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ज्योति: अंधकार में

By Shilpi Rani


सभी लोग बाहर बैठे इंतज़ार कर रहे हैं। अंदर कमरे से बहू के प्रसव पीड़ा में कराहने की आवाज़ आ रही है। तभी धनीराम पड़ोसी आकर आवाज़ लगाता है —

धनीराम: "अरे ओ मनीराम!"

मनीराम: "हाँ भाई धनीराम! आ जा, बैठ।"

धनीराम: "और क्या हो लिया?"

मनीराम: "अभी तो पता नहीं, बहू पीड़ा में है।"

धनीराम: "तू चिंता मत कर, इस बार देखना तुझे पोता ही होगा। तू उसे भगत के पास तो गया था, जिसका मैंने तुझे पता दिया था?"

मनीराम: "गया तो था... बहू तीन महीने की पेट से थी, तभी गया था। हमने भगत जी को बताया था कि जाँच में लड़की आई है। उन्होंने हमें आश्वासन दिया था कि ‘इस भभूत को दूध में मिलाकर पीने से बेटा होगा।’"

धनीराम: "तू विश्वास रख भगवान पर; इस बार सब ठीक होगा।"



दुनिया का दस्तूर है कि जब भी मानव को झूठ बोलना होता है या कुछ गलत काम करना होता है, तो वह भगवान का सहारा लेता है। ताकि उसके पाप माफ़ हो जाएँ। उन्हें लगता है कि वे भगवान को धोखा दे सकते हैं, जबकि ऐसा नहीं है — भगवान सर्वत्र और सर्वज्ञ है। 


मनीराम: "और बता, तेरा काम कैसा चल रहा है?"

धनीराम (उदासी भरे स्वरों में): "क्या बताऊँ? तू तो सब जानता है..."

तभी बच्चे के रोने की आवाज़ आती है। दाई लटका हुआ मुँह लेकर कमरे के बाहर आती है। सभी लोग पूछते हैं — "क्या हुआ?" दाई बहुत उदासी से बताती है — "बेटी हुई है..."

आज भी गाँव में दाई ही प्रसव के दौरान बच्चों का जन्म करवाती है। उसका बहुत सम्मान होता है, क्योंकि सभी लोग उसके मुख से ‘बेटा होने’ का शुभ समाचार सुनने की प्रतीक्षा करते हैं। जब लोगों को शुभ समाचार मिलता है, तो वे दाई को मुँह माँगा इनाम देते हैं। लेकिन आज उसे थोड़े से ही सब्र करना पड़ेगा।

दाई अपना इनाम लेकर चली जाती है। जैसे ही वह दो घर छोड़कर आगे बढ़ती है, तीसरे घर की एक स्त्री निकल कर आती है और दाई को रोककर पूछती है —

स्त्री: "रामश्री की बहू को छोरा हुआ या छोरी?"

दाई: "छोरी हुई है। ये तीसरी छोरी है। इसका पति कमाता कुछ नहीं है — लोगों से उधार माँगकर शराब पीता है, अपनी बीवी को पीटता है। पहले जो बच्चियाँ हुई हैं, उन्हें अगर देखोगी तो ऐसा लगेगा कि वे कुपोषण से ग्रसित हैं। 

बीवी दूसरों के घर बर्तन धोकर जो कमाती है, उसी से बच्चों का पेट पालती है। बच्चियों की पढ़ाई-लिखाई के लिए पैसे नहीं हैं, अब तीसरी बेटी भी हो गई है। सास और ससुर रोज़ उसे गालियाँ सुनाते हैं। पति बाहर जाने के लिए मना करता है, लेकिन उसकी तनख्वाह आते ही उससे छीनकर शराब पी लेता है। बेचारी की बड़ी बुरी दुर्दशा है... भगवान भला करे इसका!"



कुछ दिन बीतते हैं। बच्ची दो महीने की हो चुकी है। दीपू आज फिर पीकर आता है और बीवी को मारता है।

दीपू (गंदी-गंदी गालियाँ देते हुए): "तेरी वजह से लोग मुझे नपुंसक कह रहे हैं! तू मुझे एक बेटा भी नहीं दे पाई! साली, तू निकल मेरे घर से! मैं दूसरी शादी करूँगा! तू यहाँ से निकल — इन तीनों लड़कियों को लेकर!"



ज्योति: "तू अपने आप को देख! तू बाप कहलाने के लायक ही नहीं है। तेरे जैसे आदमियों को शादी ही नहीं करनी चाहिए — जो अपनी बीवी-बच्चों का पेट भी न पाल सके!"

जैसे ही दीपु यह सुनता है, वह गुस्से से तिलमिला उठता है। वह मारने के लिए ज्योति की ओर बढ़ता है, लेकिन ज्योति तुरंत उसे कमरे के अंदर धक्का देकर दरवाज़ा बंद कर देती है और बाहर से कुंडी लगा देती है।

दीपु अंदर से ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगता है, गेट पर ज़ोर-ज़ोर से धक्के मारता है। इतनी तेज़ आवाज़ सुनकर सारे पड़ोसी अपने-अपने घरों के बाहर आ जाते हैं और धनिराम के घर का तमाशा देखने लगते हैं। चारों ओर कानाफूसी शुरू हो जाती है।

पड़ोसी-1: "इनका तो रोज़ का ही काम है।"

पड़ोसी-2: "हाँ, ये लड़का रोज़ पीकर गालियाँ बकता है। हमारे यहाँ भी बहू-बेटियाँ हैं..."

तभी रामश्री अपने घर के बाहर आकर चिल्लाने लगती है —

रामश्री: "लोगों को दूसरों के घरों में झाँकने की बहुत आदत है! अपने काम से काम नहीं रखा जाता!"

 दोनों बड़ी बच्चियाँ घर की चौखट पर बैठी हैं, अपने माता-पिता की चीख-पुकार सुन रही हैं। दूसरी ओर दो महीने की नन्ही बच्ची भी डर के मारे गला फाड़कर रो रही है।

ऐसे माहौल का बच्चों पर क्या असर होगा? लड़कियों के लिए पिता सम्मान के पात्र होते हैं, लेकिन ये बच्चियाँ अपने पिता को कैसे सम्मान देंगी? उनकी नन्ही-नन्ही आँखों में यह सवाल बार-बार उठ रहा है — “क्या पिता ऐसे होते हैं?”

इन बच्चियों के चेहरे सांवले हैं, शरीर कुपोषण से भरे हुए, मिट्टी से सने कपड़े उन पर लटके हुए हैं। पुराने, फटे कपड़े और नंगे पाँव — चौखट पर बैठी वे समझने की कोशिश कर रही हैं कि आखिर माँ-पापा क्यों लड़ रहे हैं? ये सारे लोग हमारे घर का तमाशा क्यों देख रहे हैं? और ये हमारे बारे में बुरा क्यों बोल रहे हैं?

तभी एक पड़ोसी औरत उनमें से बड़ी बेटी को पास बुलाती है।

पड़ोसी: "तेरे पापा ने शराब पी रखी है?"

बच्ची: "नहीं।"

पड़ोसी: "तो फिर लड़ क्यों रहे हैं?"

बच्ची (धीरे से): "लड़ नहीं रहे... बात कर रहे हैं।"

“कहते हैं, घर की बुरी परिस्थितियाँ बेटियों को बहुत जल्दी बड़ा कर देती हैं। सिर्फ सात साल की वो बच्ची इतनी समझदार हो गई है कि जानती है — घर की बात बाहर नहीं बताई जाती।”



दादी ने भी बच्चियों को ही गालियाँ दीं — “इन्हीं मनहूसों की वजह से घर में हर वक्त लड़ाई रहती है! ना जाने कहाँ से आ गईं हमारी छाती पर मूँग दलने को!”

बच्चियाँ चुपचाप दादी की ओर देखती रहीं। उनकी आँखों में आँसू थे, पर दादी की आँखों का पानी तो जैसे सूख चुका था। पोते की लालच में उनके दिल की ममता मर चुकी थी।

शाम ढल गई। घर में सन्नाटा पसरा हुआ था — न चूल्हा जला, न बर्तन खनके। ज्योति कोने में बैठी थी, तीनों बच्चियाँ उसके पास लेटी थीं। भूख से उनके पेट गुड़गुड़ा रहे थे, पर नींद और थकान ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया था।

अँधेरे में टिमटिमाती लालटेन की लौ जैसे हर सांस के साथ थरथरा रही थी — बिल्कुल ज्योति की तरह।

वह सोच रही थी — "अगर बेटा होता तो सब खुश होते। सास शायद गालियाँ न देती, दीपु शायद मुझे न मारता... और पड़ोसी? वो भी शायद हमें नीची निगाहों से न देखते..."

उसकी आँखों में आँसू थे, पर उस आँसू में मातृत्व की ममता से ज़्यादा अपराधबोध था — जैसे बेटा न जनने का अपराध उसी का हो।

उसने धीरे से अपने पेट पर हाथ रखा, और खुद से बुदबुदाई — "काश... अगली बार बेटा हो जाए..."

उसे पता था कि यह सोच गलत है, पर समाज की आवाज़ उसके भीतर इस कदर घुल चुकी थी कि अब उसे सही-गलत का फर्क मिटता जा रहा था।

दूर कहीं से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आई। ज्योति ने अपनी बच्चियों की ओर देखा। उनके चेहरों पर मासूम शांति थी — वही शांति जो शायद ज़िंदगी में उन्हें कभी न मिले।

ज्योति बस चुप रही। उसकी चुप्पी में एक औरत की पूरी जिंदगी की कहानी थी — एक ऐसी औरत की, जो जानती है कि वह पीड़ित है, पर फिर भी उसी सोच की गिरफ्त में है जो उसे पीड़ा देती है।

रात बीतती गई। बाहर अँधेरा था — और अंदर भी। फर्क बस इतना था कि बाहर का अँधेरा सुबह मिट जाएगा, पर ज्योति के भीतर का अँधेरा शायद कभी नहीं।

“ये कैसा दुर्भाग्य है हमारे देश का, इस घर के दोनों बेटे जो कि नकारा, कर्महीन, शराबी है जिन्होंने कभी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई, ना अच्छे बेटे होने की, ना अच्छा पिता होने की, ना अच्छा पति होने की, लेकिन फिर भी लड़कों के होने की उम्मीद करते हैं. ऐसा क्या है जो इनकी आंखें खोल सकता है? ये तो वही बात हो गई दीया तले अंधेरा।”


आज एक अच्छी सुबह है। बच्चे उठकर मुँह-हाथ धोते हैं और मम्मी के पास आकर बैठ जाते हैं। मम्मी उन्हें खाना दे रही है और स्कूल के लिए तैयार कर रही है।

ज्योति: "तुम बच्चों को स्कूल छोड़कर मैं काम पर चली जाऊँगी।"

बड़ी बेटी: "मम्मी, गुड़िया तो अभी बहुत छोटी है... आप उसे छोड़कर कैसे काम पर जाओगी?"

मम्मी (मुस्कुराकर): "बेटा, दो घंटे के लिए मैं गुड़िया को पड़ोसी के यहाँ छोड़ दूँगी। और लौटते वक्त तुम दोनों को भी साथ ले आऊँगी। आज मुझे सिलाई मशीन का तेल भी लाना है, ताकि मैं लोगों के सूट जल्दी सिलकर दे सकूँ।"

वह रुकती है, फिर धीरे से कहती है — "कुछ पैसे आ जाएँगे तो तुम लोगों की स्कूल की फीस भी भर दूँगी।"

थोड़ी देर चुप्पी छा जाती है। फिर ज्योति खुद से बुदबुदाती है — "तेरा बाप तो सुबह-सुबह ही निकल गया... पता नहीं कहाँ गया है।"





दोपहर के करीब बारह बजे ज्योति अपने काम से लौटती है। वह देखती है कि उसकी बेटियाँ घर के पास वाले मैदान में खेल रही हैं।

ज्योति (चौंककर): "तुम स्कूल से वापस कैसे आ गईं? क्या हुआ?"

बड़ी बेटी (नीचे नज़र करते हुए): "मम्मी... प्रिंसिपल ने घर भेज दिया। बोले — कल या तो फीस लेकर आना, या पापा को साथ लाना।"

ज्योति का चेहरा एक पल को सूना पड़ जाता है। वह गुड़िया को उठाती है और धीरे से कहती है — "चलो, घर चलो बेटा... खाना बनाकर खिलाती हूँ।"

घर पहुँचकर वह सब्ज़ी की टोकरी खोलती है। अंदर सिर्फ एक प्याज़ और एक आलू पड़ा है। बच्चों के मासूम चेहरों को देखकर उसकी आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं। वह कपड़ों की अलमारी खंगालती है — शायद कहीं कोई सिक्का या नोट मिल जाए... पर हर कोना खाली है।

थकी हुई, टूटी हुई ज्योति चुपचाप ज़मीन पर बैठ जाती है। कुछ पल सोचती है, फिर अचानक उसकी नज़र आटे के कनस्तर पर पड़ती है। वह उठती है, आटा निकालती है और कड़ाही में डालकर गैस चालू करती है। थोड़ी देर बाद उसमें चीनी और पानी मिलाकर हलवा बना लेती है।

बच्चियों की आँखों में चमक आ जाती है। वह उन्हें छोटे-छोटे कटोरों में हलवा डालकर खिलाती है। गुड़िया को गोद में लेकर अपने दूध में लगाती है, और खुद भी हलवे का एक निवाला मुँह में डालने ही वाली होती है कि —

अचानक दरवाज़े के बाहर से दीपु की आवाज़ आती है — "ओए! कुछ बनाया है खाने को?"

ज्योति जल्दी से हलवा छिपा देती है।

ज्योति: "नहीं... कुछ है ही नहीं, क्या बनाऊँ?"

दीपु (गुस्से में): "साला! इस घर में कुछ भी मेरे हिसाब का नहीं है — न खाना, न बीवी, न बेटा!"

ज्योति (दबी हुई लेकिन सख्त आवाज़ में): "वैसे तो ज़िंदगी भी तेरी नहीं है। उधारी पर जी रहा है तू... इससे तो मर जाना ही अच्छा है!"

दीपु गुस्से से तिलमिला उठता है। दीपु: "क्या कहा तूने? साली, मेरे ही घर में रहकर, मेरा खाना खाकर मुझे ही जवाब देती है?"

ज्योति: "गलतफ़हमी में मत रह... मैं तेरी कमाई नहीं खाती। मैं खुद कमाती हूँ — तभी जाकर अपना और अपनी बेटियों का पेट पालती हूँ!"

दीपु व्यंग्य से हँसता है। दीपु: "अच्छा! तू काम पर जाती है? झूठ मत बोल! तू बाहर अपने किसी यार से मिलने जाती है... वही तुझे पैसे देता है!"

ज्योति का चेहरा लाल पड़ जाता है — गुस्से से नहीं, अपमान से। ज्योति: "अगर ऐसा है भी... तो तू मुझसे पैसे छीनकर दारू क्यों पी जाता है? क्यों उस कमाई से बना खाना खा लेता है? अगर ऐसा है तो घर में पैसा कमाकर ला। ताकि मुझे घर के बाहर जाना न पड़े।

तुझे पता भी है, आज बच्चों को स्कूल से निकाल दिया गया! ला दे पैसे! फीस भरने के लिए! है हिम्मत?"

दीपु चीखता है — "साली मुझसे ज़ुबान लड़ाती है!"

और तभी एक ज़ोरदार लात ज्योति की कमर पर मारता है। ज्योति दर्द से कराह उठती है, पर कुछ नहीं कहती। दीपु दरवाज़ा पटककर बाहर चला जाता है।

घर में फिर वही सन्नाटा पसर जाता है — सिर्फ गुड़िया के रोने की हल्की आवाज़ उस सन्नाटे को चीरती है।




बच्चियाँ यह सब देखकर चुपचाप कमरे के एक कोने में जाकर खड़ी हो जाती हैं। उनकी आँखों में डर है, पर उनसे भी गहरी है — चुप्पी।



अगले दिन, फीस न भर पाने की वजह से स्कूल से दोनों बच्चियों को टीसी (Transfer Certificate) मिल जाती है। ज्योति बहुत निराश होती है, लेकिन हार नहीं मानती। वह अगले ही दिन उन्हें पास के सरकारी स्कूल में दाखिल करवा देती है — जहाँ पढ़ाई मुफ़्त है।

वह जानती है कि गरीबी की इस काली रात से निकलने का एक ही रास्ता है — “शिक्षा (Education)”।



आज हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जो खुद को फेमिनिस्ट (Feminist Society) कहता है, लेकिन क्या हम सच में फेमिनिज़्म का अर्थ समझते हैं?

फेमिनिज़्म का मतलब यह नहीं है कि लड़कियाँ कम कपड़े पहनें, सिगरेट या शराब पिएँ — जैसा कि हमारी मनोरंजन (Entertainment) इंडस्ट्री अक्सर दिखाती है।

फेमिनिज़्म का असली मतलब है — लड़कियों को लड़कों के बराबर समझना (Gender Equality)।

  • लड़कों की तरह बराबर शिक्षा का अधिकार (Equal Education),

  • हर क्षेत्र में बराबर अवसर (Equal Opportunity),

  • और सबसे पहले, जीवन की मूलभूत सुविधाओं में समानता।

कपड़ों की आज़ादी, सिगरेट, शराब — ये सब आज़ादी बाद की  हैं।

सबसे पहले, लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए, ताकि वे किसी की दया नहीं, अपने अधिकारों पर जीवन जी सकें


मनिराम और राम श्री गाँव से प्रदीप (छोटे बेटे) का रिश्ता पक्का करके लौटे। पूरा गाँव इस खुशखबरी से गूँज उठा। देखते-देखते शादी हो गई, और कुछ ही समय में प्रदीप की पत्नी गर्भवती हो गई।

समय जैसे पंख लगाकर उड़ गया — और वह दिन आ गया, जब घर में बच्चे की पहली किलकारी गूँजी। घर भर में खुशियों की लहर दौड़ गई। सबके चेहरे चमक उठे — “लड़का हुआ है!” प्रदीप और उसकी पत्नी का मान-सम्मान अचानक कई गुना बढ़ गया। अब घर के बड़े फैसलों में उनकी राय ली जाने लगी, और हर त्योहार पर उन्हें विशेष आदर और तोहफ़े मिलने लगे।

ज्योति यह सब चुपचाप देखती रही। हर किसी के चेहरे पर खुशी थी — बस उसके नहीं। उसे ऐसा लगा जैसे उसकी ज़िंदगी किसी अधूरे वाक्य की तरह रह गई हो, जहाँ हर शब्द में दर्द और हर सांस में तिरस्कार भरा है।

अब तो देवरानी भी उस पर हुक्म चलाने लगी थी। अपने आत्म-सम्मान को वापस पाने की कोशिश में, ज्योति चौथी बार गर्भवती हो गई — यह सोचकर कि शायद इस बार लड़का होगा, और उसकी भी इज़्ज़त लौट आएगी।


“काश ज्योति ने अपनी शिक्षा पूरी की होती। ताकि उसे शिक्षा का असली महत्व का पता चल पाता।”



वह अपनी बेटियों को इतना शिक्षित बनाती कि वे न केवल अपने माता-पिता का, बल्कि पूरे गाँव का नाम रोशन करतीं। और शायद उसी बेटी के माध्यम से समाज में एक नई जागरूकता की किरण जन्म लेती — जो यह सिखाती कि सम्मान लिंग से नहीं, कर्म से मिलता है।


देखते ही देखते ज्योति का नौवां महीना आ जाता हैं। लेकिन उसका शरीर थकान और कुपोषण से पूरी तरह जकड़ा हुआ था। उसका चेहरा फीका पड़ गया था, होंठ बुझे हुए, आँखों में हल्की धुंध और कमजोरी की छाया थी। हर सांस उसके लिए संघर्ष बन चुकी थी। उसकी पीड़ा केवल शारीरिक नहीं थी — मन, आत्मा और हृदय भी थक चुके थे। वह जानती थी कि एक और जीवन को जन्म देना कितना जोखिम भरा है, पर मजबूरी और समाज का दबाव उसे रोक नहीं पाए।

सुबह की पहली किरण के साथ ही उसने दर्द महसूस किया। प्रत्येक लहर उसके पूरे शरीर में आग की तरह फैल रही थी। वह बिस्तर पर अपने पैरों को बार-बार पटकती, जैसे दर्द को खुद से बाहर निकालना चाहती हो। चीखें घर के हर कोने में गूँज रही थीं, इतनी तेज़ कि दीवारें भी जैसे कांप उठीं।

दाई ने तुरंत उसका परीक्षण किया और ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन दिया। लेकिन, ज्योति का शरीर इतना कमजोर हो चुका था कि प्रत्येक संकुचन उसे और अंदर से तोड़ रहा था। दर्द ने उसकी मांसपेशियों को पूरी तरह जकड़ लिया था। उसकी आँखों में हल्की अंधेरी धुंध फैल रही थी, साँसें कमज़ोर पड़ने लगी थीं। वह सांसों की लड़ाई लड़ रही थी, पर शरीर पर नियंत्रण कम होता जा रहा था।

बड़ी बेटी दौड़ती हुई आई। उसने देखा कि उसकी माँ दर्द में सिकुड़ी हुई है, पैर बार-बार पटक रही हैं, चेहरे की हर रेखा पीड़ा की कहानी सुना रही है। छोटी बच्ची भी रोते हुए माँ की ओर हाथ बढ़ाती है, पर दाई उसे बाहरी कमरे में ले जाती है। देवरानी भी चुप करा देती है, लेकिन दोनों बच्चियों की आँखों में डर और चिंता साफ़ झलक रही थी।

तभी एक नई, नन्ही किलकारी गूँजी। ज्योति की आँखों के सामने जीवन की पहली मुस्कान चमकी — उसकी नन्हीं बेटी की। लेकिन, उसी समय उसके शरीर ने हार मान ली।

ज्योति की साँसें अचानक धीमी पड़ गईं। हृदय की लय धीरे-धीरे रुकने लगी। उसके चेहरे पर दर्द और संघर्ष की छाया बनी रही। हाथ और पैर थक कर ढीले पड़ गए। साँसों की लड़ाई धीरे-धीरे शांत हो गई।

ज्योति ने इस दुनिया को छोड़ दिया। उसका शरीर अब वहीं बिस्तर पर पड़ा था, पर उसकी ममता और संघर्ष की छाया अभी भी घर में गूँज रही थी। उसकी आँखें बंद थीं, पर चेहरे की रेखाओं ने जीवन और मृत्यु की सच्चाई बयान कर दी। उसकी मुस्कान, जो कभी बेटियों के लिए प्यार और सुरक्षा का प्रतीक थी, अब सिर्फ याद बन गई थी।

घर में अचानक गहन शांति छा गई — पर यह शांति राहत की नहीं थी। यह खालीपन, अपूरणीय दुख और असहायपन की थी। बड़ी बेटी ने माँ का खाली हाथ पकड़ा, और नन्हीं बहन की किलकारियों में जीवन की कठोर सच्चाई महसूस की। उसने पहली बार जाना कि खुशियों और दुख का संगम कितना नाजुक और भयानक होता है।

दाई ने धीरे-धीरे सभी को समझाया, और देव रानी ने नन्हीं बच्ची को अपने हाथों में सुरक्षित रखा। लेकिन घर के हर कोने में ज्योति की अनुपस्थिति की खामोशी गूँज रही थी — एक ऐसा दर्द, जिसे शब्दों में बयां करना नामुमकिन था|


कुछ दिनों बाद दीपु की दूसरी शादी है………...



समाधान / निष्कर्ष :


कहानी “ज्योति: अंधकार में” केवल एक स्त्री की नहीं, बल्कि समाज के उस कड़वे सत्य की कहानी है जहाँ बेटी पैदा होना आज भी अभिशाप समझा जाता है। ज्योति ने अपनी पूरी ज़िंदगी सहन, समर्पण और संघर्ष में गुज़ार दी, सिर्फ इसलिए क्योंकि वह बेटे को जन्म नहीं दे सकी। पर दुखद है कि परिवार और समाज यह समझने में असफल रहा कि बेटी या बेटा होने की जिम्मेदारी स्त्री की नहीं, बल्कि प्रकृति की है — और वैज्ञानिक दृष्टि से यह पुरुष के गुणसूत्र तय करते हैं।


ज्योति की मौत केवल एक स्त्री की मौत नहीं है, बल्कि यह एक समाज की जिम्मेदारी का अंत है। उसकी मृत्यु हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि—


क्या माँ की कोख सिर्फ बेटा पैदा करने की मशीन है?


क्या एक बच्ची का जन्म इतना बड़ा अपराध है?


क्या गरीबी, शराब, हिंसा और अपमान का दोष हमेशा महिला पर ही डाला जाएगा?



इस कहानी का समाधान केवल संवेदना नहीं, परिवर्तन है।


हमें क्या बदलना होगा?


1. लड़कियों को शिक्षा मिलनी ही चाहिए।

शिक्षा ही वह ज्योति है जो जीवन के सबसे गहरे अंधकार को भी मिटा सकती है।



2. लड़का-लड़की में भेदभाव बंद होना चाहिए।

सम्मान लिंग से नहीं, चरित्र से मिलता है।



3. पुरुषों की गलतियों का बोझ महिलाओं पर डालने की परंपरा खत्म होनी चाहिए।



4. नशा और घरेलू हिंसा को सामाजिक अपराध समझकर रोकना होगा।



5. हर बेटी को यह सिखाना होगा कि उसका जीवन किसी के मूल्यांकन पर नहीं, उसके अधिकारों पर आधारित है।




कहानी का संदेश / सीख:


इज्ज़त जन्म से नहीं, कर्म से मिलती है।


बेटियाँ बोझ नहीं, संभावनाओं की रोशनी हैं।


एक स्त्री की चुप्पी उसका कर्तव्य नहीं, उसकी मजबूरी होती है — स्त्री और समाज को यह मजबूरी ख़त्म करनी है।



ज्योति भले ही इस दुनिया से चली गई, लेकिन उसकी बेटियाँ ही उसकी सच्ची ज्योति हैं। समाज बदलता है जब कोई स्त्री बोलना सीख लेती है और अपनी अगली पीढ़ी को सही सोच देती है।


“अंधकार को कोसने से बेहतर है, एक दीपक जलाया जाए।”


By Shilpi Rani




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Vanshika Tyagi
Vanshika Tyagi
4 hours ago
Rated 5 out of 5 stars.

Amazing story!❤️keep growing👍

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Rated 5 out of 5 stars.

Amazing write up. Shilpi is a seasoned writer and this article has touched me immensely. Such strong notion can bring changes in the society.

Edited
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Akash Kumar
Akash Kumar
4 days ago
Rated 5 out of 5 stars.

Meri aankhon me aansu aa gye

Ye kahani humre samajh ko batati hai ye humre desh ka dur bhagye hai

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