सुनहरी धूल
- Hashtag Kalakar
- Sep 28, 2024
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By Sansha Mishra
“ए भोले ! बरसात में ‘ फगुनिया की गुफा ’ के पास मत जा रे, उसके रोनेकी आवाज़ आती है।”
“क्यों माई?”
“चुप कर ! जितना कहूँउतना कर, वरना उसका भूत तेरा कलेजा काट खाएगा।”
पुलिया के उस पार, गाँव सेलगभग ३० कोस दूर बड़ा पुराना सा एक टूटा, मटमैला साइन बोर्डथा। धूल की परतेंउस इलाक़े के कई राज छुपाती थीं। और धूल भी कोई ऐरी-गैरी नहीं साहब, ‘सुनहरी धूल’। सूरज की रोशनी मेंपैरों तलेमानो एक-एक कतरा विशुद्ध माया। कु छ लोग कहतेकी एक तोला धूल की क़ीमत लगभग खरेसोनेजितनी है। बात ग़लत भी नहीं, आख़िर उस जगह के ठेके दार बाबूऐम्बैसडर सेउतरते, सफ़ेद क़मीज़, सफ़ेद पतलून, कालेजूते, कालेचश्मेऔर कलाई पर चमचमाती सुनहरी घड़ी। उनकी कार उस धूल को उड़ाती चली जाती।
“इन जाहिल गाँव-वालों ने ‘फगुनिया की गुफा’ का ख़ौफ़ फै ला रखा है, वरना वहाँकु छ है नहीं।”
पर्मिट ग्रांट होनेके बाद कु छ बाशिंदों के घर क्या टूट गए, हरामियों नेभूतिया कहानी बना डाली साहब, आप चिंता मत करिए, खुदाई कल सेशुरू हो जाएगी।”, ठेके दार बाबूके अर्दली नेखिसियातेहुए कहा। ठेके दार बाबूसर हिलाकर गाड़ी मेंबैठ चल पड़े।
दूर छिपा नालायक भोलेयह सब देख-सुन रहा था। “देखूँतो कौन आता है” सोच कर आगे बढ़ा गुफा तक। माई ठीक कहती थी, बारिश मेंगुफा पास आनेवालेको निगल जाती है।
न जानेभोलेकहाँगया ? आजकल दिखता ही नहीं, बिलखती उसकी माँहर पल सिर्फ़ ‘फगुनिया की गुफा’,’फगुनिया की गुफा’ बड़बड़ाती रहती है। बाँवली बेचारी।
पर इससेक्या ? ठेके दार बाबूतो आज भी अपनेसुनहरी घड़ी सेगाँव के सभी लोगों का समय तय कर रहेहैं। और उस ही गाँव-भर मेंउड़ती इस धूल नेगुफा की अनगिनत चीखें, माई की सिसकियों और कई मासूम किलकारियों को दफ़ना दिया है।
सही कहा था किसी ने, इस धूल की क़ीमत और चमक दोनों ही बड़ी महँगी हैं। प्रेरणा- माइका की खदानों मेंप्रचलित बाल मज़दूरी।
By Sansha Mishra

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