इंसान बन रहे राक्षस या भूत?
- Hashtag Kalakar
- May 8, 2023
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By Rochak Shrivastava
आज मन में मेरे पनपे आक्रोश कई रज़ा मांगते हैं,
जो सुखों से वंचित उस दिल के लिए दुआ मांगते है।
मन में घनिष्ठ उठ रहें इन सवालों का जवाब ला दो,
नारी स्वरूप में जन्म पाती उसे ज़रा इंसानियत की सहूलियत ला दो।
किसी के घर की लौ को ज्योति का स्वरूप दिला जाति,
कहीं शरद् ऋतु में शीशे पर लगे धूल सी मिटायी जाति।
मैं पत्थर सी कठोर अगर, लगती क्यों कोमल तुम्हें ?
तुम चोट दिए मोम समझ, एक आत्मा भी बस्ती भीतर मुझमें।
होता जो न मुनासिब, उसे जानती मैं बेहतर भाँपना,
अश्कों को समझना कमज़ोरी, होगा गलत आंकना।
है रिक्त कई स्थान, सभी भर देना मेरे बस का नहीं,
मेरा अस्तित्व तुझे ना भाए, जन्म मेरा तेरी सोच सा सस्ता नहीं।
है यहां दानव कितने सारे, कितनों के बीच मैं चलती हूं,
मेरी मां दूर से मुझे करती इशारे, आक्रोश उसका भी मैं समझती हूं।
ऐ इंसान तुझे तुझ सा ही कोई पुकारे, इंसानियत अब तेरे हवाले,
यह सिर्फ सोच नहीं हर दिन के इशारे, न्याय करना तेरी सोच सहारे।
क्यों हम अपनी सफ़ल जीवन सा सोच को सफल नहीं कर पा रहे? आखिर क्यों आज भी इस विचारधारा को मनोविकार सा सिर्फ हमारे भीतर बसाने में लड़े जा रहा है । कब हम इतने सशक्त हो जायेंगे की ऐसे हम स्वयं को या दूसरों को यह बातें समझनी ही न पड़ेगा?
यह जवाब हर उस गलियारे को है जहां एक नारी जन्मती है, हर उस समाज को जिसमें एक नारी को उसका दर्जा नहीं दिया जाता, हर उस सोच को जिसकी कट्टरता न जाने कितने सवाल, कितने ख्वाब, कितनी खुशियां केवल अपनी एक नीच सोच के तले रौंद दिए है।
एक कोशिश शायद कही आपके भी मान में एक सोच को पनपने से रोके। हर इंसान आपने कर्मों अपने सोच से इंसान होता है वरना जानवरों में ही होता है इंसान, ऐसा विज्ञान कहता है।
मैं इंसान हूं इंसानियत जानता हूं, तुझे जो है नहीं सोचना वह समझाना जानता हूं।।
By Rochak Shrivastava

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