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नीड़

By Chanchal Sharma


घर में अजीब सी शांति पसरी थी। बरामदा बेजान से सुनसान पड़ा था। शायद ताक में था कि वही बच्चों की धूम होगी और वही हँसी के ठहाके। पर वो पुरानी स्मृतियों में जी रहा था। पुरानी यादों में ग़ुम, शायद इस सोच के साथ कि वो दौर फिर से आएगा,वो दौर जब ख़ुशी से वो आंगन झूम उठेगा...वो दौर जब हँसी से गूँज उठेगा पर ये शायद सच में कब तब्दील होगा,उसे कुछ पता न था। शायद कभी नहीं?

अब लगभग हर घर की यही कहानी थी।घर की दीवारों में धूमिल होती ख़ुशियाँ, बेजान से टकटकी लगाए बैठे आँगन ओर टूटते परिवार।

ये मकान भी घर ही था, पर कुछ तो अलग था जो इसे अलग ही पहचान दिलाये हुए था।वो अलग पहचान थी “परिवार” या कहूँ “अनोखा परिवार”। जहां पर भी इस घर की चर्चा होती, पहले ज़िक्र परिवार का ही होता।कुछ तो खिंचाव था जो ये परिवार सबको आकर्षित करता।हर किसी को मोह लेता।सब कहते हर कोई बदल सकता है पर ये परिवार नहीं।

पर वक़्त को शायद ये मंज़ूर नहीं था।नियति ने कुछ और ही तय किया था।दुर्भाग्यवश वो वक़्त भी आने लगा था...धीरे-धीरे। बदलाव के बादल अब इस घर पर भी मंडराने लगे थे।मौसम की बहारें ढ़लने लगी थी।ख़ुशियों का समां कम होने लगा था और ठहाके झूठी मुस्कुराहट में दबने लगी थे।मायूसी सब ओर पसर चुकी थी।चैन अब दम तोड़ने लगा था।पछतावे व पैसों ने अपना वर्चस्व जमा लिया था।बदलाव का दौरे अब भी जारी था।

बदलाव,जाने कब तक होता रहेगा ये बदलाव। जाने कहा लेकर बीच मझधार में छोड़ देगा ये। न जाने क्या-क्या तहस-नहस कर देगा। हृदय काँप उठता ये कल्पना कर की ओर कितने टुकडों में बाँटेगा ये बदलाव इस परिवार को।

सबमें बदलाव आ रहा था। हर एक चीज़ बदल रही थी।बदल रहा था ये परिवार...बदल रहा था घर-संसार।

सुख और शांति का माहौल बेचैनियों में तब्दील हो रहा था जो आने वाले भयंकर प्रलय की चेतावनी दे रहा था।

पर अब भी दो पहलू अनछुए थे-एक घर की नींव और दूजा घर का आँगन।ये अब भी पवित्र,निष्ठुर व सदैव की भांति मुस्कुराते हुए सबका स्वागत करते।बस फ़र्क था तो मुस्कान का,पहले ये मुस्कान जीवंत लगती थी,मिठास से भरी हुई। और अब,निर्जीव और फीकी। पर इनके स्वभाव में अब भी परिवर्तन नहीं आया था।ये अपने कोमल स्वभाव से हर एक को लुभाते थे।

यही सोच कर खुश हो लेते कि चलो कुछ तो है जो अब भी इस परिवर्तन की हवा से अनछुआ है।फिर गदगद हो उठते।




पर इस डर से उसी वक़्त सहम भी जाते कि बदलाव ने कहीं उन्हें भी अपने आगोश में ले लिया तो?

बरामदा अपनी सुखमयी स्मृतियों से वर्तमान के कड़वे सच मे आ गया। इन स्मृतियों का स्पर्श कितना कोमल था,कितना मधुर था जो वर्तमान की तस्वीर की पीड़ा को कुछ कम करने में सहायक था।कहीं न कहीं एक उम्मीद की किरण जगा देता था उसके मन में, ना चाहते हुए भी। वहीं दूसरी ओर नींव को भी अपने अस्तित्व पर पूरा भरोसा था।

बरामदा भारी मन लेकर सबकी ओर निहार रहा था।सबकी निग़ाहें में भले ही प्रेम कम हो चुका था,पर ‘वो’ अब भी वैसा ही था...शांत,स्थिर,प्रेम से परिपूर्ण।

आँगन सुना पड़ा था,सब अपने-अपने कमरों में कैद।आश्चर्य ये कि पहले सिर्फ “अपना” हुआ करता था।अब “अपने-अपने” ने स्थान ले लिया था।

बच्चों का खेल-कूद जारी था। एक कमरे से टीवी की आवाज़ आ थी तो दूसरे कमरे से मोबाइल फ़ोन की।

वक़्त ने अपनी रफ्तार तो कम रखी पर बदलाव की गति बहुत तेज़ थी,बहुत तेज़।बीते दस सालों ने बरसों की स्थिरता की जड़ों को हिला कर रख दिया था।

मैं भी उन्हीं में से एक कमरे में कैद पंछी थी।वक़्त शायद मुझमें भी कई अनचाहे बदलाव लाया था।

ऐसा सब कहते थे...तू बदल गयी है।अब पहले की तरह “चंचल” नहीं रही।ना मुस्कुराती है ना ज़्यादा बात करती है।जब भी मैं उस पिंजरे में कैद रहती,अकेली रहती,मायूस रहती,यही सवाल होता...क्या सोच रही है!

इस सवाल का मेरे पास कभी कोई जवाब नहीं होता।या शायद मैं देना नहीं चाहती थी।

आखिर क्या था उस सवाल में ऐसा? क्यों ये सवाल मुझे अंदर ही अंदर कचोटता था?

ये सवाल हर दिन उमड़ते मन में हर पल जवाब ढूंढ़ता था। पर अंत में निराशा ही हाथ लगती। सवाल सवाल बन कर ही रह जाता और उदासी बन कर आँखों मे उतर जाता।

ऐसा नहीं था कि सब इस बदलाव से अन्जान थे।हर कोई साक्षी था हर कोई जानता था।क्योंकि इस परिवार का हर एक व्यक्ति इस परिवर्तन का ‘हिस्सा’ था।

मैं भी अब सब समझने लगी थी।पर अफसोस कि जब मैं घर का मतलब समझने लगी,तब ये परिवार “टुकड़ों” में बंट चुका था। ये घर “मकान” बनने की राह पर चल पड़ा था।

कितने परिवारों से मिलकर बना था ये परिवार।

नहीं, भाईयों से मिल कर बना था ये। परिवारों ने तो इसे टुकड़ों में बाँट दिया था।


By Chanchal Sharma





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