तुम और मैं
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तुम और मैं

By Pushkal Sinha


तुम मिली थी जहां मुझे,

उस शहर का नाम ही इश्क था ।

तुम चंचल एक तितली सी,

मैं जरा अहमक किस्म का ।।

वो गलियां, चौराहे, वो हवा लड़कपन वाली,

हर शाम के किस्सों में बस

तुम्हारा ही जिक्र था।।


तुम प्यार मोहब्बत समझती रही,

मैं तुम्हे समझना चाहता था ।

चांद तारे समेत, कदमों में

कायनात पटकना चाहता था ।

कैसी ये तकदीर रही,

जेब में एक सिक्का न था,

तुम महलों की शहजादी सी,

मैं आवारा एक लड़का था ।।


मैं रूठा सा दिल,

तुम नादान मोहब्बत सी ।

मैं रूखी सूखी दुनिया–दारी,

तुम सपनो की सोहबत सी ।

तुमसे बातें करने को मैं दिन रात मचलता था,

तुम साथी आगे खोज रही थी,

मैं पीछे पीछे चलता था ।।


उस वक्त अगर पलट जाती,

तो शायद मैं भी रुक जाता।

कहानी अपनी लिखते लिखते,

कविता पर ही थम जाता।

कह देती बस आंखों से ही,

मैं चुप चाप समझ लेता,

आग का दरिया तुम होती,

मैं गालिब मिर्जा बन लेता ।।





तुम हस्ती जिन भी बातों पर,

मैं नोट सभी वो रखता था।

मन ही मन शामों को,

बातें तुमसे करता था।

साल, मौसम सब बदल गए,

मैं तुम पर कुछ यूं फस रहा,

तुम चलती फिरती फिल्म रही,

मैं तस्वीरों सा रुक रहा ।।



तुम फराज की नज़्म रही,

मैं दूरदर्शन समाचारों सा ।

तुम शहरों सी सजी हुई,

मैं देसी शुद्ध गवारों सा ।

पास तुम्हारे जाने को,

मैं उम्मीदों से लटका था,

तुम दिखती थी मेनका,

मैं विश्वामित्र सा भटका था ।।


आती जाती लहर हुई तुम,

किनारे सा मैं रुका रहा ।

तुम्हारे लौट कर आने का ,

बस इंतजार ही करता रहा ।

तुमसे मिलने को बस,

एक जीवन की आस रही ।

मैं दूर मीलों सा हो गया,

तुम यादों सी पास रही ।।


इश्क न होता शहर अगर वो,

यह मुकम्मल कैसे हो पाता?

तुम्हारा मैं न हो कर भी,

कैसे तुम्हारा हो जाता?

वो गलियां, चौराहे, यूं तो मैं सभी का था,

होकर भी मैं दुनिया का,

हुआ तो सिर्फ तुम्हारा था ।।


By Pushkal Sinha





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