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पिंजरा

By Ashwini U


"कौसल्यासुप्रजा राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते।

   उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम्॥"

यह भजन अब ‘सरस्वती सोसाइटी’ की सुबह का स्थायी हिस्सा बन गया है। पहले ऐसा नहीं था, लेकिन जबसे पहली मंजिल वाली आज्जी यहाँ पर रहने आई  हैं, तब से हर दिन की शुरुआत इसी श्लोक से होती है। उनका असली नाम किसी को नहीं पता — सब उन्हें बस ‘आज्जी’ कहते हैं।

हर सुबह ठीक पाँच बजे उठकर वे पूजा-पाठ में लग जाती हैं। कामवाली शांता बाई सबसे पहले उन्हीं के घर जाती है। तब तक आज्जी की रसोई तैयार हो चुकी होती है।

आज भी, हर दिन की तरह,  ठीक आठ बजे शांता बाई ने दरवाज़े की घंटी बजाई। आज्जी ने दरवाज़ा खोला ही था कि उनकी नज़र सामने वाले फ्लैट पर पड़ी — रवि ताला खोल रहा था। कुछ दिनों से उसका दरवाज़ा बंद था। आज्जी ने सहज ही पूछ लिया “बेटा घर गए थे क्या?”

रवि ने हाँ में बस सिर हिला दिया।  तभी आज्जी की नज़र उसके पीछे खड़ी लड़की पर गई —  सजी-संवरी, जैसे नई दुल्हन हो।

आज्जी झट पूछ बैठीं, “ब्याह कर लिया क्या?” 

रवि ने दरवाज़ा खोलते हुए छोटा सा जवाब दिया, “जी।” 

फिर बिना कुछ कहे पत्नी के साथ भीतर चला गया और दरवाज़ा आज्जी के सामने ही बंद कर दिया।

शांता बाई ने भौंहें सिकोड़ते हुए कहा, “बड़ा बदतमीज़ है! आज्जी, तुम भी ना! क्यों पूछती हो उससे? जब उसे बात करने की तमीज़ नहीं है, तो तुम्हें भी क्या ज़रूरत ?” फिर उसने भी आज्जी को अंदर खींचा और दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर दिया। 

आज्जी  कभी  जुहू के अपने  भव्य बंगले में रहा करती थीं।  उनके पति का अच्छा कारोबार था। घर में नौकर-चाकर थे, रसोई से लेकर बाग-बग़ीचे तक हर काम के लिए अलग - अलग लोग थे।  जीवन में ठाठ था, रुतबा था। लेकिन जब से आजोबा को अल्झाइमर  हुआ, तब से सब कुछ बदल गया। धीरे - धीरे  कारोबार बंद हुआ और उसके साथ शानो-शौकत भी जाती रही।

फिर भी दोनों साथ थे, यही उनका सबसे बड़ा सुख था। एक-दूसरे का साथ ही तो उनकी असली दुनिया थी।

 


पर कुछ महीने पहले आजोबा अचानक कहीं चले गए — बिना कुछ बताए, बिना कुछ कहे। कई दिनों तक खोजबीन चली, अख़बारों में इश्तहार दिए गए, पुलिस से मदद ली गई। मगर उनका कोई पता न चला। फिर भी आज्जी ने हार नहीं मानी और खुद गली – गली जाकर उन्हें तलाशती। आखिर एक दिन, एक अज्ञात शव की पहचान के साथ वह तलाश हमेशा के लिए थम गई।

दो बेटे थे जो पहले ही विदेश में बस चुके थे, पर खबर मिलते ही लौट आए। बहुएँ भी बच्चों को लेकर आ गईं। आज्जी तो पूरी तरह टूट गई थीं, पर नाती-पोतों की किलकारियों से और अपने बच्चों के साथ रहने से थोड़ी सी राहत अवश्य मिली। मगर यह सब कितने दिन चलता? बच्चों की असली  दुनिया तो विदेश में थी — बेटों की नौकरियाँ, बच्चों के स्कूल, सब कुछ वहीं था।

एक दिन सब चले गए — एक बेटा लंदन और दूसरा अमेरिका। जाते-जाते माँ के लिए एक फ्लैट का इंतज़ाम कर दिया। बच्चों ने कहा कि बंगले में अकेले रहना सुरक्षित नहीं है, इसलिए उसे बेच दिया गया। हर महीने बेटों ने माँ के खाते में पैसे भेजने का वादा किया। शुरू के चार - छः महीने सब ठीक चला, फिर धीरे-धीरे पैसे आना बंद हो गए। जब आज्जी पूछतीं तो छोटे का जवाब होता — "भैया से पूछो", "मैंने अभी तो भेजे हैं ।" और बड़े से पूछती तो बड़ा कहता " इस बार छोटे से पूछो ।" और फिर कई दिनो तक चुप्पी। 

आज फिर आज्जी ने बारी - बारी दोनों बेटों को फोन लगाया — पर किसी ने फोन उठाया ही नहीं। आज्जी की आंखें भर आईं। आँसू पोंछते हुए वे शांताबाई से बोलीं, "डॉक्टर ने कहा है कि थोड़ा-बहुत काम करती रहूँ, नहीं तो बीमार पड़ जाऊँगी। मैं सोच रही हूँ कि अब मैं खुद ही काम कर लूँ । (वह थोड़ा रुकी और फिर हिचकिचाते हुए बोली) ... तुम कल से मत आना शांता।  तुम्हारा काम  भी हल्का हो जाएगा।  ठीक है ना?"

शांताबाई सब समझ गई। वो मुस्कराई और बोली, "ऐसा मत कहो आज्जी । मैं यहाँ सिर्फ काम के लिए नहीं आती। आपके हाथ के गरम-गरम नाश्ते की आदत लग गई है। कभी-कभार सफाई करने आ जाया करूँगी। बस आप मुझे अपने हाथ से बना खाना खिला देना। पगार नहीं चाहिए। चलेगा ना?" आज्जी ने नम आँखों से मुस्कराकर सिर हिलाया।

आज आज्जी वैसी भी यह सोचकर  खुश थी  कि चलो, पड़ोस में कोई तो आया है। बातों का सिलसिला शुरू होगा, मन भी लगा रहेगा। पर उनकी वह उम्मीद जल्द ही धुंधली पड़ गई। नए फ्लैट के दरवाज़े पर दिनभर ताला लटका रहता।

आज्जी को हैरानी हुई, तो एक दिन शांताबाई से पूछ ही बैठीं, "अरे, क्या बात है, उस घर में कोई दिखता ही नहीं। दिनभर घर बंद रहता है।"  शांताबाई ने कंधे उचकाते हुए कहा, "आज्जी, लगता है मियाँ-बीवी दोनों ही नौकरी करते होंगे। यही तो मुंबई का चलन है ना! नहीं तो इतनी मँहगाई में गुजारा कैसे होगा?"

 आजी कुछ चौंकीं। "मगर मैंने तो सिर्फ रवि को ही आते-जाते देखा है। लड़की कहीं लौट तो नहीं गई? शायद मन नहीं लगा हो यहाँ। लगेगा भी कैसे? दिनभर अकेले कमरे में बंद रहकर कौन रह सकता है!"

 


शांताबाई हँस पड़ी। "आज्जी, आपको तो एकदम मोह हो गया उस नई दुल्हन से! ये मुंबई है — यहाँ ना कोई किसी के आने की परवाह करता है, ना जाने की। हर कोई अपनी दुनिया में मस्त है। आप क्यों किसी के लिए भी परेशान हो जाती हो ?"

 शांताबाई की बात भले ही आजी को  ठीक  न लगी हो, पर कहीं न कहीं वो बात  उनकी  समझ में आ गई।

यह शहर रिश्तों को उतना वक़्त नहीं देता, जितनी आज्जी की पुरानी दुनिया दिया करती थी। यूँ  भी, आज्जी की अपनी परेशानियाँ  ही क्या कम थीं कि पड़ोसियों की सोच में उलझतीं। जिंदगी की गाड़ी वो किसी तरह अपनी छोटी-सी जमा पूँजी के सहारे खींच रही थीं । बड़ी मेहनत और बरसों की बचत से जो भी जुटाया था, वो अब धीरे - धीरे खत्म हो रहा था। सबसे बड़ी चिंता थी — किराए की। हर महीने तीस हज़ार का इंतज़ाम करना किसी पहाड़ से कम नहीं था। कहाँ से लाएं, किससे कहें? बस बेटों को रोज फोन करती रहती। दरअसल, बेटे - बहु को यही गम था कि पिता ने सब कुछ माँ के नाम किया था। बंगला तो चोरी - चकारी का हवाला देकर उन्होंने बिकवा दिया और पैसे आपस मे बाँट लिए । मगर पुश्तैनी जमीन को बेचने से माँ ने साफ मना कर दिया। बेटे यह भी जानते थे कि पिता के बीमे की अच्छी खासी रकम भी माँ को ही मिलेगी तो भला उन्हें पैसे भेजने की क्या जरूरत? मगर बेचारी आज्जी को ये दफ्तरों की लिखा - पढ़ी का क्या पता? उन्हें तो बीमे का ही कोई इल्म ही नहीं है । वो तो बस बेटों  से ही उम्मीद लगाए बैठी हैं । आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। और आज्जी की कोशिश भी जारी है कि कभी तो बेटों की तरफ से जवाब आएगा।

कई दिनों बाद आज्जी आज शाम को सब्जी लेने निकलीं। सोचा था थोड़ा मन भी बहल जाएगा और कुछ ज़रूरी सामान भी आ जाएगा। मगर आज की दुनिया अब उनकी पहुँच से बाहर जान पड़ती थी।  महँगाई  थम नहीं रही थी, और उनकी जेब दिन-ब-दिन हल्की होती जा रही थी। वो काफ़ी देर तक भाव-ताव करती रहीं, पर अंत में आलू-प्याज़ से ही काम चलाना पड़ा। मन तो बहुत कुछ खरीदने का था, पर मजबूरी की झोली हमेशा खाली ही रहती है।

 तभी, सड़क के उस पार से कुछ शोरगुल सुनाई दिया — भीड़ जुटी थी, कुछ हलचल थी...। आज्जी ठिठक गईं। वहाँ भीड़ लगी थी और माहौल गर्म था। भाषा को लेकर बहस छिड़ी हुई थी।

कुछ लोग एक युवती को घेरकर खड़े थे। आज्जी  जैसे - जैसे पास आयीं,  शोर बढ़ता गया मगर फिर भी  उनके कानों में कुछ बातें साफ सुनाई दीं। 

"मराठीत  बोला. इथे राहायचं असेल तर मराठीतच बोलाव लागेल! (मराठी में बोलो! यहाँ रहना है तो मराठी बोलना ही होगा!)" आज्जी समझ गई कि फिर वही भाषा का विवाद है। उन्हें यह भाषा का विवाद कभी भी अच्छा नहीं लगता था।

भाषा कोई दीवार थोड़े ही होती है — यह तो दिल जोड़ने का माध्यम है। भीड़ में कुछ लोग ऐसे भी थे जो इस ज़बरदस्ती का विरोध कर रहे थे । दोनो ही पक्ष तू तू - मैं मैं कर रहे थे। माहौल तनावपूर्ण था।



तभी आज्जी की नज़र उस युवती पर पड़ी — वो कोई और नहीं, रवि की पत्नी थी! बेचारी सहमी हुई सी खड़ी थी, आँखों में डर और चेहरे पर घबराहट। मराठी क्या, उस वक्त वो शायद अपनी मातृभाषा में भी बोलने की स्थिति में नहीं थी। आज्जी ने बिना एक पल गंवाए, भीड़ के बीच आगे बढ़कर मराठी में तेज़ आवाज़ में कहा —"ही माझी नात आहे!" (यह मेरी पोती है)  बस... जैसे जादू हो गया हो। लोग चुप हो गए। मामला तुरंत शांत हो गया। सब, कुछ बोले  बिना वहाँ से खिसक गए। आज्जी ने धीरे से उसका हाथ थामा, उसे भरोसा दिलाया कि वह सुरक्षित है और अपने साथ घर ले आईं।

 घर पहुँचकर  उन्होंने उसे बैठाया, पानी पिलाया और बड़े प्यार से बोलीं — " तुम्हें  डरने की कोई ज़रूरत नहीं बेटा। मेरे होते कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता।"  और जवाब में वह बस आसूं भरी निगाहों से उन्हें टुकुर - टुकुर देखती रही।  आज्जी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है?"

लड़की ने धीमे स्वर में जवाब दिया — "उत्तरा..." 

उत्तरा, जैसे कमल की पंखुड़ियों पर ठहरी ओस की बूँद, वैसी ही निर्मल !  वैसी ही कोमल ! उसकी निश्चछल आखें मानो पहाड़ों की शांत उज्जवल सुबह हों, जिसमें उसके हृदय में बहती पवित्र गंगा का किल्लोल प्रतिबिंबित होता है ! 

उसने आज्जी की गोद में जब सर रखा तो उसका दिल भर आया।  आज पहली बार उसे इतनी ममता मिली कि वह सम्भाल ही न पाई। उसने अपनी सारी दास्तान बयां कर दी। 

उसका घर पूर्वांचल के एक छोटे से कस्बे में था। उसे तो याद नहीं पर लोग कहते हैं कि उसकी माँ उसे बहुत प्यार करती थी। एक महामारी में माँ चल बसी, तब उत्तरा केवल साल भर की थी। उसके बाद उसने सिर्फ़ अपनी सौतेली माँ को ही जाना। सौतेली माँ ने तो उसका जीवन कठिन बनाया ही था मगर बाबूजी का प्यार भी केवल सौतेले भाई-बहनों तक ही सीमित रह गया। सोलह साल की उम्र तक आते-आते, उसकी सगाई कर दी गई। फिर झट ब्याह और पिछले सप्ताह गौना भी हो गया। 

आज्जी बड़े ध्यान से उसकी बातें सुन रही थी। आज्जी ने समझाते हुए कहा " कोई बात नहीं । जो बीत गया उसे भूल जा बेटा। अब तो एक नए खुशहाल जीवन की शुरुआत हो गई है ना? मगर ये तो बता कि इतनी कम उम्र में तेरा ब्याह हो कैसे गया?"

उत्तरा " हमारे यहाँ ऐसा ही होता है। हमारे पिताजी तो खुद मास्टर हैं। उन्होंने ही तो करवाया हमारा ब्याह । हमने भी सोचा कि शादी के बाद जीवन सुखी होगा मगर ..."  कहते - कहते  वह रुक गयी। 

आज्जी  " मगर ? मगर क्या ?"

उत्तरा " वो मुझसे खुश नहीं हैं। गलती मेरी ही है। मैं एक छोटे से कस्बे से हूँ और वो शहर के पढ़े - लिखे । मैं उनके जीवन के अनुकूल नहीं हूँ । "


आज्जी " अरे हो जाएगा। धीरे - धीरे सब हो जाएगा। वो तेरे रंग में और तू उसके रंग मे ढ़ल ही जाएगी। तू बस दिल छोटा मत कर और अब तू ही खुद को यहाँ के माहौल में ढाल ले । समझी? " उत्तरा ने हाँ में सिर हिलाया। 

आज्जी  " अच्छा यह तो बता, तू भी नौकरी करे है क्या? दिनभर घर में ताला रहता है?" 

उत्तरा " नहीं। वो मैं दिनभर अकेली होती हूँ ना इसलिए वो अक्सर बाहर से ताला मारकर जाते हैं।"

 "क्या? वो तुझे बंद करके जाता है? सच में ?" आज्जी ने हैरत से पूछा ।

उत्तरा " हाँ । ताकि मैं सुरक्षित रहूँ। और ठीक ही है।  देखो ना आज पहली बार बाहर गयी और मुसीबत में फंस गयी।"  आज्जी हतप्रभ सी उसे देखती रह गयी।

उत्तरा को जैसे कुछ याद आया, झट से उठ खड़ी हुई और बोली " अरे मैं तो भूल ही गयी। आज खाने पर उनके दोस्त आने वाले हैं। मुझे बहुत तैयारी करनी है। मैं चलती हूँ आज्जी ।" और वो दरवाजे की ओर लपकी ।

आज्जी ने कहा " रुक मैं भी आती हूँ तेरी मदद करने।" आज्जी ने खूब तरह - तरह के पकवान बनाए ।

आज्जी " आज तो रवि  तेरे गुण गाते नहीं थकेगा। देख लेना उसके मेहमान भी तेरी तारीफ करेंगे और रवि के सौभाग्य को सराहेंगे कि इतनी सुंदर और सुघड़ पत्नी मिली है।" उत्तरा लज्जा गयी।

आज्जी " अच्छा मैं चलती हूँ । तू तैयार हो जा। और हाँ रवि से कह देना कि तुझे ताले में बंद रखने की जरूरत नहीं । तेरी आज्जी है पड़ोस में।"

उत्तरा सज - धज कर रवि की राह देखती रही और रवि उस रात ढ़ाई बजे के करीब घर लौटा । नशे में धुत् । उत्तरा ने फिर भी उत्साह से दरवाजा खोलते ही पूछा " मेहमान कहाँ हैं?" रवि ने उसपर व्यंग भरी नजर डाली और बोला " मैंने उन्हें होटल में ही दावत दे दी ?" वह सीधा अपने कमरे में चला गया। उत्तरा को कुछ समझ नहीं आया मगर रवि ने उससे और बात करने की जरूरत ही न समझी ।

उत्तरा मायूस हो गयी। वो तो सोच रही थी कि आज रवि उससे खुश होंगे मगर उसने तो खाने को या उसकी तैयारी को देखा तक नहीं। 

रवि उसे दो-एक बार अपने दोस्तों के साथ पार्टी में भी ले गया था, पर वहाँ उत्तरा को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। न उसे कोई वहाँ अपना-सा लगा, न ही माहौल में कोई अपनापन था। वह वहाँ एकदम असहज महसूस कर रही थी । उसका बोलने का ढंग, पहनावा, सब कुछ उनसे अलग था। रवि चाहता था कि वह भी थोड़ी आधुनिक बने, मगर जब भी वह उसके लाए वेस्टर्न कपड़े लाता, उत्तरा पहनने से मना कर देती ।  इसपर रवि को बहुत गुस्सा आ 



जाता और उसका उत्तरा पर हाथ उठ जाता। वह उसके देहातीपन पर खीज उठता । मगर उत्तरा भी क्या करे ? वह कैसे कर ले अपने संस्कारों से समझौता? 

शादी से पहले रवि को उनके बीच की यह 'आचार - विचार' की खाई नज़र  ही नहीं आई। वह तो उत्तरा की सुंदरता पर ऐसा मोहित हुआ कि बिना सोचे-समझे बस उससे शादी की जिद पकड़ ली। तब उसे यह अंदाज़ा भी नहीं था कि दोनों की सोच-विचार और तौर-तरीकों में इतना फर्क होगा। अब वही फर्क उसके लिए दोस्तों के बीच शर्मिंदगी का कारण बन गया है। 

उसने पूरी कोशिश की कि उत्तरा को थोड़ा आधुनिक बना सके। उसने उत्तरा को अंग्रेजी सिखाने के लिए ट्यूशन लगाई। इतना ही नहीं, घर में एक अंग्रेजी बोलने वाला तोता भी पाल लिया। हालांकि उस तोते का उत्तरा पर तो कोई असर नहीं हुआ, लेकिन तोता खुद जल्दी ही भोजपुरी बोलने लगा।

रवि जब आफिस से आता तो 'Hello! Hello! Welcome sir" बोलने वाला तोता अब "रवि आ गइल, उत्तरा! रवि आ गइल। कइसन बा, रवि?"  इस प्रकार उसका स्वागत करता।

उत्तरा अब अपना सारा काम जल्दी खत्म कर आज्जी के पास चली जाती। रवि ने ताला लगाना बंद कर दिया था तो उसकी दुनिया अब आज्जी के घर तक फैल गई थी। रवि के साथ बड़े-बड़े होटलों में खाना खाना उत्तरा को बिलकुल पसंद नहीं था, क्योंकि वह वहाँ छुरी-काँटे से सही ढंग से खाना ही नहीं खा पाती थी। उसपर रवि उसे खाने के तौर - तरीके पर बातें सुनाता रहता। उसे तो बस शाम को आज्जी के साथ गेट के पास ठेले वाले के गोल-गप्पे खाने में ही सबसे ज्यादा मज़ा आता था। वह अक्सर बिल्डिंग के बच्चों के साथ गोल-गप्पे खाने की प्रतियोगिता रखती थी, और जीतने वाले को आज्जी की तरफ़ से एक प्लेट गोल-गप्पे मुफ्त मिलते। 

एक दिन रवि ऑफिस से जल्दी लौट आया और उसने उत्तरा को यूँ ही भूखों की तरह गोल-गप्पे चट करते देखा लिया। उसकी यह बचकानी हरकत देखकर रवि का चेहरा सख्त हो गया। उसका गंभीर चेहरा देखकर आज्जी परेशान हो गयी। मगर फिर जब वह हँसता हुआ उत्तरा को प्यार से अपने साथ ले गया तो आज्जी मुस्कुराने लगी। वह दूर तक उन्हे प्यार भरी निगाहों से जाते देखती रही और सोचने लगी ' दोनो की उम्र में काफी फर्क भी तो है। कम से कम 10 - 12 साल का तो होगा ही। रवि बड़ा है । समझदार है। समझता होगा उत्तरा को । अभी 16 साल की बच्ची ही तो है। '

अगले दिन जब उत्तरा काफी देर तक आयी नहीं तो आज्जी उसे देखने गयी। वह बिस्तर पर लेटी थी। बेहद बुझी - बुझी सी । बोली कि हल्का बुखार है। आज्जी को उसके चेहरे के निशान देख घबराहट हुई मगर कुछ पूछा नहीं। 

कुछ दिन बाद सब पहले जैसा हो गया । उत्तरा फिर चहचहाने लगी। मगर अब उसे गोल - गप्पे खाने का मन नहीं करता था। कहने लगी कि उसे गोल - गप्पे  पसंद नहीं । 



एक दिन, आज्जी ने जब अपनी पुरानी सिलाई मशीन उसे दिखाई तो उसे मायके का शौक याद आ गया। बस फिर क्या था सारा दिन कुछ न कुछ सीलती रहती। कपड़े, परदे,  कवर आदि सब बना देती। आस - पास के बच्चों के खिलानौ  के तो उसने इतने सुन्दर कपड़े सिले कि बच्चे उससे स्कूल समारोह  के लिए अपने कपड़े सीलने को कहने लगे। अब बिल्डिंग के ही नहीं, बल्कि पूरी सोसाइटी के माता - पिता उससे अपने बच्चों के लिए कपड़े डिजाइन करने को कहते । बस फोटो  दिखाओ  और हू-ब-हू वैसा ही ड्रैस पाओ । 

वो पैसे तो लेती नहीं थी, इसलिए सब  उसे तोहफे ला - लाकर देते। फिर एक दिन आज्जी ने दोबारा उसके चेहरे पर निशान देखे और उसने कह दिया कि उसे सिलाई करना नहीं भाता। 

रवि की नाराजगी के पीछे केवल झुंझलाहट नही थी बल्कि एक अनकहा भय था - उत्तरा को खो देने का भय। वह भय जो अक्सर बेमेल विवाह में होता ही है। जब भी उत्तरा अपने हमउम्र लड़के - लड़कियों से मुस्करा भर देती तो रवि के भीतर एक बेचैन लहर उठने लगती। जैसे किसी ने उसके हिस्से की धूप छीन ली हो।

उधर उत्तरा ........ वह भी अपने भीतर एक कसक महसूस करने लगी थी । उसी बिल्डिंग में रहते हुए, जहाँ उसके हमउम्र लोग पढ़ रहे थे, आगे बढ़ रहे थे, वह खुद को पीछे छूटा पाती। उन्हें खुलकर हँसते - बोलते, स्वच्छंद घूमते देख, उसके मन में भी एक अनकहा स्वप्न जाग जाता - काश! मैं भी ऐसे ही जी पाती !

हाँ, एक और शख्स था - बन्ड्या । उम्र में उत्तरा के बराबर ही होगा। पास ही किराने की दुकान पर काम करता था । उसकी आँखों में भी गाँव की सादगी और अपनापन झलकता था । कुछ महीने पहले ही वह सोलापुर से काम की तलाश में यहाँ आया था। वह भी अकेला था उत्तरा की तरह । शायद इसी समानता ने दोनो के बीच एक अनकही निकटता बुन दी। उत्तरा अक्सर जरूरत का सामान लेने उसकी दुकान पर जाती और उससे कुछ बातें करके सुकून महसूस करती।

एक दिन रवि ने उन दोनो को हंस - हंसकर बातें करते देख लिया । फिर क्या था उस दिन उसके भीतर का भय विस्फोट बन कर फूटा। उसकी ऊँची आवाज़ बाहर तक सुनाई दे रही थी। आज्जी से रहा न गया । उस दिन उन्होंने  रवि से बात की। 

रवि का कहना था " आपको क्या लगता है मै दुश्मन हूँ उसका ? मजबूरी में हाथ उठाता हूँ उस पर। मुझे खुद बहुत तकलीफ होती है उसे तकलीफ पहुंचाकर । मैं जान छिड़कता हूँ उसपर । मगर क्या करूँ ? उसकी हरकतें देखी हैं आपने ? यूँ बच्चों के साथ कूदती फिरती है। दूसरों के कपड़े सीलती है। वो छिछोरे बन्ड्या के साथ कैसे दाँत फाड़कर हँस रही थी ! अच्छा लगता है क्या ? मेरा रुतबा नहीं जानती  क्या वो ?  मैंने क्या नहीं किया है उसके लिए ? उसे गरीबी से निकालकर यहाँ लाया ।  ये आलीशान जीवन शैली, महँगे कपड़े,  गहने! फिर क्यों करती है वो बचकानी हरकतें ? आप ही कुछ समझाऐं  ना उसे ।"


आज्जी " क्या समझाऊँ  मैं ? बच्ची है तो बचकानी हरकतें ही करेगी।" बस इतना कह वह वहाँ से चली आयी। वो कहना तो चाहती थी कि तूने फिर उसपर हाथ उठाया तो मैं उसे अपने पास रख लूँगी। मगर अपने पास कहाँ ? वो तो खुद बेटों के रहमो करम पर है।  

 मन मारकर चुपचाप बैठ गयी। मन तो किया कि अभी चीख - चीखकर आस - पड़ोस में बता दे कि ये जालिम उस बच्ची पर अन्याय करता है। यदि उत्तरा की सही उम्र का भी पता चल गया ना तो लोग रवि को जेल करा देंगे। मगर रवि के जेल जाने से उत्तरा का क्या होगा ? उसका मायके में कौन है अपना ? उत्तरा को ही समझना होगा। सहना भी होगा। 

मगर वो कहते हैं ना कि जो दबता है उसे और दबाया जाता है। वैसे भी रवि जानता था कि उत्तरा के पास उसके सिवा दूसरा सहारा ही नहीं है इसलिए उसका उत्तरा पर हाथ उठाना अब एक आदत बन चुका था। हाँ, परन्तु प्रत्येक बार जब वह उत्तरा पर हाथ उठाता, तो पश्चाताप स्वरूप कोई महँगा उपहार अवश्य दे डालता। उसकी मरहम - पट्टी भी करता। उसे लगता कि इतना ही काफी है जख्मों को भरने के लिए । शरीर के जख्म भले ही भर जाते थे मगर दिल के जख्म तो नासूर बनते जा रहे थे। 

हाल ही में उत्तरा को नया आईफोन  मिला था। उस दिन उसने बताया था कि वह बाथरूम में फिसल गई थी जिससे उसका हाथ टूट गया। मगर सफ़ेद प्लास्टर में लिपटा उसका हाथ कुछ और ही कहानी कह रहा था।

धीरे - धीरे उसका आज्जी के यहाँ आना - जाना भी कम होता गया। जो उत्तरा कभी ताज़ा कली-सी खिली रहती थी, अब बुझी-बुझी और मुरझाई सी रहने लगी। रवि को समझ नहीं आ रहा था कि इतने महँगे तोहफे मिलने के बाद भी वह उदास क्यों रहती है।

एक दिन रवि ने उत्तरा को फोन कर तैयार रहने को कहा। कंपनी की पार्टी थी  किसी आलीशान होटल में। उत्तरा को ऐसी दावतों से घबराहट होती थी । दिखावे की हंसी, दिखावे की बातें व दिखावे की दोस्ती ! 

उसने अलमारी खोली और रवि की बताई गयी डैस निकाली - ब्लैक सिल्क गाऊन । वह अनमने मन से उसे देखने लगी।

शाम को रवि घर लौटा तो घर का दरवाजा खुला था और अंदर अंधेरा था। बत्ती जलाई तो पहली नज़र तोते के पिंजरे पर पड़ी । पिंजरा खाली था। पिंजरे की जंग लगी एक जाली, जिसे  वह कई दिनो से चोंच से मार रहा था, आज आखिरकार कमजोर पड़ ही गई और उसी को तोड़कर वह फुर्र हो गया था। रवि ने इधर - उधर नजर दौड़ाई तो देखा वो खिड़की के ऊपर बैठा था। उसने उसे पकड़कर फिर पिंजरे में डाला और पिंजरे की टूटी जाली को मजबूत टेप से जोड़ दिया। फिर उत्तरा को पुकारा । मगर वह घर पर न थी। उसे समझते  देर न लगी कि वह आज्जी के पास गयी होगी। मगर वहाँ तो ताला था। हो न हो आज्जी के साथ कहीं बाहर गई हुई है - उसका पारा चढ़ गया कि बताने के बावजूद वो समय पर नहीं लौटी। गुस्से में वो अकेले ही पार्टी के लिए निकल गया।


रात बहुत देर से जब वह घर आया तो नशे में धुत्त था । सोफे पर ही ढेर हो गया। सुबह जब नींद खुली तो दिन चढ़ आया था। फिर धीरे - धीरे रात की बात याद आई । समय देखा तो दस बजने वाले थे। उत्तरा पर उसका गुस्सा और बढ़ गया कि उसने अब तक मुझे उठाया क्यों नहीं। अब दफ्तर के लिए देर होगी। वह मन ही मन खीज उठा । सोचने लगा कि वह चाहता तो नहीं मगर उत्तरा की ऐसी लापरवाही उसे उसपर हाथ उठाने को मजबूर करती है। वह दनदनाते हुए किचन की ओर गया। मगर वह वहाँ न थी। अब तो उसका पारा और चढ़ गया। अब तक उसने रसोई भी नहीं बनाई थी ! सोई पड़ी है क्या? मगर वो तो बैडरूम में भी नहीं थी। बल्कि पूरे घर में कहीं नहीं थी। वो समझ गया कि आज सुबह - सुबह ही चली गयी है आज्जी के पास । अब तो उसका दिमाग ऐसा ठनका कि उसने ठान लिया कि आज उसकी  चहेती आज्जी के पास से ही उसे बालों से घसीटते हुए लाऊँगा । मगर उसका उठा हाथ उठा का उठा रह गया। आज्जी के घर पर तो ताला लटका था। पड़ोसियों ने बताया कि आज्जी तो हफ्ता भर हुआ वहाँ से चली गयी है। अब रवि का गुस्सा चिंता में बदलने लगा। उसने उत्तरा को फोन लगाया । मगर उसका फोन तो किचन में ही पड़ा था। रवि को कुछ समझ न आया कि वह सुबह - सुबह कहाँ जा सकती है? 

चौकीदार ने कहा कि उसने तो उत्तरा को सुबह से देखा ही नहीं । रवि सीधा पोलिस स्टेशन गया मगर वे बोले " पहले जरा सगे संबंधियों व दोस्तों के घर पूछ लो फिर रिपोर्ट दर्ज करेंगे।"

उत्तरा के पिता को फोन लगाया तो  उन्होंने कहा " क्या आपको  कुछ बताया नहीं उसने ? हमें कहा था कि कोई काम के सिलसिले में कहीं जा रही है। हम समझे आप भी साथ गए होंगे।"

उसने किसी पी . सी . ओ  से फोन किया था इसलिए उससे संपर्क का कोई जरिया भी न था। रवि हैरान था कि वो दसवीं पास क्या काम करेगी? और कौन देगा उसे काम?

 उसका दिमाग जवाब तलाशने लगा।  उसने सोचा " वो जरूर झूठ बोल रही है। हो न हो उसी किराने वाले बन्ड्या के साथ भाग गई है।" 

आग बबूला रवि सीधा किराने की दुकान पर गया और बन्ड्या को धर दबोचा । जब उससे उत्तरा के बारे में पूछा तो वो भागने लगा। रवि ने पकड़कर दो थप्पड़ जड़े तो घबराकर कबूल लिया कि वही ले गया था उत्तरा को । रवि ने पड़ोस के कुछ और बड़ो को साथ ले लिया और बन्ड्या से उनको वहाँ ले चलने को कहा । बन्ड्या उन्हे काफी दूर एक बस्ती तक ले गया। वहाँ उसने एक घर की ओर इशारा किया। 

वहाँ आज्जी रह रही थी। उन सबको देख वह बेहद खुश हुई और अंदर बैठे एक बुजुर्ग से मिलाया । वह उनके पति थे। वे जिंदा हैं यह देख सबको हैरानी भी हुई और खुशी भी।  आज्जी बोली " भगवान की कृपा देखो - पूरे एक साल बाद मुझे इनसे मिलाया। पिछले हफ्ते मैं जब मंदिर गयी तो इनको वहाँ भटकते देखा । बस फिर मुझे जैसे सब कुछ मिल गया। अब मुझे किसी और का सहारा नहीं चाहिए। अपनी जमा पूंजी से यह खोली ले ली और अब मैं खाना बनाने का काम करके हम दोनो का पेट पाल लेती हूँ।"


बन्डया बोला "Cloud kitchen  चलाती है आज्जी ! खूप डिमांड है इनकी ।" 

सभी आज्जी के लिए खुश थे और यह सब कैसे किया पूछ रहे थे। बन्ड्या बता रहा था कैसे उसने आज्जी को फोन चलाना सिखाया। 

रवि ने बात काटकर पूछा " उत्तरा यहाँ आयी थी क्या? "

आज्जी ने मुस्कराकर कहा " हाँ । मेरे साथ ही रहती है। बाहर गई है। अभी आती होगी। वह अब पहले वाली छुई – मुई उत्तरा नहीं है। "

बन्ड्या " उत्तरा दीदी तो बड़े - बड़े बूटीक वालों के साथ fashion designer का काम करती है। खुद का start - up है उनका ।"

तभी बाहर से उत्तरा आयी। उत्तरा, अब आत्मविश्वास से भरी हुई एक ऐसी युवती थी, जिसकी आँखों में दृढ़ निश्चय साफ झलकता था।

उसकी चाल में एक संयमित ठहराव था — न घमंड, न झिझक, बस एक शांत विश्वास कि वह जो कर रही है, सही कर रही है। उसने रवि के साथ जाने से साफ इन्कार कर दिया। वह बोली " मुझे तो तुमसे तलाक भी नहीं चाहिए। क्योंकि हमारी शादी ही मान्य नहीं है।"

रवि हैरान था कि यह गूंगी गुड़िया बोलने कैसे लगी ?  उत्तरा उसके मन की बात समझ गई और मुस्कुराकर बोली " बन्ड्या  भाऊ आपका बहुत आभार है जो आपने  मुझसे मेरी पहचान कराई । आप मेरे सगे भाई से बढ़कर हो।"

बन्ड्या मुस्कुराया " अरे नहीं दीदी। मैने तो बस आपको रास्ता दिखाया,  हिम्मत और लगन तो आपकी ही थी ।" रवि अब समझा कि उत्तरा बार - बार बन्ड्या की दुकान पर क्यों जाती थी? वो उससे यहि सब सीखती थी। 

रवि कर भी क्या सकता था? जिस नादान बच्ची को उसने अपने काबू में रखा था वो तो अब टॅक्नोलौजी की मदद से सशक्त हो गयी थी। पोलिस के पास जाकर क्या कहेगा ? उलटा  उसपर ही नाबालिग से शादी का केस लग जाएगा। वह चुपचाप लौट आया । अपने वीरान आलीशान फ्लैट में। 

पिंजरा टूटा पड़ा था। तोता उड़ गया था। इस बार खिड़की से बाहर दूर बहुत दूर उड़ गया था। रवि सोचता रहा " कितने कीमती पिंजरे में रखा था और कितना अच्छा खाने को देता था इसे ! फिर भी जाने क्यूं भाग गया?"


By Ashwini U

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