दादी और पोती
- Hashtag Kalakar
- Nov 8
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By Dr. Hari Mohan Saxena
दादी और पोती की झकझक
शुरू सुबह से चले रात तक,
अपनी ही बातें मनवाने
जुट जाते ताकत अजमाने।
दादी का प्राचीन ज़माना
पोती देखे नया ज़माना,
ना पोती ने उनका माना
ना दादी ने उसको जाना।
राग पुरातन दादी गातीं
बीती बातें उसे सुनतीं,
पोती को वे रास न आतीं
फिर भी चुप कर सुनती जाती।
दादी अनुशासन की पक्की
पोती उन्हें समझती झक्की,
नियम कायदे से वे चलतीं
पर पोती पे दाल न गलती।
आलस और कामचोरी से
दादी को काफी नफरत थी,
पोती मगर सुधर न पाई
उसकी ये पक्की आदत थीं।
दादी सुबह भोर उठ जातीं
नित्य कर्म से फुर्सत पातीं,
पोती लम्बी तान के सोती
उसकी सुबह देर से होती।
दादी कहतीं कहना मानो
जीवन में अनुशासन मानो
पोती कहती आज़ादी है
मनमानी की वह आदी है।
दादी कहतीं सुन री लाली
कपड़े हों मर्यादाशाली,
पोती कहाँ ये सुनने वाली
जीन्स, टॉप की आदत डाली।
दादी जब रसोई में जातीं
पोती वहाँ ठहर न पाती,
दादी सब पकवान बनातीं
पोती झंझट नहीं उठाती।
घर बैठे खाना मँगवाती
बर्गर, पिज़्ज़ा शौक से खाती,
सभी तामसिक भोज्य मंगाती
रोटी, सब्ज़ी नहीं बनाती।
पूजा पाठ करें जब दादी
उसको लगे समय बरबादी,
पोती सुने विदेशी गाने
भजन, कीर्तन कुछ न जाने।
दादी पोती की यह जोड़ी
भगवन तुमने कैसे जोड़ी,
चारों पहर सुनाएँ ताने
इक दूजे की कभी न मानें।
By Dr. Hari Mohan Saxena

Nice poem
Nice poem
Nice commentary on the generational gap
Very nice words
Truly said