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Pehchaan

By Rachna


अक्सर पूछे जाते हैं सवाल मेरी पहचान को लेकर 

पर उसके जवाबों में अल्फाज़ गुमनाम से हैं 

अगर करती हूं कोशिश अपनी तलाश को लेकर 

तो मेरी मन्ज़िल की राहों में कदम अनजान से हैं 

 

न जाने क्यों  एक हलचल सी है अपने दिल में 

क्या है ये 'पहचान' जिंदगी की महफ़िल में 

अगर एक ही होती तो बताना आसान होता 

बनाकर जरिया उसको खुद को जताना आसान होता 

 

क्योंकि मुश्किल है जीना अपनी ही तलाश में 

जब गुजरती है जिंदगी पहचान पाने की आस में 

 

पर ये पहचान भी कितनी अजीब है ,

कभी मेरे नाम में  मेरे काम में इसका नसीब है 

कभी तो बांधा है इस समाज ने इसको मज़हब की जंजीरों में  

कभी लिपटी है ये चादर की तरह किसी के अस्तित्व की लकीरों में 

 



कोई बता दे जरा, 

क्या अमीरी गरीबी भी इस पहचान का हिस्सा हैं 

या ये बस समाज में  रुतबे का झूठा किस्सा हैं? 

फिर क्यों है एहमियत रंग जाति भाषा और बोली की 

जब यही हैं  वजह इन सरहदों की रंगोली की 

 

काश! कह दे कोई ये हकीकत नहीं बस एक ख्वाब है 

और मेरी सारी पहचानों का मेरी शख्सियत ही इकलौता जवाब है 

ख्वाहिश तो है पंछी की तरह आजाद हो जाऊं 

पर समाज की बंदिश है 

क्या पता इस पहचान को ही शख्सियत से एक रंजिश है 

 

नहीं देना चाहती एहमियत मैं  किसी पहचान को 

जो बांध देती है बंधन में हर एक इंसान को ।

 

शायद, 

किसी दिन ये होली कभी क्रिसमस कभी रमज़ान बन जाए 

और मेरे व्यक्तित्व में लिपटकर मुझे मेरी पहचान मिल जाए 

 

तब तक ये तलाश जारी ही रहेगी.....

मेरे अस्तित्व की पहचान कुंवारी ही रहेगी।। 


By Rachna



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