह स्तर का स्मरण किया, वह भयभीत था उस अथाह सागर से, वह सागर उसी के भीतर अपने स्पष्ट जलधारा को लिए पूरे वेग से प्रवाहित हो रहा था, उसके नियंत्रण से बाहर।


जीव के मन का वह विशाल भाग जो अश्वरूप के दृष्टिकोण से अप्रभावित था, और प्रेम को यह संज्ञान हो रहा था की ऐसा क्यों है। क्यों मनसागर में व्याप्त अश्वरूप, जीव के मन में व्याप्त अश्वरूप अथाह सागर स्तर से भयभीत था। क्यों यह अश्वरूप मनसागर में सतही तत्व था, क्योंकि यह असत्य था। प्रेम पुनः सागर से नभ में गतिमान हो स्थिर हुआ, "किंतु सत्य की स्वीकार्यता से क्या संधि? यदि वह सत्य है तो अस्वीकार हो कर भी विवादित हो कर भी सत्य ही होगा अश्वरूप" प्रेम ने क्रोध स्वर में यह कहा। "असत्य!" अश्वरूप ने उत्तर दिया। किंतु वह इस शब्द को वाक्य में नहीं परिवर्तित किया, संभवतः उसके समीप कोई वाक्य था भी नहीं।"असत्य तो तुम स्वयं हो किंतु किस विषय पर, किस सत्य के विवाद से व्याकुल हो?" प्रेम अपने भीतर इसी प्रश्न में लीन था।


"यह असत्य है जनक! मैं मान्य सत्य हूं, मैं सर्व स्वीकृत हूं, यह मेरी अवस्था है। तुम और सारे तत्व नितांत स्वीकार्यता के वरदान से वंचित हैं, तुम्हारी अस्विकार्यता ही जीव की पीड़ा का स्त्रोत है, यह अस्विकार्यता का ही परिणाम है की क्षुधा, विकर्षण, क्रम जैसे तत्वों का अभाव हो चुका है"। यह सुन प्रेम स्तब्ध हो गया, विमोक्ष की अवस्था में सहमत असहमत सभी विचार अमूर्त तत्व हो जाते किंतु अब यह असंभव था। "किसने किया इनका अभाव?" प्रेम ने पूछा, "जो मेरे जनक हैं, जो जीव को विचारों की स्वीकार्यता और अस्विकार्यता का बोध कराते हैं और परिणाम में जीव स्वयं अपनी स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता का संज्ञान लेता है, दृष्टिकोण की शक्ति से"। प्रेम परिप्रेक्ष्य पर आगे प्रश्न करता किंतु अश्वरूप के साथ उसके अंतर्द्वंद्व की स्पष्टता अब और उजागर हो रही थी, "किंतु जीव स्वयं किसके लिए अस्वीकार्य है?"


इस प्रश्न पर अश्वरूप कुछ क्षण शांत रहा उसने दूर द्वीप पर चेतना की संरचना को उभरते देखा, वह संरचना स्याह रंग से ढंकी अब आकार ले रही थी, संभवतः वही आकार जीव का था, फिर अगले ही क्षण वह असंख्य सूक्ष्म अंशों में विखंडित हो गई, समयचक्र नभ और धरा के मध्य गतिमान हो रहा था, अश्वरूप निश्चित था उसके अस्तित्व में जीव कभी मन में देख नहीं पाएगा और इसलिए कभी चेतना तक पहुंच भी नहीं पाएगा क्योंकि अश्वरूप उसके मनसागर में व्याप्त था। एक दृष्टिकोण उसके मन में व्याप्त था जो जीव के स्वीकार्य या अस्वीकार्य बनाता था किंतु किसके लिए? फिर अश्वरूप ने तट की ओर ध्यान किया और कहा "उन बोधवृक्षों को देखो"।


प्रेम को इस परिस्थिति का परिदृश्य स्पष्ट होता जा रहा था, वे बोधवृक्ष तट पर हर अर्धयोजन दूर स्थित थे, किंतु उनका यह अर्धयोजन असीमित था, वे वृक्ष मात्र दृश्य में स्थित थे, कोई भी तत्व उन बोधवृक्षों को नहीं स्पर्श कर पाया था, क्योंकि वे बोधवृक्ष जीव के द्वारा दूसरे जीवों की चेतना के दृश्य का रूप थे। जीव अपने अतिरिक्त दूसरे जीवों के समक्ष स्वयं की अस्वीकार्यता जीव की पीड़ा का स्त्रोत है। इसलिए जीव का वह सत्य जिस पर विवाद है, जो दूसरे जीवों के भीतर अस्वीकार्य है, वह सत्य है ही नहीं, वह कभी सत्य था ही नहीं वह असत्य है। सत्य वही है जो दूसरे जीवों के भीतर भी स्वीकार्य है मान्य है, यह दृष्टिकोण ही अश्वरूप का तत्व था, यह दृष्टिकोण ही परिप्रेक्ष्य ने जीव के भीतर उजागर किया था, दृष्टिकोणों की क्रीड़ा करने वाले तत्व के लिए दूसरे जीवों के दृष्टिकोणों की गणना सरल है। "मैं तुम सभी तत्वों से श्रेष्ठ हूं क्योंकि तुम सभी तत्वों का वह भाग जो मान्य है स्वीकार्य है, वह मुझमें निहित है"। अश्वरूप के इस कथन के उपरांत प्रेम को अब नितांत परिदृश्य स्पष्ट हो गया। जीव मन में व्याप्त समस्त विचार, जिन विचारों का आकार है और जो निराकार है, जिन विचारों का बोध उसे है और जिनका नहीं है, उन सभी के अस्तित्व का कुल योग ही जीव के मन का स्वरूप है, विमोक्ष ही एकमात्र अवस्था है जहां वह अपने भीतर चेतना का भी अनुभव करता है, अन्यथा जीव के लिए उसका स्वरूप उसका मन ही है, यह विशाल मनसागर। "..तुम सभी तत्वों का वह भाग जो मान्य है, स्वीकार्य है, वह मुझमें निहित है", अश्वरूप के इस वाक्य में जीव के अत्यंत पीड़ा की परिभाषा निहित थी, प्रेम ने सोचा। दूसरे जीवों के दृष्टिकोण पर आधारित हम सभी तत्वों की जो मात्रा, जो भाग स्वीकार्य है, अर्थात जीव के स्वरूप का जो भाग स्वीकार्य है, जो अविवादित है, मान्य है वही सत्य है वही अश्वरूप है।


किंतु यह नितांत असत्य है और इसी असत्य को परिप्रेक्ष्य ने गुप्त रखा है अश्वरूप से, दृष्टिकोण का वह तत्व जो स्वयं को सत्य मानता हो, उसे यदि बोध हो जाए की वह असत्य है, तो उसकी शक्ति समाप्त हो जायेगी। दूसरे जीवों में अपने स्वीकृत और मान्य स्वरूप को लिए इस तत्व के कारण यह जीव अपने अथाह मन को असत्य मान बैठा है, यही इसकी पीड़ा का कारण है। जीव के मन में व्याप्त अपने पूर्ण स्वरूप को स्वयं स्वीकार करने के स्थान पर जीव भटक रहा है दूसरे जीवों के मध्य अपने स्वरूप की स्वीकार्यता प्राप्त करने। किंतु स्वरूप के जिस भाग को दूसरे अस्वीकार कर असत्य मान रहे हैं, जीव को ज्ञात है की वह भी सत्य है, और यही उसके भीतर की अस्थिरता बढ़ा रहा है। दूसरे जीवों के दृष्टिकोण का तत्व जीव के मनसागर में विलीन होने के कारण जीव अपना स्वरूप स्वयं नहीं देख पा रहा, जो जीव अपना स्वरूप की सत्यता पर ही निश्चित नहीं है, जो अपने स्वरूप की स्वीकार्यता दूसरों से प्राप्त करना चाहता है, वह चेतना तक कभी नहीं पहुंच पाएगा। बिना किसी अनुभव और प्रयास के अपने मन का दृश्य देख पाने वाला यह जीव, दूसरे जीवों के दृष्टिकोण के व्यूह में फंस कर अपने मन को स्पर्श भी नहीं कर पा रहा "इस तत्व के रहते विमोक्ष की अवस्था असंभव है" प्रेम को परिप्रेक्ष्य का वह वाक्य स्मरण हुआ। यह मनसागर जीव के मन से जीव की पीड़ा के असीम सागर में परिवर्तित हो चुका है। दूसरे जीवों में स्वीकृत इस जीव का यह स्वरूप असत्य है इसलिए यह जीव के अथाह मन तक कभी प्रवेश नहीं कर पाया, दूसरे जीवों के दृष्टिकोण से स्वयं को देखना यह अवस्था सतही है, इसलिए यह तत्व भी इस मनसागर में सतही रह गया। यह अश्वरूप, जीव का यह स्वरूप, असत्य है!


"क्या तुम्हे ज्ञात है? की तट पर उपस्थित वे सारे बोधवृक्ष…" प्रेम अब मात्र अश्वरूप को उसकी असत्यता का बोध करा कर ही पराजित कर देना चाहता था किंतु अश्वरूप की दृढ़ता अत्यंत थी उसने प्रेम के प्रश्न का उत्तर दिया "वे सारे बोधवृक्ष हर जीव में निहित स्वीकार्यता की तृष्णा का प्रमाण हैं। दूसरे जीवों के मध्य अविवादित सत्य का परिचय हैं"! प्रेम ने यह सुन अश्वरूप के निकट जा मंद स्वर में कहा " परिप्रेक्ष्य ने तुम्हारी रचना इसलिए की है, क्योंकि दूसरे जीवों के मध्य अपने सत्य की स्वीकार्यता ढूढने जब जीव निकलेगा, उसे कभी पूर्ण स्वीकार्यता नहीं मिलेगी क्योंकि अपने स्वरूप का सर्वश्रेष्ठ बोध हमें स्वयं होता है, जीव के मन का अथाह सागर अस्वीकृत रह जायेगा, उसके स्वरूप का विशाल भाग अमान्य रह जायेगा। उसके मन का जो भाग स्वीकृत है वह अस्पष्ट है, जो भाग अस्वीकृत है वह अस्थिर है, जीव कभी अपने मन को नहीं देख सकता अतः तुम, परिप्रेक्ष्य की विमोक्ष के विरोध का माध्यम हो, तुम्हारी रचना करने वाला स्वयं तुम्हारी असत्यता का ज्ञानी है, उसकी उपलब्धियां विशाल है! वह मनसागर से प्रपातों की रचना करता है और मैं स्वयं को विराग रूप में देखने लगता हूं, वह प्रपातों से तुम्हारे तत्व की रचना करता है और जीव स्वयं के ही स्वरूप को अमान्य कर देता है, किंतु उसकी सबसे विशाल उपलब्धि इस विशाल मनसागर में व्याप्त वह शब्द है जिसके समक्ष तुम स्वयं अपने परिचय से अपरिचित रह जाते हो"! प्रेम तीव्र गति से स्वयं को अश्वरूप से पृथक कर स्थिर हुआ "अश्वरूप नहीं, तुम, असत्य स्वरूप हो!" अगले ही क्षण प्रेम ने तट पर स्थित बोधवृक्ष की दिशा में उस पर प्रचंड बल से प्रहार किया, अश्वरूप उस दिशा में गतिमान हो गया। यह प्रहार मात्र अश्वरूप पर नहीं, आगे के घटनाक्रम पर भी था, अब जो कुछ होने वाला था प्रेम को प्रतीक्षा के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना था। बोधवृक्ष की दिशा में गतिमान होता अश्वरूप प्रेम के उस प्रहार से जब संतुलन में आया तब उसने वह दृश्य देखा और तट से आ टकराया। बोधवृक्ष के उस दृश्य से जैसे सम्मोहित हो अश्वरूप उसके समीप जाने आगे बढ़ा किंतु अगले ही क्षण वह वृक्ष मानो दूर स्थित हो गया। अश्वरूप उस बोधवृक्ष के समक्ष तट से टकराती लहरों से प्रकट हुआ, किंतु उसे वहां कोई वृक्ष दिखाई नहीं दिया। उसने सभी दिशाओं में देखा तो पाया कि वह वृक्ष अब भी दूर तट पर स्थित था, अश्वरूप ने पुनः उस वृक्ष के समक्ष टकराती लहरों से स्वयं को प्रवाहित कर उस स्थान पर प्रकट हुआ, किंतु पुनः वह वृक्ष दूर तट पर स्थित दिखाई दिया। अश्वरूप के भीतर एक भय का भाव व्याप्त होने लगा, उसे प्रेम के कथनों का स्मरण भयभीत कर रहा था, स्वयं की सत्यता पर प्रश्न भयभीत कर रहा था, अश्वरूप विचलित व्याकुल और निर्बल हो रहा था। उस व्याकुलता और निर्बलता के भाव में उसने बोधवृक्ष के समीप जाने के अनेकों प्रयत्न किए। हर प्रयत्न के पश्चात उसके भीतर का बोध बढ़ता जा रहा था की जीव का स्वरूप वह स्वयं असत्य है। प्रेम इस दृश्य से विमुख मनसागर में नभ के उभरते सूक्ष्म प्रतिबिंबो का दृश्य देख रहा था। "यह दृष्टिकोण तत्व अपनी असत्यता का बोध कर जितना शक्तिहीन होगा उतना ही अस्थिर भी" प्रेम ने सोचा, सागर के उन सूक्ष्म भागों से प्रेम ने जलधाराएं प्रवाहित की, जिनमे नभ का प्रतिबिंब स्पष्ट हो रहा था, अश्वरूप तीव्र अस्थिरता और व्याकुलता में लीन होता जा रहा था, वह बोधवृक्ष किसी अवास्तविक मृग तृष्णा की भांति उसके भीतर असत्य की शक्तिहीनता भी ला रहा था। एक ही क्षण में अश्वरूप तट से टकराती अनेकों लहरों से प्रवाहित हो रहा था, एक ही क्षण में अश्वरूप अनेकों प्रयत्न कर रहा था। कुछ ही क्षणों में मनसागर का एक विशाल आकार नभ की समस्त आकाशगंगाओं का प्रतिबिंब बना अपने पूर्व रूप में आगया। असंख्य जलधाराओं को प्रवाहित कर प्रेम ने चक्रवातों का एक व्यूह रचित कर दिया था।


असहाय वह असत्य स्वरूप ने अपने अंतिम प्रयत्न को विफल कर अत्यंत क्रोध और व्याकुलता के भाव में प्रेम की दिशा में देखा। वह दृश्य अश्वरूप के भीतर व्याप्त असत्यता के भय से भी अधिक भयभीत करने वाला था, चक्रवातों के तीव्र शक्ति से पूरा मनसागर प्रलयलीन हो गया था, नभ की आकाशगंगाओं का प्रतिबिंब मानो चक्रवातों में बन उनकी शक्ति को श्रृंगार दे रहा हो, चक्रवातों के व्यूह के मध्य अपने पूरे आवेश में स्थित था इस युगांतर का जनक। अश्वरूप उस दृश्य के समक्ष जा स्थित हो गया और वहां से उसने पुनः तट की दिशा में दिख रहे बोधवृक्षों को देखा और प्रेम से कहा "मेरे सहस्र प्रयासों का परिणाम मेरी शक्तिहीनता कैसे हो गई?" प्रेम ने उत्तर दिया "क्योंकि हर प्रयास सफल हो कर भी और विफल हो कर भी सत्य के समीप ले जाता है, तुम जिसके समीप जाना चाह रहे थे वह सत्य नहीं है और तुम जिसके समीप आते गए, वह सत्य है"! "की मैं स्वरूप असत्य हूं, असत्य स्वरूप हूं?" अश्वरूप ने वेदना भरे स्वर में कहा, किंतु प्रेम निरुत्तर था, "तो असत्य सही!" अश्वरूप ने एक विशाल लहर प्रेम की दिशा में प्रवाहित की, किंतु चक्रवातों में समाहित हो वह लहर लुप्त हो गई। "यह मनसागर मेरा है"! अश्वरूप ने तीव्र स्वर में कहा, "और इस सागर k अथाह मन का मैं, नाथ हूं!" प्रेम ने क्रोध के प्रचंड गर्जन से पूरे नभ में अपना उत्तर व्याप्त कर दिया। मनसागर के भीतर से एक विशाल लहर उठी, अश्वरूप को अपने भीतर समाहित कर कई योजन दूर क्षेपीत कर दिया, किंतु प्रेम को अब प्रतीक्षा का एक भी क्षण व्यर्थ नहीं करना था, चक्रवातों के व्यूह में व्याप्त वह उतनी ही तीव्र गति से अश्वरूप पर प्रहार करने गतिमान हुआ। अश्वरूप के निकट आ उसने पुनः प्रचंड बल से प्रहार किया, उस प्रहार की तीव्रता इतनी अधिक थी की अश्वरूप असंख्य अंशों में बिखर गया। किंतु कुछ समय पश्चात उसके तत्व में लीन एक विशाल लहर दूर से प्रेम के चक्रवातों की दिशा में बढ़ी, चक्रवातों को शांत कर प्रेम ने भी कई योजन दूर एक विशाल लहर का प्रवाह आरंभ किया। अश्वरूप और प्रेम के स्थान पर जैसे वे लहरें ही समीप आ रही हो, उनके मध्य हुए उस प्रचंड समाघात से जैसे पूरा मनसागर व्याकुल हो उठा। ऐसी प्रतीति हो रही थी जैसे मनसागर के स्वयं की लहरों में अंतर्द्वंद्व चल रहा हो, जैसे जीव के मन में यह अंतरद्वंद्र चल रहा हो। "क्या तुम दूसरे जीवों से प्राप्त होने वाली स्वीकार्यता की तृष्णा शांत करोगे?" अश्वरूप ने यह प्रश्न पूछा, किंतु प्रेम निरुत्तर था, अपने क्रोध में, "स्वयं सत्य को स्वीकारना अर्थहीन है यदि दूसरे तुम्हारे सत्य को नकार दें" अश्वरूप अब अपनी असत्यता से परिचित हो कर भी उसका बोध कर रहा था, शक्तिहीन हो कर भी वह अपने अर्थ से अडिग था, किंतु यही तत्वों का गुण है, वे अपने परिचय से कभी विमुख नहीं हो सकते, उनके अर्थों को निरर्थक कर दिया जाए तब भी वे अपने अर्थों से पृथक नहीं हो सकते, शक्तिहीन हो सकते है, सार्थक नहीं हो सकते। "किंतु तुम, स्वयं जीव की पीड़ा का सागर हो, जीव तुम्हारे ही आभास में जीवन व्यतीत कर प्रयत्नों की पीड़ा से पृथक नहीं हो पाता, तुम्हारे तत्व का वह मान्य अंश ही तुम्हारी अनुकूल अवस्था है, तुम मात्र उस मान्य अंश का शेष तत्व हो, तुम वास्तविक प्रेम तत्व नहीं हो" अश्वरूप के इस वाक्य से प्रेम क्रोधित हो उठा किंतु उसी क्षण उसे उस प्राचीन युद्ध के दृश्य का स्मरण हुआ.." यह सोचो की तुम्हारे द्वैत रूप को देख कर ही चेतना नष्ट हो सकती है इसका अर्थ है की उस द्वैत रूप के प्रतिलोम का चेतना पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा.." प्रेम ने बोध के कक्ष में विमर्श का वह क्षण स्मरण किया,विराग प्रेम का द्वैत रूप है, किंतु विराग का प्रतीलोम प्रेम नहीं।


सत्य के इस बोध से बाहर निकल प्रेम ने प्रश्न किया "कहां स्थित है तुम्हारे स्वीकार्यता की तृष्णा की सीमा?" असत्य स्वरूप ने कुछ क्षण रुक कर क्षितिज पर देखा और कहा "मैं असीमित हूं!", "असंतोष?" प्रेम के भीतर यह प्रश्न आया, यदि इस तृष्णा की कोई सीमा नहीं तो इस तत्व के भीतर निरंतर असंतोष रहेगा। प्रेम ने कुछ क्षण नभ में आकाशगंगाओं का वह विशाल दृश्य अपने भीतर उतारा, उसे अश्वरूप के भीतर अपने तत्व के उस भाग का दृश्य दिखाई दिया। उस एक क्षण में प्रेम स्थिर हो गया उसने विशाल असंख्य निलय में प्रवाहित होते उन क्षणों का स्मरण किया और कहा..


"यह जीवन है जो मनसागर में लुप्त है

मनसागर है जो अर्थहीनता से रचित है

वह अर्थ जो प्रेम का है

जिसे प्राप्त करना जीवन का लक्ष्य है

किंतु इस कथा में जीवन भयभीत है

भयभीत है वह मृत्यु से

किंतु मृत्यु से ही तो जीवन का अर्थ है

और उसी अर्थ में जीव अपना प्रेम अनुभव करता है

अनुभव ही जीवन का रचनाकार है

और इस रचना की रचना करना एक कला है

कला का अस्तित्व प्रेम से है

और प्रेम ही जीवन का अर्थ है

प्रेम ही जीवन का राग है

प्रेम ही इस अर्थ का भाग है

प्रेम ही अनुराग है

प्रेम ही अनुराग है!"


इस कथन के अंत होते ही विशाल अमूर्त आकृति लिए एक तत्व अश्वरूप के समक्ष प्रकट हो उठा। अश्वरूप के भीतर से प्रेम का वह 'मान्य' भाग विलुप्त हो चुका था और जो तत्व प्रेम के स्थान पर स्थित उस अमूर्त आकृति को लिए खड़ा था वह तत्व, इस युगांतर का वास्तविक जनक, अनुराग था। "मैं अवश्य ही वास्तविक प्रेम तत्व नहीं हूं, अपने कथन का स्मरण कर अश्वरूप अब उस अमूर्त आकृति को देख व्यूह में समाहित होता जा रहा था। "असंतोष" यह वही भाव था जो अश्वरूप और उस आकृति के भीतर थी। अश्वरूप के अभाव की यह प्रक्रिया अब आरंभ हो चुकी थी।


द्वीप पर समयचक्र की गति की परिधि के मध्य चैतन्य की संरचना अब स्याह रूप में स्पष्ट आकार ले चुकी थी, द्वीप पर स्थित सभी तत्व पूरे लय से आकार दे रहे थे। किंतु एक तत्व सभी के ध्यान से गुप्त उस स्थान पर आकारों का क्षेपण से विमुख नभ की आकाशगंगाओं की ओर विद्यमान हो रहा। निरवयव किसी स्वयं किसी विमोक्ष की अवस्था में प्रवेश कर रहा था। विखंडन और संलयन अब क्षण क्षण में परिवर्तित हो रहे थे, दूर से वह दृश्य अपनी तीव्रता और वेग में अत्यंत मनोरम था, तीव्र वेग से नभ और धरा के मध्य गतिमान होता समयचक्र और उसकी परिधि में जीव का विशाल स्याह रूप एक क्षण विखंडित हो कर अगले क्षण संलयित हो जाता। इसी दृश्य में मग्न अनुराग अमूर्त आकृति से विमुख ,अश्वरूप को उसके भीतर समाहित होने के दृश्य से विमुख था। उसका ध्यान विशाल मनसागर के प्रतिबिंबो पर केंद्रित हुआ, नभ की समस्त आकाशगंगाएं पुनः उस सागर में समाहित हो गई थी, उसी प्रतिबिंब में एक और प्रतिबिंब बना, अनुराग ने पीछे देखा।


"क्या तुम इस अवधारणा में हो की विचारों को जन्म देकर उनके अर्थों और उनके अंतर्द्वंद के प्रभाव में यह जीव स्वयं कोई पीड़ा अनुभव नहीं करता?" परिप्रेक्ष्य ने अत्यंत वेदना भाव से अश्वरूप के व्यूह में समाते दृश्य को देख अनुराग का वही प्रश्न दोहराया। "जीव की पीड़ा का संज्ञान कर हमे क्या प्राप्त होगा जनक?" अश्वरूप व्यूह में समाहित होता जा रहा था, इस संसार में उसके अभाव की अवस्था पूर्ण होते जा रही थी, निरवयव नभ की दिशा में किसी गहन अवस्था में प्रवेश कर रहा था, जैसे अश्वरूप के अभाव निरवयव के विमोक्ष में कोई लय था। समयचक्र अपने तीव्र वेग से गति करने लगा था, चैतन्य के रूप का अब स्पष्ट जीव के आकार में संलयन हो रहा था ऐसी प्रतीति हो रही थी जैसे कोई विशाल प्रतिमा ब्रम्हांड के रहस्यों पर चिंतन कर उन्हें विशाल प्रेम की भावना से देख रही हो "इसका अर्थ है अब मात्र एक अंश का आकार शेष रह गया है" बोध ने यह सोचा।


"हमें क्या प्राप्त होगा?", परिप्रेक्ष्य की वेदना का अनुराग ने उत्तर दिया,"मैं तुम्हें एक दृश्य दिखाता हूं..


बेरंग सी उस शाम की वास्तविकता सुबह में थी। सुबह तो हुई थी किंतु सुबह को मासूमियत कहीं खोई सी थी, चेहरों पर भाव शाम का था। क्योंकि आंखों तक पहुंचने वाली रोशनी बादलों में कहीं गुम सी थी, उन्हीं बादलों में गुम रोशनी के पीछे भागती नजरें और बादलों से गिरती बूंदों का आखों में कहीं खो जाना, सम्मोहित कर रहा था उस जीव को जिसकी वो आखें थी। आखों में उतरती बूंदें जब मन में उतरी, समस्त संसार ही उत्तेजित हो उठा, वह संसार जो मन के खोए कोनों में, सोए विचारों में, दबे एहसासों में, निहित था। मन का यह भार जब आखों से उतरती बूंदों ने उतारा तब कहीं जा कर बादलों के पीछे वो रोशनी दिखाई दी और मन के भीतर वापस अंधेरा छाया। इस पूरे क्षण में जो कुछ भी थोड़ा जीवित हुआ था वह फिर पूरा निर्जीव हुआ"। इस दृश्य की परिभाषा दे कर अनुराग पूर्ण वेग से द्वीप को दिशा में गतिमान हुआ।


जीव के पीड़ा का ऐसा विवरण सुन परिप्रेक्ष्य निरुत्तर हो गया। "हमें क्या प्राप्त होगा?" वही जो परिप्रेक्ष्य के लिए अतिआवश्यक था, दृष्टिकोण। अश्वरूप का अभाव पूर्ण हो चुका था, उसी के लय में निरवयव का विमोक्ष भी पूर्ण हो चुका था। चेतना अब संलयन और विखंडन में पूर्ण वेग से विचरण कर रही थी "समय आ चुका है जनक!" बोध ने सोचा। अगले ही क्षण अनुराग समयचक्र की परिधि के समीप आ पहुंचा, उसने समस्त तत्वों को देखा, पूरा संसार, वह क्षण पूर्ण रूप से जैसे स्थिर हो गया हो, उस स्थिरता में चेतना के उस संभवतः अंतिम विखंडन का दृश्य रचित हुआ, अनुराग ने स्वयं को चेतना के उस शेष निराकार अंश पर केंद्रित कर उस दिशा में आगे बढ़ना आरंभ किया। वह दृश्य सभी तत्वों के लक्ष्य का अंतिम अंश था, जिस क्षण अनुराग ने उस शेष अंश को स्वयं के आवेश में लिया, अपने असंख्य अंशों के साथ वह चेतना अपने अंतिम संलयन की अवस्था में प्रवेश कर गई, यह पूरा घटनाक्रम क्षण में पूर्ण हो गया हो, या समय स्वयं विमोक्ष की अवस्था से पूर्व अपने अभाव में आगया हो। "मैं ही शून्य हूं" निरवयव इस बोध की तीव्रता में पूर्ण वेग से चेतना के शीर्ष पर गतिमान हो कर वहां स्थित हो गया। अंतिम संलयन की पूर्ण होते ही, वह चेतना स्थिर हो गई, उसी क्षण शून्य उसके समक्ष अवतरित हुआ, "निरवयव ही शून्य है"! यह पूरा दृश्य जीव के भीतर उसकी चेतना और मन के मध्य व्याप्त था। समय वास्तव में उस स्थान पर अस्तित्वहीन हो गया, अदृश्य समयचक्र की स्पर्श रेखा से विकराल रूप में वही व्यूह उस संसार में अवतरित हो गया।


"इस दृश्य की परिभाषा क्या है?" एक जाना पहचाना स्वर सुनाई दिया। "स्याह रंग से रचित वास्तविकता के उस क्षण में जैसे जनक और चेतना एक हो चुके हैं, अनुराग के तत्व से योग कर वह चेतना स्वयं किसी विशाल चेतना के रूप का सूक्ष्म सटीक भग्न अंश थी, जैसे पाषाण खंड के वे सारे असंख्य सूक्ष्म सटीक रूप। चेतना जैसे समय के परिवर्तित होने की प्रतीक्षा कर रही है। जैसे ब्रह्मांड में समय का बहाव बेबस है इस ठहराव के सामने और स्याह रंग ने अपने भीतर सभी रंगों के योग से वास्तविकता की पूरी झलक को अनंत कल्पों से रोक रखा है। ये वो क्षण है वो जगह है जहां एक ही क्षण में सहस्र जीवनकालों का अनुभव हो रहा है, जहां ब्रह्मांड स्वयं उसी क्षण में शून्य से अनंत और फिर शून्य तक जा रहा है। संभव असंभव जो भी है वो इसी क्षण में हो रहा है और उस क्षण का होना भी असंभव हो रहा है। ये वो जगह है वो क्षण है जिसमे सारे विचार सारे अर्थ आकार लिए हुए हैं, सारी भावनाएं व्यक्त हो रही हैं और इन सब के मध्य तुम स्वयं अस्तित्वलीन हो" अनुराग ने तट पर बैठे अद्वैत को उस दृश्य की परिभाषा बताई। उसके समक्ष नभ के समस्त आकाशगंगाओं का विशाल सागर नभ में उजागर हो रहा था, उसी सागर का प्रतिबिंब तट पर बैठे अद्वैत के सामने स्थित सागर में भी बन रहा था, ऐसी प्रतीति हो रही थी मानो आकाशगंगाओं का वह सागर नभ से ले कर दूर क्षितिज से होते हुए उनके निकट तक फैला हुआ हो। अद्वैत के साथ अपने तत्व रस के भाव में अनुराग उस क्षण में लुप्त हो गया। "मैं अस्तित्वलीन ही हूं" यह कह कर अद्वैत तट से सागर की ओर बढ़ने लगा। "क्या वे तत्व अमूर्त हुए?" यह प्रश्न पूछते हुए ही इसका उत्तर अनुराग को ज्ञात हो गया।


तत्व : कल्पना, अनुभव, संतुलन, स्मरण, वृद्धि, अर्थ, क्रम, क्षुधा, विकर्षण, विधान, बोध, परिप्रेक्ष्य, विराग, प्रेम, करुणा, अनुराग, असत्य स्वरूप, निरवयव, शून्य, अद्वैत।


अवस्थाएं : शून्य, विमोक्ष


जीव


By Anal Kishore Singh



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