यादों की थपकी
- Hashtag Kalakar
- Oct 15
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By Navneet Gill (नवनीत गिल)
मानसपटल पर,
बसाकर रहती घर।
"कहर" बरपाती,
हंसाये कम ज्यादा रुलाती।
चिन्हित करके,
देखें, फिर छिपके।
बरबस झकझोरें,
देकर हृदयेश्वर को हिलोरें।
यादों का परचम,
सजा बैठा जब मंच।
बिसरा सब तभी,
देता थपकी भूलाकर सभी।
नहीं, कभी भरे,
सालते, शाम सवेरे।
नए-पुराने जख़्म,
ढूँढते जो, बरसों से मरहम।
"रूई" के फाहे,
भांति खोलकर बाहें।
करतीं हैं दुलार,
छोड़कर कटुता का व्यापार।
By Navneet Gill (नवनीत गिल)

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