DAYRE
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DAYRE

By Shrikant Joshi



लि खने की जरुरत तो नहीं थी, पर दायरे बहो त है तेरे-मेरे बि च में,

बा कि ज़रि ये व्यर्थ है, मेरी आसक्ति की गवा ही देने मे,

दि ल की बा ते अधूरी सी रह जा ती है और उम्र नि कल जा ती है उसकी गहरा ई को समझने में, सि र्फ देखने से समझ जा ते तो , यह कलम उठा ने की ज़रूरत क्या थी ।।

सामर्थ्य तो इन आँखों में भी बहो त है, कम्बख्त हर बा र भी ग जा ती है,

शा यद खुलेपन दि ल के आसमा न का , गरजते बदलो से छुपा जा ती है, बंद करके इन्हे बहा कर सोचता हु, शा यद कहेगी कुछ आंसू नि कल जा ने पर, पर मन की ता रे जुडी है अंदर से, आंसू के खजा ने को शा यद यही आँखों से खीं चखीं ला ती है, लि खने की ज़रुरत तो नहीं नहीं ,हीं पर दायरे बहो त है तेरे-मेरे बि च में ।।



भा षा के अधूरे ज्ञा न से डरता हु कही अन्या य न कर बैठु तुझसे,

इसी लि ए तो कलम उठा नी पड़ी, खुद को रूबरू करने को तुझसे,

मेरे अहसास इस कदर उता रे है दि ल की श्या ही से, यंकी है कहो गे पढ़के, की तुमसे नहीं तेरी कलम से लगा व है मुझे ,

लि खने की ज़रुरत तो नहीं नहीं ,हीं पर दायरे बहो त है तेरे-मेरे बि च में ।।

गर पढ़ कर भी न समझ पा ओगे तो मा नुगा इस ज़रि ये की आज़मा इश भी अधूरी रह गयी , कि ता बो में लि खे मेरे पन्ने पलटते रहो गे,

मेरी को शि शे आज़मा इश कि ता ब और कलम तक ही सि मि त रह गयी , लि खने की ज़रुरत तो नहीं थी मुझे, बस वो जरि या ढूंढनेमे मुझे देर हो गयी ..

गुज़ा रे वक़्त के साथ मेरे कलम की श्या ही कभी ख़त्म हो जा एगी ,

मेरे हा थो की कपकपा हट, मेरी लि खा वट को उलझा एगी ,

उम्मी द यही है, उस दौर से पहले ही तुम्हे अंदाज़े बया करना पड़े

गर पढ़ लो गे मेरे लि खे दो-चार पन्ने, पूरी ज़ि न्दगी मुझे फि र लि खने की ज़रुरत न पड़े, लि खने की ज़रुरत तो नहीं नहीं ,हीं पर दायरे बहो त है तेरे-मेरे बि च में ।।


हमा रे का गज़ी पन्ने चले जा येंगे कि सी रद्दी के बा जा र में, का यना त इसे फि र से पढ़ने का मौ का कि सी और को देगी , पर यह मत समझना ,

की मेरे चुने हुए ज़रि ये की ता कत एक दौर तक ही सि मि त रह गयी , लि खने की ज़रुरत तो नहीं नहीं ,हीं पर दायरे बहो त है तेरे-मेरे बि च में ।।


By Shrikant Joshi




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