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Lakeer Ke Fakir

By Mukesh Gujral


पैदा होते ही ...

हमारी लक्ष्मण रेखाएँ

निर्धारित करने में दुनिया लग जाती है

कोशिश की जाती है

इस से बाहर निकलने ना पाए।

घर परिवार स्कूल समाज

सब नज़र रखने लगते है कैमरे की तरह



विरले ही हिम्मत जुटा पाते है

इस चक्रव्यूह को तोड़ने की ..,

मुझसे तो न हो पाया 50-51 तक


इतने साल लग गए ये समझने में ... मेरा टिकट कट चुका।

उसके बाद भी 5-7 साल लग गए चक्रव्यूह को तोड़ने में।


चैन की साँसे तो मिल गयी अब ...

पर सब कुछ लुटा के होश में आते तो क्या किया ..,


लेकिन फिर भी एक बात तो है अब ...

भर भर के विकल्प सामने है …

दूसरी पारी खेलनी कि नहीं खेलनी ...

अभी और ज्ञान दुनिया सेलेना है या देना है ..,

रिटायरमेंट लेनी नी लेनी ..,

विकल्प भर भर के है सामने ...

और अब उम्र के इस मुक़ाम पे

कोई माई का लाल टाँगभी नी अड़ा सकता ,.,

ज़िंदगी के सबक़ सलीक़े से ले लिए है अगर तो।

ढेर सारे विकल्प होना भी

अपने आप में एक अच्छी मुसीबत है,

वो कहते है ना कि ... दोनो हाथ में लड्डू ...

अब सेल्फ लव कीदुनिया में ये मुहावरा निरस्त हो गया है

कि जो खाये वो भी पछताये … जो ना खाए वो भी।

अब पछताने का कोई चलन नहीं रहा।

बड़तेचलो आगे। मूव ऑन।



लड्डू खाते खाते …

खाते से याद आया ... निल बटे सन्नाटा।


मगर कोई चिंता नहीं अब। बिंदास ज़िंदगी में अब जब यह सब नहीं भी है तो भी चलेगा बस सुकून होना लाज़मी है। यही सुकून सबवापिस ले आएगा एक दिन सब कुछ ...


सिर्फ़ थोड़ा सब्र ... थोड़ी हिम्मत ... थोड़ी बेफ़िक्री साथ ले लो ...

तो इस फुकराना ज़िंदगी का भी अपना ही मज़ा है।


कहाँ से कहाँ आ गये …

बात लकीर के फ़क़ीर से शुरू हुई थी ...


कभी न करना ये काम

आज के इस युग में भी

ऐसे भी ज़िंदगी जी सकते है

यक़ीन मानिए जी है मैंने

किसी को तो नहीं कह सकता जीयो ऐसे

मगर ऐसी मनमानी तो की है मैंने

बिना किसी मंज़िल के यात्रा

ताउम्र की है मैंने


By Mukesh Gujral



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