प्रेम जैसा कुछ
- Hashtag Kalakar
- Oct 13
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By Deepak Kulshrestha
वो प्यार था या कुछ और था, न उसे पता ना मुझे पता...रेडियो पर अनवर और सुधा मल्होत्रा की आवाज़ में फिल्म प्रेम रोग का ये खूबसूरत गीत बज रहा था और मैं सोच रहा था की सच वो प्यार ही था या कुछ और था ? मुझे याद आ रही थी वो कहानी जिसमे प्रेम था या नहीं ये तो अंत तक पता नहीं चला पर प्रेम जैसा कुछ तो ज़रूर था.
बात पुरानी भी है और नयी भी, इस कहानी के दोनों मुख्य किरदार यानि कहानी का हीरो और हीरोइन दोनों मेरे साथ मेरे ही ऑफिस में काम करते थे. आप सोच रहे होंगे इन किरदारों को कोई नाम क्यों नहीं दिया गया ? तो उसका सीधा सा जवाब है मर्यादा की खातिर. दोनों रियल लाइफ़ किरदार हैं और इन दोनों किरदारों को मैंने इतने नज़दीक से देखा और जाना है कि उनके असली नाम यहाँ देना मुझे उचित नहीं लगा और किसी और नाम से बुलाने से कहानी का कथ्य और तथ्य दोनों ही में से रस निकल जाता है. सो, वापिस कहानी पर लौटते हैं, इस कहानी का हीरो अगर देखने में बाँका-सजीला जवान था तो हीरोइन भी आकर्षक और जिंदादिली से भरपूर थी. दोनों शादीशुदा थे और अपनी पारिवारिक ज़िन्दगी में खुश नज़र आते थे. दोनों एक ही ऑफिस में काम करते थे पर काम अलग-अलग था इसलिये एक ही बिल्डिंग में होते हुए भी दोनों अलग-अलग फ्लोर पर बैठते थे. यही वजह रही कि दोनों को कभी एक साथ काम करने का अवसर नहीं मिला. एक-दूसरे को लेकर जो भी थोड़ी-बहुत वाकफ़ियत रही वो ऑफिस की पार्टी या Get Together वगैरह तक ही सीमित रही, इसके अलावा दोनों कभी साथ भी नहीं देखे गये. कुल मिलाकर दोनों अपनी-अपनी निजी ज़िन्दगी में समय के साथ आगे बढ़ रहे थे. दोनों के बीच अगर कुछ भी साझा था तो वो था मैं जो दोनों का दोस्त था. मेरी दोनों से दोस्ती आगे भी चलती रही. फिर जैसा कि किसी भी कॉर्पोरेट जॉब में अक्सर होता है, वक़्त बदला और हम तीनों ही अपनी-अपनी जॉब बदल कर अलग-अलग कंपनियों में नयी जॉब पर चले गये.
दीवार पर कैलेंडर बदलते रहे और बदलते समय के साथ कहानी थोड़ी और आगे बढ़ी. मेरी दोनों के साथ यदा-कदा मुलाकातें होती रहीं. जब कभी भी ये मुलाकातें होतीं, घर-परिवार की बात होती, नयी नौकरी और नये साथियों की बात होती, पुराने साथी भी ज़रूर याद किये जाते – मसलन कौन-कौन, कहाँ-कहाँ, क्या-क्या कर रहा है. कुछ समय और गुज़रा और गुज़रते समय के साथ हम तीनों ही अपनी-अपनी दिशाओं में अपने-अपने कैरियर में आगे बढ़ते रहे, मेरी दोनों के साथ अलग-अलग मुलाकातें भी पूर्ववत् चलती रहीं. इस बदलते समय और मुलाकातों के बीच एक विशेष बात जो मैंने नोटिस की वो यह कि जब भी मैं दोनों में से किसी एक से मिलता हूँ तो वो दुसरे के बारे में ज़रूर पूछता है, सवाल काफी जिज्ञासा और विस्तार से पूछे जाते थे. शुरू-शुरू में तो मैं यूँ ही मुस्कुरा के जवाब दे दिया करता था पर ये ट्रेंड नोट करने के बाद मैं भी कभी-कभी हँस के चुटकी ले लिया करता था जैसा कि अक्सर यार-दोस्तों में होता है. कभी-कभी तो मैं ही अपनी तरफ से बात छेड़ कर एक पक्ष को दुसरे पक्ष के बारे में बता दिया करता था और प्रतिक्रिया देख कर आनंद लिया करता था. हँसी-मज़ाक के इस खेल में मुझे भी मजा आने लगा था. दोनों की जिज्ञासा एक-दूसरे को लेकर बढ़ती रही और जाने-अनजाने मैंने भी उन शोलों को हवा दी. एकाध बार मैंने हमारे हीरो से यह जानने की कोशिश भी की कि इन शोलों में आँच कितनी है यानि कि मामला किस हद तक सीरियस है पर उसने हँस कर बात को उड़ा दिया और बात आयी-गयी हो गयी. दीवार पर कुछ कैलेंडर और बदले, हम तीनों ने एकाध जॉब और बदली पर मेरी उनके साथ होने वाली मुलाकातों का सिलसिला जारी रहा, उनकी जिज्ञासाओं का दौर थमा नहीं बल्कि बढ़ता गया. अपनी मुलाकातों के दौरान मैंने एक-दो बार उन दोनों से कहा भी कि तुम दोनों एक-दूसरे के बारे में जानने को इतने बैचैन रहते हो तो कभी आपस में मिल क्यों नहीं लेते या फोन पर ही बात कर लो ? तुम आपस में अच्छे दोस्त भी तो बन सकते हो...वजह क्या रही ये तो पता नहीं पर दोनों ने ही इस बात के लिए स्पष्ट इन्कार कर दिया. मैं भी समझ नहीं पाया कि बात में कितनी गहराई है, जाने कौन सी ख़ुशी थी जो वो दोनों इस virtual relationship में पा रहे थे जिसका माध्यम जाने-अनजाने उन्होंने मुझे बना लिया लिया था या कहूँ कि नियति से मैं खुद ही बन गया था. ये रिश्ता तो राधा-कृष्ण के रिश्ते की तरह platonic भी नहीं कहा जा सकता था.
इसी बीच दिल्ली में CII का एक सेमिनार था जहाँ दोनों को अपने-अपने ऑफिस की तरफ से जाना पड़ा. रजिस्ट्रेशन काउन्टर पर सुबह-सुबह लिस्ट में आगे-पीछे एक दुसरे का नाम देख कर दोनों को यह तो पता चल गया कि संयोग से आज वो दोनों एक ही वक़्त में एक ही स्थान पर मौजूद हैं, एक पल को उनकी नज़रें भी मिलीं और फिर वहाँ मौजूद भीड़ में खो गयीं, उसी के साथ वो दोनों भी उसी भीड़ में खो गये. सेमिनार पूरे दिन चला पर दोनों ने ही बात का पूरा ख़याल रखा कि किसी भी परिस्थिति में वो दोनों एक-दुसरे के आमने-सामने नहीं आयें और शाम होते ही दोनों अलग-अलग अपने-अपने रास्तों पर निकल गये.
इसके कुछ समय बाद मेरी जब उनसे मुलाकात हुई तो दोनों ने ही अपनी-अपनी बातों में इस वाकये का जिक्र किया. मैंने दोनों से ही जब उस दिन उनके आपस में न मिलने का कारण जानना चाहा तो संयोग वश दोनों के जवाब भी एक से ही निकल कर आये. जवाब का सार जो निकला वो यह था – बहुत मुश्किल होता है कि ज़िन्दगी में जैसा लाइफ़ पार्टनर आप चाहते हो ठीक वैसा ही लाइफ़ पार्टनर आपको मिल जाये. कहीं न कहीं कोई न कोई कमी अक्सर रह जाती है. ऐसा नहीं कि सभी के साथ ऐसा होता है पर कुछ लोगों के साथ तो ऐसा होता ही है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है. वो दोनों भी अपनी-अपनी निजी ज़िन्दगी में ऐसे ही अनुभवों से गुज़र रहे थे. जो कमियाँ वो अपने लाइफ़ पार्टनर में अपनी निजी ज़िन्दगी में महसूस कर रहे थे उसकी पूर्ती कहीं न कहीं इस काल्पनिक छवि और रिश्ते से हो रही थी. दोनों अपने-अपने सामाजिक दायरों में अपने-अपने परिवारों से बंधे हुए थे, बच्चे बड़े हो रहे थे. दोनों ही जानते थे कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं हो सकता है.
एक ख़ामोशी से भरी हुई क़सक थी बस जो यहाँ इस तरीके से दूर हो रही थी और वो इस ख़याल, इस छवि को तोड़ना नहीं चाहते थे. मुझे याद आ रही थी यह लाइन्स...हाथ से छू के इसे रिश्ते का इलज़ाम ना दो, सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो.
क्या आपको भी लगता है कि इस कहानी में ‘प्रेम जैसा कुछ’ नहीं था ?
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By Deepak Kulshrestha

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