top of page

परीक्षा

Updated: Sep 3

By Avinash Abhishek


आज सुबह बालकनी में बैठा चाय की चुस्कियां लेते हुए अखबार के पन्ने पलट रहा था। मुझे चाय में शक्कर कुछ अधिक मालूम हुई लेकिन चुप रहना ही बेहतर था। चाय की जरा भी शिकायत हुई और देवी जी ने रौद्र रूप धारण किया।अखबार में भी कोई दिलचस्प खबर न थी। मैं आसमान की तरफ बेमतलब ही ताक रहा था की स्टेशन से आई ट्रेन के हॉर्न की आवाज मुझे कई साल पीछे खींच ले गई। तब मैं एक विद्यार्थी था और डिप्लोमा की परीक्षा सर पर थी। मैने बड़े भाई साहब से कई बार कहा की मुझे गाइड खरीद दें तो तैयारी बेहतर हो जाएगी। इस पर जवाब मिला की गाइड खरीदना बेकार है। गाइड तो वो पढ़ते हैं जिनकी तैयारी पूरी है और जो सिर्फ अपनी तैयारी परखना चाहते हैं। निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों में आर्थिक अभाव को जिस कुशलता से फिजूलखर्च की चादर ओढ़ाई जाती है इसका अनुमान आप उपरोक्त कथन से लगा सकते हैं। अब मैं ये दावा तो बिलकुल नहीं कर सकता की मेरी तैयारी पूरी है, सो भाई साहब की इस दलील का कोई प्रतिकार मैं न कर सका। इधर-उधर से जो जुगाड़ बन पड़ा उसी तैयारी के बल पर परीक्षा में उपस्थित होने की रही। मैने तरकीब ये सोची की परीक्षा की पिछली शाम ही बेगूसराय पहुंच कर प्लेटफार्म पर औरों से कुछ अदलाबदली कर के तैयारी में कुछ बेहतरी करूंगा। इसके लिए दोपहर बारह बजे की ट्रेन से सफर करने का प्रोग्राम भी सेट कर लिया जो शाम छः बजे तक वहां पहुंचा ही देगी। एक मित्र के साथ सांठ-गांठ भी हो गई।

हमारे इन मित्र का नाम है संतोष। महाशय किसी रईस खानदान से ताल्लुक रखते हों सो बात नहीं। किंतु मैं जिस समय और परिवेश की बात कर रहा हुं, तब पांच बेटियों के बाद यदि बेटे के रूप में आपका जन्म हो तो आप कुल के दीपक कहलाते हैं। इनका घर स्टेशन से बीस मिनट की दूरी पर है। लेकिन इन्होंने मुनासिब समझा की सफर के दिन सुबह ही हमारे घर तशरीफ ले आए। यहाँ इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक है की मेरा घर स्टेशन से डेढ़-दो घंटे की दूरी पर है। चलिए कोई हर्ज नहीं। एक से भले दो। मैं जल्दी से तैयार हुआ, भाभी की दी हुई लिट्टियां बांध कर झोले में रखी और घर से रुखसत हुआ। चलते वक्त भाई साहब ने ताकीद कर दी की सोच समझ कर परीक्षा देना। और बहुत अच्छा किया। जी में आया एक बार दुनिया में उपस्थित उन सभी घर के बड़ों को बताऊं की उनकी इन हिदायतों का कोई औचित्य सिद्ध कर पाना मुश्किल है। संभल कर जाना, अच्छी तरह लिखना, इत्यादि। अजी संभल कर न जाने या परीक्षा में गलतियां करने में मेरा कोई निजी स्वार्थ तो है नहीं। ख़ैर, यहां घर से निकलने में ही दस बज चुके थे। ऑटो रिक्शा स्टैंड पर पहुंचे तो देखा एक रिक्शा लगभग पूरी भर गई है और अब चलने को है। हमने स्टेशन का किराया पूछा तो रिक्शा वाले ने कहा की अब एक ही पैसेंजर की जगह है दो को नहीं बिठा सकते। बेचैनी का बीज मेरे मन में अंकुरित हो चला था। दिल मज़बूत कर के कहा - संतोष, तुम इसमें चले जाओ मैं पीछे आ जाउंगा। लेकिन ये जनाब कहां मानने वाले थे। मेरी इस तजवीज को सिरे से खारिज़ करते हुए संतोष ने कहा की जाएंगे तो साथ। ये भी ठीक है। कुछ देर बाद दूसरे रिक्शे में बैठकर हम भी रवाना हुए। मैं जरा बेचैन हुआ जा रहा था की कहीं गाड़ी छूट न जाए लेकिन हमारे मित्र इतने इत्मीनान से गप्पें हांकते जा रहे थे मानो किसी शादी में तरमाल उड़ाने जा रहे हैं। हर बार जब कोई यात्री उतरता तो भाड़े की अधिकता पर दो मिनट की बकझक जरूर करता। मैं मन में झुंझलाता, मियां नियम से किराया चुकाओ और अपनी राह लो। जब सभी आठ आने दे रहे हैं तो आप कहां के फन्ने खां हैं जो छः ही आने देंगे। उसपर दलील ये की हम रोज सफर करते हैं और इतना ही देते हैं। करीब घंटे भर बाद अब रिक्शे में सिर्फ हम दोनो बचे थे। मैं सुकून से पैर पसारे इस बेफिक्री में सफर का आनंद ले रहा था की समय पर स्टेशन पहुंच जाएंगे। पर तभी संतोष ने रिक्शा वाले से रोकने को कहा। अब मुझे ध्यान आया की संतोष का सामान तो उसके घर पर ही है। मैं बिना कुछ पूछे उसके पीछे हो लिया।


उसके घर पहुंचकर मैं तो चारपाई पर विराजमान हुआ और संतोष अंदर चला गया। मैं चुपचाप बैठा कमरे में रखी चीजें उलट पलट कर देख रहा था तभी संतोष वापस आया। उसके आते ही मैं अपना झोला लेकर घर से निकलने को हुआ की उसने मुझे रोका और कहा - उधर कहां भाई अंदर चलो। मैं कुछ अकचकया, अंदर? अंदर देखा आंगन में कहीं लिट्टियां सेकने की तैयारी है तो कहीं कचौरियां छानी जा रही हैं। मैने जरा हंसकर पूछा - क्यों भाई, आज यहां कोई दावत है? इसपर संतोष ने ठहाका सा मारते हुए कहा - अरे नहीं ये सब तो मेरे रास्ते के लिए बन रहा है। मेरा सर चकराया। अब तो गाड़ी छूटने में मुश्किल से कुल बीस मिनट बचे होंगे। मैंने कहा - लेकिन बारह तो बजने ही वाले हैं। तबतक ये सब.. संतोष ने बीच में ही बात काटकर कहा - चिंता मत करो हम बारह बजे की गाड़ी से थोड़े ही जा रहे हैं, हम जाएंगे चार बजे वाली एक्सप्रेस गाड़ी से। उसने ये बात जिस लापरवाही से कही की मैं मन में ऐंठ कर रह गया। जब चार बजे की गाड़ी से जाना था तो मुझे इतनी जल्दी क्यों घसीट ले आए? जी में तो आया इन हज़रत को आड़े हाथों लूं की तभी संतोष की मां ने गरमा गर्म कचौरियों से भरी थाली हमारे सामने रख दी। कचौरियां स्वादिष्ट बनी थीं। और भी कुछ व्यंजन हमारी सेवा में उपस्थित किए गए। मैंने डट कर उन सभी का आनंद लिया। मेरे मन का गुबार किसी हवा निकलते गुब्बारे की तरह गुलाटियां खाता हुआ कहीं गायब हो गया।

शाम के चार बजे मेरी खूब जिरह करने पर संतोष स्टेशन चलने को तैयार हुआ। रास्ते भर वह एक ही बात की रट लगाता रहा की बड़ी जल्दी जा रहे हैं। मैंने तर्क किया की हम तो समय पर जा रहे हैं। जवाब में उसके चेहरे पर चुप्पी के साथ एक हल्की मुस्कुराहट बिखर गई जिसका अर्थ था चलो आज तुम्हें रेलवे के अलिखित नियमों से परिचित कराउं। मामला ये की जिस गाड़ी में हम सफर करने निकले थे वह कलकत्ते से आती थी। लिहाज़ा अगर वह अपने निर्धारित समय से तीन चार घंटे देर से आई तो आपको यही समझना चाहिए कि गाड़ी समय पर आई है। हम स्टेशन पहुंचे तो गाड़ी का कुछ पता नहीं। मैं समझा गाड़ी छूट गई। इंक्वायरी काउंटर की तरफ नजर घुमाई, वहां की भीड़ देख कर कदम खुद ही पीछे हट गए। काफी जद्दोजहद के बाद पता चला गाड़ी दो घंटे बाद आयेगी। मैं प्लेटफार्म पर बैठा अपनी किस्मत को कोस रहा था। क्योंकर इसके चक्कर में पड़ा। नियमित अंतराल पर कोई महाशय अत्यंत बर्बरता के साथ लाउडस्पीकर पर ट्रेन आने-जाने की घोषणा कर रहे थे। मैंने समय काटने के खयाल से ही उनकी घोषणा सुनने समझने की चेष्टा की और नाकाम रहा। आखिरकार हमारी ट्रेन आठ बजे आई। ये चार घंटे मैंने कैसे बिताए इसका पूरा विवरण शब्दों में संजोना मुश्किल है। ट्रेन जब धीमी होती हुई स्टेशन पर रुकी तो प्लेटफार्म का नज़ारा किसी भगदड़ से भी ज्यादा भयंकर था। लोग बेतहाशा या तो ट्रेन की दिशा में या विपरीत दिशा में दौड़े जा रहे थे। हर दरवाजे पर लोगों का हुजूम देखकर मेरी धड़कन हिलोरें मारती थी। किसी तरह हम ट्रेन में दाखिल हुए। कह नहीं सकता कितनों के पैर कुचल कर आगे बढ़ा और कितने असबाब मेरे सर से टकराए। भीड़ देखकर जान पड़ता था पूरी पृथ्वी के लोग ट्रेन के इसी डब्बे में समाया चाहते हैं। मुश्किल से खड़े होने की जगह मिली।

कुछ देर चलकर ट्रेन अगली स्टेशन पर रुकी। लोग खिड़कियों से झांकते और कहते जाते थे - ना इस डब्बे में कोई सीट नहीं। सीट? अजी यहां खड़े रहने की जगह मिल जाए तो समझूंगा भगवान ने मेरी सुन ली और ये सीट तलाश करते हैं। पूरे सफर में कितने चायवालों के कनस्तर और मूंगफली की सूचनाएं पास से गुजरी इसका हिसाब मेरे पैर और पीठ की खरोचों में लिखा था। बहुत भीड़ होने के कारण हम ठंड से बचे हुए थे। लेकिन मेरे लिए समस्याओं की सूची में शीर्ष पर थी नींद। मैं बेधड़क ऊंघ रहा था। खड़े रहकर झपकी लेने की कला न सीखी थी। कभी इधर गिरने को होता कभी उधर, संतोष मुझे संभाले जा रहा था। पूरा सफर इसी तरह कटा। बेगूसराय पहुंचे तो सुबह के तीन बजने को थे। ट्रेन से उतरकर हमलोग एक साफ सुथरी जगह देखकर बैठ गए। मैंने देखा यहां कई लड़के थे जो परीक्षा ही देने आए थे। लगभग सभी अपने पास मोमबत्ती या ढिबरी जलाकर पढ़ाई में लग गए। संतोष ने भी बस्ते में से कुछ किताबें निकालकर मेरे सामने रखते हुए कहा - हम भी कुछ देख लें तो ठीक रहेगा। पर यहां पढ़ाई कर पाने की स्थिति में था कौन, मुझे तो नींद ने अपने वश में ऐसा दबोचा की मेरे लिए आंखें खुली रखना भी कष्टकारी था। मैंने कहा - भाई संतोष, तुम्हें जो तैयारी करनी है कर लो। मैं अगर अभी न सोया तो परीक्षा हॉल में सो जाऊंगा। इतना कहकर मैंने अपने झोले में से चादर निकाली और ओढ़कर सो रहा।

सुबह लगभग सात बजे उठकर हमने मुंह-हाथ धोया, घर से मिली खाद्यपदार्थों का सेवन किया और भगवान का नाम लेकर परीक्षा सेंटर का रुख किया। सभी औपचारिकताओं के बाद मैं हॉल में दाखिल हुआ तो बाकी लड़कों का पहनावा देखकर मेरे होश फाख्ता हुए जा रहे थे। किसी ने विलायती कोट पहनी है तो कोई ओसवाल की महंगी स्वेटर चमका रहा है। मैंने एक हाफ स्वेटर पहनी थी जो भाभी ने किसी जमाने में बड़े भैया के लिए बुनी थी, मफलर जो हमारे यहां बाबा आदम के जमाने से हर कोई बांध रहा था। परीक्षा अपने निर्धारित समय पर शुरू और खत्म हुई। जैसा मैंने सोचा था उसके बिल्कुल विपरित, परीक्षा अच्छी रही। संतोष और दूसरे लड़कों के साथ जब हमने सवालों का विश्लेषण किया तो मेरे ज्यादातर जवाब सही साबित हुए। कुछ लड़के तो मुझे बधाईयां देने लगे की भाई तुमने बाजी मार ली। मैं खुश होकर घर वापस आया। इसी परीक्षा और पढ़ाई की बदौलत मिली नौकरी से सेवामुक्त होकर आज ये वाकया लिख रहा हुं। चाय की प्याली अब खाली कर चुका और देवीजी नाश्ते की थाली लिए हाजिर हैं।


By Avinash Abhishek



Recent Posts

See All
Abyssal Light Part 1: Still

By Drishti Dattatreya Rao Nina:   I opened my eyes. Another day. Tiring – I couldn’t even get out of my bed. I rolled over and fell off the bed. Somehow, it broke. Ugh, every day is such a pain. I hav

 
 
 
The Girl At The Well

By Vishakha Choudhary Phooli was unhappy. She had already been to the well twice today. And the first time around, she had to carry an extra bucket of water at top of her two matkas. The second round

 
 
 
I Stayed Still

By A.Bhagirathraj To get the perfect goal, you need to float in the air for a few seconds. Yeah!! I’m writing this while watching a...

 
 
 

Comments

Rated 0 out of 5 stars.
No ratings yet

Add a rating
  • White Instagram Icon
  • White Facebook Icon
  • Youtube

Reach Us

100 Feet Rd, opposite New Horizon Public School, HAL 2nd Stage, Indiranagar, Bengaluru, Karnataka 560008100 Feet Rd, opposite New Horizon Public School, HAL 2nd Stage, Indiranagar, Bengaluru, Karnataka 560008

Say Hello To #Kalakar

© 2021-2025 by Hashtag Kalakar

bottom of page