ज़िंदगी का सफर
- Hashtag Kalakar
- Jan 11
- 10 min read
Updated: Jul 15
By Sahil Khan
यह कहानी है 24 साल के अहमद की जिसकी जिंदगी मुंबई की क्षुद कालोनी में घटी है। अहमद अपने अब्बू और अम्मी के साथ रहता था। उसके अब्बू मोहम्मद वासिफ थे, जो सरकारी डाकखाने में काम करते थे। उसकी अम्मी, मरियम बेगम, एक गृहस्थी घरेलू थी, जिन्हें जिंदगी की काफी ज्यादा समझ नहीं थी। वो घर पर रहतीं और अक्सर किताबें पढ़ने में व्यस्त रहतीं।
अहमद एक समझदार लड़का था। उसकी हाइट लंबी थी और बाल घने। उसे देखकर लगता की जैसे कोई फिल्म स्टार हो। उसके अब्बू ने उसे गरीब बच्चों के कोटे के जरिये एक अच्छे प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया। उसके अम्मी-अब्बू चाहते थे कि वह UPSC की परीक्षा देकर एक अच्छी सरकारी पोस्ट पर नौकरी करे। अहमद उन सभी मुश्किलों से वाकिफ था जो उसके अब्बू और अम्मी ने झेली थीं उसे अच्छी शिक्षा देने के लिए।
अहमद ने UPSC की परीक्षा दी, हालाँकि उसका रुझान लेखक बनने की ओर था। लेकिन माँ-बाप की ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए उसने अपने ख्वाब को दिल में दबा लिया। जब परीक्षा का परिणाम आया, तो अहमद का चयन नहीं हो सका। इतने बड़े प्रतियोगिता में सभी का चयन संभव नहीं था।
रिजल्ट देखकर उसके अब्बू का चेहरा निराशा से भर गया, और वे अपने कमरे में चले गए। अम्मी रोते हुए अल्लाह से दुआ करने लगीं कि उनका बेटा एक दिन कामयाब इंसान बने। यह सब देखकर अहमद का दिल और भारी हो गया। घर में ऐसा सन्नाटा छा गया, जैसे वहाँ कोई रहता ही न हो।
शाम को सभी परिवार वाले एक साथ खाने पर बैठे। अचानक अब्बू ने धीमी आवाज में कहा, "मैंने कहा था, बारहवीं में साइंस ले लो। उसमें ज्यादा स्कोप है। लेकिन तुमने मेरी बात नहीं मानी और आर्ट्स ले ली।" अम्मी चुपचाप सब सुनती रहीं, और अहमद ने भी कुछ नहीं कहा। हालाँकि वह बहुत कुछ कहना चाहता था, लेकिन उसने अपने मन को शांत रखा। वह खुद को ही दोष देने लगा और अपने कमरे में चला गया।
कमरे में आकर वह सीधे बिस्तर पर लेट गया। वह सोचने लगा, "आखिर इस जिंदगी का असल मकसद क्या है? क्या केवल पैसे कमाना और इस दौड़ में भागना ही कामयाबी है? अगर ऐसा है, तो मैं सबसे कामयाब बनकर दिखाऊँगा।"
दूसरी तरफ, उसके अम्मी-अब्बू परेशान थे। वे सोच रहे थे कि कहीं उनका बेटा जिंदगी में बाकी बच्चों से पीछे न रह जाए। वे चाहते थे कि वह जिंदगी की इस रेस में सबसे आगे रहे और एक सफल इंसान बने।
अगले कुछ दिन खामोशी में गुजर गए। अहमद के भीतर एक तूफान चल रहा था, लेकिन वह किसी को नजर नहीं आ रहा था। उसने कई बड़ी कंपनियों में नौकरियों के लिए आवेदन किया, लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं आया। धीरे-धीरे वह मायूस होता जा रहा था।
कुछ दिनों बाद, अहमद को उसके दोस्त मोहसिन का फोन आया। मोहसिन अमेरिका में एक बड़ी कंपनी में मैनेजर के पद पर था। उसने बताया कि उनकी कंपनी भारत में एक नई शाखा खोलने वाली है और अगर अहमद चाहें, तो उसमें आवेदन कर सकते हैं। मोहसिन ने यह भी कहा कि अगर वह जल्दी आवेदन करेगा, तो नौकरी मिलने की संभावनाएँ ज्यादा होंगी।
अहमद ने उससे पूछा, "स्टार्टिंग सैलरी कितनी होगी?"
मोहसिन ने जवाब दिया, "शुरुआत में ₹1,50,000 प्रति महीना, और अगर तुम्हारा काम पसंद आया, तो सैलरी बढ़ा दी जाएगी।"
यह सुनकर अहमद मन ही मन खुश हो गया। फोन रखते ही उसने तुरंत उस नौकरी के लिए आवेदन कर दिया।
अगले दिन सुबह नाश्ते के वक्त, अहमद के अब्बू ने उससे पूछा, "तो अब क्या सोच रहे हो? आगे क्या करना है?"अहमद ने लंबी साँस ली और कहा, "मुझे एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई है।"
यह सुनकर उसके अब्बू को खुशी हुई, लेकिन उन्होंने अपनी खुशी को जाहिर किए बिना कहा, "अच्छी बात है।" दूसरी ओर, उसकी अम्मी ने खुशी से उसका माथा चूमा और उसे दुआएँ दीं।
अहमद ने नौकरी पर जाना शुरू कर दिया, लेकिन उसके दिल में अब भी यह बात थी कि अब्बू उससे नाराज़ हैं, और वह उनका सपना पूरा नहीं कर पाया। एक दिन, जब अहमद अपने कमरे में अकेला बैठा था, तो उसकी अम्मी वहाँ आईं। उन्होंने मुस्कुराकर पूछा, "क्या हुआ मेरे बेटे को? इतना उदास क्यों है?"
अहमद ने हल्के से मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "ज़िंदगी ऐसी हो गई है, अम्मी। उदासी हर वक्त साथ रहती है, और खुशी कभी-कभी हवा के झोंके की तरह आती है और चली जाती है।"
अम्मी उसके पास बैठ गईं और नरम आवाज़ में बोलीं, "ज़िंदगी का मतलब ही परेशानी और आज़माइश है। जिस दिन इंसान की ज़िंदगी में परेशानी आना बंद हो जाए, उसे ज़िंदा नहीं माना जाता। खुशी खुद चलकर हमारे पास नहीं आती, उसे ढूँढना पड़ता है। और तुम्हारी इतनी अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई है, अब क्यों उदास होना?"अहमद ने मुस्कुराते हुए कहा, "ज़िंदगी जीने का सलीका तो कोई आपसे सीखे, अम्मी।"
अगले दो सालों में अहमद ने खूब मेहनत की। उसकी तनख्वाह बढ़कर ₹5 से ₹6 लाख महीना हो गई। एक दिन, अहमद को याद आया कि उसके अब्बू का जन्मदिन करीब है। उसने सोचा, "अब्बू को खुश करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा। पिछले दो सालों से वह मुझसे नाराज़ हैं। अगर मैं उन्हें एक अच्छा सा तोहफा दूँ, तो शायद उनकी नाराज़गी खत्म हो जाए।"
अहमद ने तय किया कि वह अपने अब्बू को ऐसा तोहफा देगा, जिससे मोहल्ले में उनका मान-सम्मान बढ़े और उनका सिर गर्व से ऊँचा हो जाए। उसने दिल से योजना बनाई कि यह तोहफा उनके बीच की सारी दूरियाँ मिटा देगा।
अहमद के अब्बू अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाते थे। उन्होंने उस दिन को भी एक सामान्य दिन की तरह शुरू किया। दफ्तर गए और शाम को घर लौटकर अपनी पत्नी से चाय लाने को कहा।
तभी अहमद मुस्कुराते हुए घर में दाखिल हुआ और अब्बू से कहा, "आज हम सिर्फ चाय पीकर अपनी शाम खराब नहीं करेंगे। आज हम एक बड़े रेस्टोरेंट में खाना खाने जाएँगे।"
अब्बू ने थके हुए स्वर में जवाब दिया, "मैं बहुत थक गया हूँ। वैसे भी इतनी फिजूल खर्ची क्यों करनी? पहले टैक्सी बुक करो और फिर महंगे खाने का बिल। इससे बेहतर तो घर पर ही आराम करना है।"अहमद ने जल्दी से जवाब दिया, "आज आपको टैक्सी के खर्च की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। बस मेरे साथ बाहर चलिए, आपको कुछ दिखाना है।"
इसके बाद अहमद अपने अब्बू और अम्मी को लेकर घर के बाहर आ गया। वहाँ एक बड़ी सी सफेद गाड़ी खड़ी थी। अम्मी ने हैरानी से अहमद की तरफ देखा और पूछा, "यह गाड़ी किसकी है, अहमद?", अहमद ने मुस्कुराते हुए कहा, "यह हमारी गाड़ी है, अम्मी। और आज हम इसी में बैठकर रेस्टोरेंट में खाना खाने जाएँगे।"
अहमद के अब्बू ने उसे गले से लगाते हुए कहा, "मुझे माफ कर दो, बेटा। मैंने तुमसे नाराज़ रहकर तुम्हें बहुत परेशान किया। मगर मैं सिर्फ अपने बेटे को कामयाब इंसान बनते हुए देखना चाहता था।"अहमद ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "कामयाब तो मैं बन गया, अब्बू। अब आपके पास उदास होने की कोई वजह नहीं है।"
इसके बाद अहमद, उसकी अम्मी और अब्बू एक अच्छे से रेस्टोरेंट में खाना खाने गए। अगले कुछ दिन सुकून से बीते। और क्यों न बीतते? आखिर अहमद अपने अम्मी और अब्बू को खुश करने और उनकी नज़रों में कामयाब बनने में सफल जो हो गया था।लेकिन क्या वह खुद की नज़रों में भी कामयाब और खुश था?
अहमद का रूटीन बन गया था: रोज़ सुबह जल्दी ऑफिस जाना, रात को घर आना, डिनर करके सो जाना। अपने आसपास के लोगों को खुश करने में वह सफल था, मगर अपनी खुशी कहीं खो बैठा था। वह हर वक्त बेचैन रहने लगा। उसे लगता था कि अगर उसने ज़रा सा भी आराम किया, तो उसके हाथ से वह सब कुछ छिन जाएगा जो उसने मेहनत से कमाया है।
अपने जीवन में सुकून लाने की कोशिश में, उसकी अपनी ज़िंदगी से सुकून गायब हो चुका था। और ऐसा क्यों हुआ, यह वह खुद नहीं समझ पा रहा था।
वह अक्सर रात को अकेले बैठकर सोचता, "आखिर मेरी मायूसी की वजह क्या है? सब कुछ तो है मेरे पास। अच्छी नौकरी, शानदार गाड़ी, और कुछ सालों में मैं एक बड़ा घर भी खरीद लूँगा। इंसान को और क्या चाहिए ज़िंदगी में?"यह सोचकर वह खुद को दिलासा देता, लेकिन दिलासा भी उसका दर्द कम नहीं कर पाता।
संडे के दिन, जब उसकी छुट्टी थी, वह देर से उठा। बाहर आया तो देखा कि उसकी अम्मी और अब्बू बैठे-बैठे खबरें सुन रहे थे। अम्मी ने मुस्कुराकर कहा, "नाश्ता कर लो बेटा, तुम्हारे पसंदीदा पराठे बनाए हैं। "अहमद ने धीमी आवाज़ में कहा, "नहीं, अम्मी। आज पेट में बहुत दर्द हो रहा है। दर्द के कारण पूरी रात सो भी नहीं पाया।"
यह सुनकर अब्बू ने फिक्र जताते हुए कहा, "पेट दर्द की दवा ले लो, बेटा। आराम हो जाएगा। "अचानक अहमद के पेट का दर्द और बढ़ गया। उसे उल्टी जैसा महसूस होने लगा। वह बाथरूम के दरवाजे तक पहुँच भी नहीं पाया था कि उसे उल्टी हो गई। लेकिन यह कोई आम उल्टी नहीं थी—यह खून की उल्टी थी।उसकी अम्मी और अब्बू उसके पीछे-पीछे आए और खून की उल्टी देखकर हैरान रह गए। अहमद ने तुरंत अपनी गाड़ी निकाली और अपनी अम्मी और अब्बू के साथ एक अच्छे अस्पताल पहुँच गया।
डॉक्टरों ने कई चेकअप किए। कुछ घंटों बाद डॉक्टर ने अहमद को बुलाकर कहा, "आपको पेट का कैंसर है। "यह सुनते ही अहमद की अम्मी फूट-फूटकर रोने लगीं, और उसके अब्बू उन्हें संभालने की कोशिश करने लगे। दूसरी तरफ, अहमद पत्थर की मूर्ति की तरह बैठा रह गया। वह कुछ बोल नहीं पा रहा था।
कुछ देर बाद उसने खुद को संभाला और गहरी सांस ली। वह नहीं चाहता था कि उसकी मायूसी देखकर उसकी अम्मी और अब्बू और टूट जाएँ। डॉक्टर ने कहा, "आपको घबराने की जरूरत नहीं है। आपका कैंसर अभी शुरुआती दौर में है। इसके कई कारण हो सकते हैं—जंक फूड, अत्यधिक तनाव, और अन्य कई वजहें। सही इलाज से यह ठीक हो सकता है।"
अहमद अपने अम्मी और अब्बू के साथ घर लौट आया। घर पहुँचने के बाद वह सीधे अपने कमरे में चला गया। वहाँ, उसने अपनी अब तक की ज़िंदगी के बारे में सोचना शुरू किया। पिछले कुछ सालों में उसने जो कुछ भी कमाया था, वह उसे अपने हाथ से फिसलता हुआ महसूस हुआ। उसे लगा कि किस्मत के सामने, उसकी सारी मेहनत और कामयाबी बेमानी साबित हो गई है। ज़िंदगी की जिस रेस में वह दौड़ रहा था, उसी ने उसे घायल कर दिया।
उस रात अहमद सो नहीं पाया। वह अपने जीवन के हर फैसले के बारे में सोचता रहा। उसने खुद से कहा, "मैंने ज़िंदगी के हर फैसले को बहुत सोच-समझकर लिया। ज़्यादा पैसे कमाने और आगे बढ़ने की होड़ में, मैंने अपने पैशन, अपने लेखक बनने के सपनों को पीछे छोड़ दिया। मैं हमेशा डरता रहा कि कहीं मुझसे कोई गलती न हो जाए, कहीं सब कुछ न छिन जाए। और आज, जब मैं देखता हूँ, तो लगता है कि मैं सब कुछ खो चुका हूँ।"
अहमद को धीरे-धीरे एहसास हुआ कि अपने आस-पास के लोगों को खुश करने के लिए उसने अपनी खुशियाँ कुर्बान कर दीं। वह सोचने लगा, "अगर मैं इस बीमारी से मर भी गया, तो क्या मैं अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट हो पाऊँगा?" उसका मन स्पष्ट रूप से जवाब दे रहा था—"नहीं।" क्योंकि वह अपनी ज़िंदगी उस तरीके से जी ही नहीं रहा था, जैसा वह जीना चाहता था।
अहमद की दवाइयाँ शुरू हो गईं, लेकिन उसकी तबीयत में कोई खास सुधार नहीं हुआ। बीमारी की वजह से वह नौकरी पर नहीं जा पा रहा था। कुछ हफ्तों बाद, कंपनी ने उसे निकाल दिया। यह सुनकर वह और भी ज़्यादा उदास और निराश हो गया।
इसी दौरान, उसका स्कूल का दोस्त करण, जो कि एक मनोवैज्ञानिक था, उससे मिलने आया। करण को देखकर अहमद थोड़ा खुश हुआ। बातचीत के दौरान अहमद ने करण को अपनी ज़िंदगी की सारी बातें बताईं—अपनी परेशानियाँ, अपनी असफलताएँ, और अपने सपने। करण ने ध्यान से सुनने के बाद कहा, "अगर तुम अपनी ज़िंदगी दूसरों को खुश करने के लिए जीते रहोगे, तो कभी खुश नहीं रह पाओगे। तुम्हें वो चीज़ें करनी चाहिए जो तुम्हें सुकून दें।"
अहमद ने पूछा, "लेकिन मेरे माँ-बाप की खुशी का क्या? अगर मैं उनके सपनों के खिलाफ जाऊँ तो क्या वे खुश होंगे?"करण ने जवाब दिया, "क्या तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें उदास और मायूस देखकर खुश होंगे? अगर तुम्हारी 'नकली खुशी' तुम्हारी ज़िंदगी को और नुकसान पहुँचाएगी, तो क्या उन्हें अच्छा लगेगा?"अहमद ने धीरे से कहा, "नहीं।"
करण ने मुस्कुराते हुए कहा, "मेरे माँ-बाप भी मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, लेकिन मेरा सपना मनोवैज्ञानिक बनने का था। मैंने उनके सामने अपनी बात रखी और आज मैं वही काम कर रहा हूँ जो मुझे खुशी देता है। और अब मेरे माँ-बाप मुझसे गर्व महसूस करते हैं।"
करण से बात करने के बाद अहमद को राहत मिली। उसने सोचा कि अब उसे अपनी ज़िंदगी को अपने तरीके से जीना चाहिए। अगले दिन उसने अपने लैपटॉप पर वह पुराना फ़ोल्डर खोला जिसमें उसकी अधूरी उपन्यास पड़ी थी। उसने फिर से लिखना शुरू कर दिया।
जब उसने लिखना शुरू किया, तो उसे अपने भीतर पहले से बेहतर महसूस हुआ। यह उसके लिए किसी थेरेपी जैसा था। कुछ दिन बाद, नाश्ते के दौरान, अहमद के अब्बू ने उससे कहा, "तुम्हारी अम्मी बता रही थीं कि तुमने फिर से किताब लिखना शुरू कर दिया है।"
अहमद ने मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ, अब्बू।"
लेकिन अब्बू ने गंभीरता से कहा, "तुम्हारी नौकरी तो पहले ही चली गई है। ऐसे समय में इस तरह फालतू कामों में वक्त बर्बाद करना ठीक नहीं है।"
अहमद ने गहरी सांस ली और कहा, "जो काम मैं इतने सालों से कर रहा था, वही असल फ़िज़ूल था। फ़िज़ूल काम वह था, जिसमें मुझे खुश होने का नाटक करना पड़ता था। आप दोनों को खुश करने के लिए मैंने अपनी खुशी और सुकून को दफन कर दिया। क्या यह काफी नहीं था कि आपका बेटा आपके साथ था? कि वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए मेहनत कर रहा था?"
उसने आगे कहा, "आप दोनों ने मुझे ऐसी पैसे कमाने की रेस में धकेल दिया, जिसमें मुझे कभी घुसना ही नहीं था। मुझे कभी बड़ी कार, महंगे कपड़े या बड़े घर की जरूरत नहीं थी। मेरे लिए मेरे माता-पिता और मेरा लेखक बनने का सपना ही काफी था।"
अहमद की बातों को सुनकर उसके अम्मी-अब्बू को अपनी गलती का अहसास हुआ। अहमद की अम्मी ने उसे गले लगाया और कहा, "हमें माफ कर दो बेटा, हमें तुम्हारी भावना समझने में देर हो गई।"अहमद के अब्बू की आंखों में भी आंसू थे, उन्होंने कहा, "मुझे माफ कर दो बेटा, मैंने तुम्हारे ऊपर अपने सपनों का बोझ डाल दिया और यह भी नहीं सोचा कि तुम्हारे सपने क्या होंगे।" वे रोने लगे।
अहमद ने दोनों को गले से लगा लिया और कहा, "आपको सिर्फ मुझ पर भरोसा रखना है। अब पुरानी बातें भूलकर ज़िंदगी में आगे बढ़ने का वक्त है। "अगले कुछ महीने अहमद का इलाज जारी रहा, और इस दौरान वह अपनी नॉवेल पर भी काम करता रहा। इलाज की वजह से उसे अपनी कार बेचनी पड़ी।
आखिरकार, अहमद ने अपनी नॉवेल पब्लिश कर दी, लेकिन कुछ दिनों तक उसे कोई रिस्पांस नहीं मिला। एक महीने बाद उसकी नॉवेल बेस्ट-सेलर बन गई! अचानक, उसे एक दिन हॉलीवुड के प्रोड्यूसर का फोन आया, और उन्होंने कहा कि वे उसकी नॉवेल पर फिल्म बनाना चाहते हैं। यह सुनकर अहमद बहुत खुश हुआ। जब उसने यह खुशखबरी अपनी अम्मी और अब्बू को दी, तो वे खुशी से अहमद को गले लगाकर बोले, "अब तुम सच में कामयाब हो गए बेटा!"
अहमद के लिए यह शुरुआत थी। उसने भारतीय फिल्मों के लिए भी लेखक के तौर पर काम करना शुरू किया। अहमद को अपने इलाज के खर्चों के कारण अपनी गाड़ी बेचनी पड़ी थी, लेकिन उस मुश्किल समय के बाद उसने फिर से अपनी मेहनत से एक नई शुरुआत की। उसने एक अच्छी कॉलोनी में एक नया घर खरीदा, जहाँ उसके अम्मी और अब्बू को किसी भी प्रकार की परेशानी न हो। अब वह अपने परिवार को एक आरामदायक और खुशहाल जीवन देने में सफल हो चुका था।
By Sahil Khan
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