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नन्हीं सी कोमल कली

Updated: Aug 21

By Kamlesh Sanjida


मैं नन्हीं सी कोमल कली,

माँ की कोख़ में थी पली

माँ के सपने संजोती रही,

अपना एहसास जताती रही ।


जाने क्या भूल मुझसे हुई,

मैं अजन्मी कली मुरझा गई

ख़ता भी मेरी कुछ न हुई,

जो माँ-बॉप में नफ़रत हुई ।


मेरे प्रति न जाने कैसी घृणा पली,

माँ को अपना एहसास दिलाती रही

अपने होने का विश्वास दिलाती रही,

और मैं भी हरदम ख़ुश होती रही ।

पेट पर हाँथ माँ फिराती रही,

अपना दुलार लुटाती रही

प्यार माँ मुझसे करती रही,

मुझे छुवन से ख़ुश करती रही ।


बाहर की दुनियाँ बताती रही,

कैसी क्या है सब समझाती रही

अपने विचारों को बताती रही,

अपनी छाप मुझपे छोड़ती रही ।


मैं उसकी तरह ही बनती रही,

माँ सी शक्ल मेरी होती रही

उसके खून से ही बनती रही,

और कोख़ में ही पलती रही ।


दिन पे दिन बस बिताती रही,

बाहर का सपना संजोती रही

माँ - बॉप को देखने को मैं,

बस उतावली सी होती रही ।


धीरे-धीरे मैं तो यूं ही बढ़ती रही,

महीनों का एहसास दिलाती रही

दिन पर दिन में तो काटती रही,

माँ के संग ख़ुद को जिलाती रही ।


माँ के खाने पर ही पलती रही,

बंद आँखों से दुनियाँ देखती रही

माँ की आँखें मुझको दिखाती रही,

और माँ के पैरों से घूमती रही ।


किसी की सलाह मेरे बाप को मिली,

भ्रूण को टेस्ट कराने की इच्छा पली

इक्छा ख़ूब प्रबल होती गई,

एक दिन वो घड़ी भी आ गई ।


डॉक्टर ने पहले ही मेरी कहानी रची,

कली होने की ख़बर बाप को मिली

माँ मेरे लिए हर दम लड़ती रही,

पर समाज के विष की ही चली ।


डॉक्टर नोटों का सपना देखते रहे,

और अपने अहम को मिटाते रहे

गाजर मूली की तरह ही ,

डॉक्टर मुझे काटते रहे ।


अपने को दरिंदों से बचाती रही,

यहाँ से वहां पेट में फिरती रही

मैं टुकड़ों-टुकड़ों में कटती रही,

और डस्टबिन में फिकती रही ।


मैं तो ख़ूब फड़फड़ाती गई,

ख़ूब चीखती -चिल्लाती गई

दर्द को अपने दिखाती गई,

मेरी आवाज दबके रह गई ।


मैं पूरी ही लहूलुहान होती गई,

खून में सनी लाश होती गई

कितने टुकड़ों में कटती गई,

माँ की कोख़ से जुदा होती गई ।


अंत में सिर को आरी से काटा गया,

और उसको टुकड़ों में बाँटा गया

एक-एक टुकड़ा फिर उठाया गया,

यहाँ से वहाँ बस फिकवाया गया ।


कहर मुझ पे यहाँ भी नहीं रुका,

कुछ टुकड़ों को पैरों से रौंदा गया

कुत्तों और चीलों के लिए छोड़ा गया,

और मुझे नोच-नोचके खाया गया ।


बदलने पर भी न दिल बदला,

समाज की दुहाई देता गया

मुझको ही कुर्बान करता गया,

सदियों से सितम यूं ही चलता गया ।


गुहार किस किस से लगाती गई,

लोगों के दिलों को पिंघलाती गई

अपनी जान बचाती फिरती गई,

फिर भी जान यूं ही गवाती गई ।


By Kamlesh Sanjida




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